Vadh Movie Review: आम आदमी की इस असरदार कहानी में…दमदार हैं संजय मिश्रा और नीना गुप्ता
एक आम इंसान अपने लोगों को मुसीबत से बचाने क़े लिए किस हद तक जा सकता है. दृश्यम क़े बाद वध भी यही कहानी दोहराती है. जहां सही और गलत को विभाजित करने वाली रेखा धुंधली पड़ जाती है. शायद यही वजह है कि फ़िल्म क़ा नाम भी वध रखा गया है, क्योंकि वध हमेशा दुष्टों और आततायियों का किया जाता रहा है.
फ़िल्म -वध
निर्देशक -जसपाल. सिंह संधू और राजीव बरनवाल
कलाकार -संजय मिश्रा, नीना गुप्ता, मानव विज,सौरभ सचदेवा और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -तीन
एक आम इंसान अपने लोगों को मुसीबत से बचाने क़े लिए किस हद तक जा सकता है. दृश्यम क़े बाद वध भी यही कहानी दोहराती है. जहां सही और गलत को विभाजित करने वाली रेखा धुंधली पड़ जाती है. शायद यही वजह है कि फ़िल्म क़ा नाम भी वध रखा गया है, क्योंकि वध हमेशा दुष्टों और आततायियों का किया जाता रहा है. संजय मिश्रा और गायत्री मिश्रा क़ा किरदार बुजुर्ग होने क़े साथ -साथ बहुत मासूम और साधारण भी हैं, ऐसे में वह किस तरह से वध को अंजाम देंगे यह पहलू फ़िल्म की कहानी में रोमांच को ठीक उसी तरह बढ़ाता है, जैसे दृश्यम में चौथी फेल इंसान अपने परिवार को बचाने क़े लिए अपनी स्मार्टनेस से सभी को चौंकाता है. दृश्यम में विजय सलगांवकार अगर फिल्मों क़े ज़रिए खुद को बचाने क़ा तरीका ढूंढता है, तो यहां शम्भूनाथ की प्रेरणा मनोहर कहानियां है.फ़िल्म की प्रस्तुति सीधी और सरल है और साथ में कलाकारों क़ा असरदार अभिनय है.जिस वजह से यह फ़िल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए.
असरदार है कहानी और उसका ट्रीटमेंट
फ़िल्म क़े कहानी एक बुजुर्ग दम्पति शम्भू नाथ मिश्रा (संजय मिश्रा )और गायत्री मिश्रा (नीना गुप्ता) की है. वह अभावों में ज़िन्दगी जी रहे हैं, क्योंकि अपने बेटे को विदेश पढ़ने जाने क़े लिए उन्होने कर्ज ले रखा है. वो भी एक अपराधिक बैकग्राउंड वाले प्रजापति पांडे(सौरभ सचदेवा), जो आए दिन उन्हें अलग- अलग तरीकों से प्रताड़ित कर रहा है. वही बेटे ने विदेश जाने क़े बाद ना सिर्फ इस कर्ज बल्कि अपने माता -पिता से भी खुद को दरकिनार कर लिया है.इन सब परेशानियों क़े बावजूद यह दम्पति नार्मल ज़िन्दगी जीने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में एक दिन कुछ ऐसा हो जाता है, जब शम्भूनाथ मिश्रा को प्रजापति पांडे कर वध करने को मजबूर होना पड़ता है. क्या है वो मज़बूरी जिसमें उनका स्वार्थ छिपा नहीं है, जिस वजह से प्रजापति की मौत हत्या नहीं बल्कि वध हो जाता है. फ़िल्म की कहानी यह बखूबी दर्शाने में कामयाब हुई है. फ़िल्म क़े ट्रेलर में यह भी दिखाया गया था कि शम्भूनाथ मिश्रा कर किरदार अपने जुर्म कर इकरार कर चुका है. क्या इन्हे सजा हो जाएगी या ये वध इतना परफेक्ट तरीके से किया गया है कि मिश्रा परिवार जुर्म कर इकरार करने क़े बावजूद बच जाएगा. यही फ़िल्म क़ि आगे की कहानी हैं
फ़िल्म की प्रस्तुतिकरण सीधी और सरल है. जो किरदारों से लेकर उनके आसपास की दुनिया में भी दर्शायी गयी है.मूड को हल्का करने के लिए,फ़िल्म में शुरूआत से ही हास्य कर तड़का भी लगाती रहती है. कभी मिश्रा दम्पति की छोटी -छोटी बातों से तो कभी पडोसी और आगे फ़िल्म में पुलिस वाला अपनी मनोहर कहानियों से.फ़िल्म की शुरूआत में कहानी को बिल्डअप करने में थोड़ा ज़्यादा समय लिया गया है,लेकिन कहीं ना कहीं वो ज़रूरी था. क्योंकि उससे इस दम्पति की सोच और ज़िन्दगी क़े जद्दोजहद से एक कनेक्शन सा बन जाता है.फ़िल्म का क्लाइमैक्स फ़िल्म को एक लेवल आगे ले जाता है.
फ़िल्म क़े ट्रेलर लॉन्च क़े बाद से ही फ़िल्म की तुलना श्रद्धा हत्याकांड से होने लगी थी. फ़िल्म में जिस तरह से वध किया गया है उसको करने क़ा तरीका श्रद्धा हत्याकाण्ड से मिलता -जुलता है. फ़िल्म में उस क्रूरता को दिखाया नहीं गया है, लेकिन सुनाया ज़रूर गया है. जो बैचैनी को बढ़ा ज़रूर जाता है.
स्क्रिप्ट में यहां रह गयी खामियाँ
स्क्रिप्ट की खामियों की बात करें तो फ़िल्म क़ा मूल विषय दृश्यम से मेल. ख़ाता है, लेकिन स्क्रिप्ट में रोमांच की कमी है. जिस तरह से कहानी में सबकुछ घटित होता है, वो कहीं ना कहीं पूर्वअनुमानित होता है. फ़िल्म में रोमांच की कमी है और यह सवाल भी गिने -चुने मौके पर आता है कि अब क्या होगा. क्या मिश्रा दम्पति बच पाएंगे. फ़िल्म में यह दिखाया गया था कि शम्भूनाथ मिश्रा हर सबूत को मिटा देते हैं. हड्डियों तक को पीस देते हैं, ऐसे में कत्ल वाले हथियार स्क्रूड्राइवर को क्यों घर क़े पास छिपा देते हैं. जिसका इस्तेमाल पुलिस बाद में विधायक को फंसाने में करता है.
ये पहलू भी हैं कमाल
तकनीकी पक्ष की बात करें तो सीमित संसाधनों में भी फ़िल्म अपनी कहानी क़े साथ बखूबी न्याय करने में कामयाब रही है. ग्वालियर की गलियों का मेल. कहानी क़े साथ बखूबी दिखाया गया है. फ़िल्म क़े संवाद अच्छे बन पड़े हैं, तो फ़िल्म कर बैकग्राउंड म्यूजिक भी फ़िल्म में अपने प्रभाव को बनाने में कामयाब हुआ है.
अभिनय है शानदार
अभिनय क़े दो धुरंधर संजय मिश्रा और नीना गुप्ता इस फ़िल्म क़ा मुख्य चेहरा हैं. स्क्रिप्ट की कुछ खामियों क़े बावजूद अगर फ़िल्म से जुड़ाव शुरू से अंत तक बना रहता है, तो यह उनका अभिनय ही है. दोनों अपने किरदारों से कहानी क़े हर उतार -चढ़ाव को बखूबी जीते नज़र आए हैं.उनकी बीच की केमिस्ट्री भी बहुत नेचुरल है.नकारात्मक किरदार में सौरभ सचदेवा अपनी छाप छोड़ने में कुछ इस कदऱ कामयाब हुए हैं क़ि दर्शक क़े तौर पर आप खुद चाहते हैं क़ि शम्भूनाथ उसे मार डाले. मानव विजय भी अपनी भूमिका में जमे हैं. बाकी क़े किरदारों ने भी अपने -अपने किरदारों क़े साथ न्याय किया है.