पुलिस हिरासत में हुई उमेश सिंह मौत मामले में झारखंड हाईकोर्ट का आदेश- पीड़ित परिवार को दें 5 लाख का मुआवजा

अदालत ने इस मामले में दोषी पाये जानेवाले पुलिस पदाधिकारियों से राशि वसूलने का भी निर्देश दिया. उक्त आदेश हाइकोर्ट के जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी की अदालत ने दिया.

By Prabhat Khabar News Desk | July 7, 2023 7:31 AM

वर्ष 2015 में पुलिस हिरासत में हुई उमेश सिंह की माैत मामले की सीबीआइ जांच व 10 लाख रुपये मुआवजा को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के बाद झारखंड हाइकोर्ट ने पीड़ित परिवार को पांच लाख रुपये मुआवजा भुगतान का आदेश दिया है. राज्य सरकार को निर्देश दिया कि मृतक की पत्नी (प्रार्थी) को छह सप्ताह के अंदर मुआवजा राशि का भुगतान किया जाये.

साथ ही अदालत ने इस मामले में दोषी पाये जानेवाले पुलिस पदाधिकारियों से राशि वसूलने का भी निर्देश दिया. उक्त आदेश हाइकोर्ट के जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी की अदालत ने दिया. अदालत ने कहा कि इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि पुलिस हिरासत में माैत हुई है और इस तरह के मामले में मुआवजा अनिवार्य है. यह पुलिस बर्बरता का साबित मामला है.

अदालत ने राज्य सरकार से पूछा कि इस घटना के जिम्मेवार पुलिस पदाधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही क्यों नहीं चलायी गयी, भले ही सीआइडी ने उन्हें दोषमुक्त करनेवाली रिपोर्ट प्रस्तुत की हो. अदालत ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही व विभागीय कार्यवाही के मानक अलग-अलग तथ्यों व परिस्थिति पर आधारित होते हैं.

अदालत ने राज्य सरकार को पुलिस पदाधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही चलाने का निर्देश दिया. उल्लेखनीय है कि प्रार्थी मृतक की पत्नी बबीता देवी ने क्रिमिनल रिट याचिका दायर की थी. उन्होंने मामले की सीबीआइ जांच और अपने व बच्चे के लिए 10 लाख रुपये अतिरिक्त मुआवजा की मांग की थी.

क्या है मामला :

धनबाद के घनुडीह ओपी के प्रभारी हरिनारायण राम के निर्देश पर घनुडीह चौकी के मुंशी पवन सिंह ने जून 2015 में उमेश सिंह को हिरासत में लिया था. जब उमेश सिंह अगले दिन सुबह में घर नहीं लौटे, तो परिवार के सदस्यों ने तलाश शुरू की. घनुआडीह जोरिया के पास उनका शव पाया गया. उमेश सिंह के शरीर पर चोट के कई निशान थे.

उस समय वह सिर्फ अंडरगारमेंट पहने हुए थे. मृतक की शर्ट पुलिस स्टेशन के लॉकअप में मिली थी. मृतक की पत्नी बबीता देवी ने झरिया पुलिस स्टेशन में हरिनारायण राम, सतेंदर कुमार, पवन सिंह सहित अज्ञात पुलिस अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी थी, लेकिन अनुसंधानकर्ता ने डेढ़ साल से अधिक समय तक याचिकाकर्ताओं का बयान भी दर्ज नहीं किया. बाद में मामले की जांच सीआइडी से करायी गयी, जिसमें सीआइडी ने पुलिस अधिकारियों को दोषमुक्त कर दिया था.

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