West Bengal Election 2021: कोलकाता : पश्चिम बंगाल चुनाव 2021 के मद्देनजर हर राजनीतिक दल समाज में ऐसे समूहों की तलाश में रहता है, जहां से उसके पक्ष में बड़े पैमाने पर एकमुश्त वोटिंग की संभावना मजबूत हो. इसके लिए राजनीतिक पार्टियां तरह-तरह की जुगत लगाती हैं. वादे और दावे करती है. मौका देख डराती और पुचकारती भी हैं.
पश्चिम बंगाल में होने जा रहा विधानसभा चुनाव 2021 भी इस लिहाज से बहुत अलग नहीं रह सकता. आर्थिक-सामाजिक और भौगोलिक कारकों के चलते बंगाल के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से का राजनीतिक हिसाब-किताब एक-दूसरे से थोड़ा अलग है. राजनीतिक दल भी उत्तर बंगाल और दक्षिण बंगाल की जरूरतों के हिसाब से अपनी चुनावी रणनीति बनाते व बदलते रहते हैं.
जहां तक दक्षिण बंगाल का सवाल है, यहां जब भी बड़ी संख्या में एकमुश्त वोट पाने की बात होती है, तो सबकी नजर मतुआ संप्रदाय के वोटों पर जाती है. इसकी वजह है, राज्य की जनसंख्या और मतदान प्रक्रिया में इनकी भागीदारी का असर तथा इनके प्रभाव में आने वाले विधानसभा क्षेत्रों की संख्या.
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दरअसल, मतुआ संप्रदाय के लोगों की संख्या करीब दो करोड़ बतायी जाती है. अगर बंगाल की कुल आबादी 10 करोड़ है, तो स्पष्ट है कि इसमें 20 फीसदी भागीदारी अकेले मतुआ संप्रदाय की है. आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर बंगाल के नॉर्थ व साउथ दिनाजपुर जिलों के बाद दक्षिण बंगाल के उत्तर 24 परगना पर मतुआ आबादी का खासा असर है.
इसके अतिरिक्त दक्षिण बंगाल के नदिया और हावड़ा जिला को भी मतुआ संप्रदाय के लोग काफी हद तक प्रभावित करते हैं. सबसे महत्वपूर्ण हैं वे विधानसभा सीटें, जिनमें से कई में इनकी आबादी 50 प्रतिशत तक है. जनसंख्या और मतदाताओं की संख्या के लिहाज से यह काफी महत्वपूर्ण है. कमोबेश यहां के हर राजनीतिक दल के लिए.
आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण बंगाल के हावड़ा, नदिया और उत्तर 24 परगना की करीब ढाई दर्जन ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जिन्हें मतुआ मतदाता प्रभावित करते हैं. यही वजह है कि देश विभाजन के समय शरणार्थी बनकर यहां आये मतुआ संप्रदाय के लोग आज की तारीख में राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और यहां सत्ता की प्रबल दावेदार के तौर पर अपने को पेश कर रही भाजपा, दोनों के लिए अति महत्वपूर्ण हो उठे हैं. दोनों ही दल एक-दूसरे से आगे जाकर मतुआ संप्रदाय के मतदाताओं को रिझाने की कोशिश में हैं.
वैसे, अगर मतुआ प्रभावित इलाकों में पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों को मौजूदा राजनीतिक मुद्दों के चलते अब भी प्रभावी माना जाये, तो तृणमूल पर भाजपा की बढ़त दिखती है. उत्तर 24 परगना की बात करें, तो यहां दमदम तो नहीं, पर भाजपा को बैरकपुर और बनगांव में अवश्य ही सफलता मिली.
दमदम में भी भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार रहे सौगत राय की जीत की मार्जिन में बड़ी सेंध लगा दी थी. वर्ष 2014 में सौगत राय डेढ़ लाख से भी अधिक मतों के अंतर से चुनाव जीते थे, तो वर्ष 2019 में उनकी जीत का अंतर 53 हजार रह गया. यानी पिछले लोकसभा चुनाव में दमदम में तृणमूल अपनी जीत के पुराने अंतर से एक लाख से भी अधिक वोट खो चुकी थी.
बैरकपुर में प्रतिष्ठा की जबरदस्त लड़ाई में तृणमूल को भारी क्षति हुई थी. वहां तृणमूल कांग्रेस से ही भाजपा में आये अर्जुन सिंह ने पूर्व रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार रहे दिनेश त्रिवेदी को पराजित कर दिया. बनगांव में तो मतुआ संप्रदाय को नेतृत्व कर रहे ठाकुर परिवार के ही सदस्य शांतनु ठाकुर ने भाजपा के लिए जीत दर्ज की.
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वैसे इसी जिले की बारासात व बसीरहाट लोकसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस काबिज रही है. हालांकि, इन दोनों लोकसभा क्षेत्रों में भी भाजपा ने अपने वोट आधार को व्यापक करने में कामयाबी हासिल की है. उसके वोट प्रतिशत में काफी बढ़ोतरी हुई है.
इस तरह, भाजपा लगातार मतुआ मतों पर अपनी दृष्टि लगा रखी है. वह भी इनके वोटों का हिसाब-किताब समझ रही है. दूसरी तरफ तृणमूल भी लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी खोयी जमीन को विधानसभा चुनावों के दौरान वापस पाने के लिए हर हथकंडे अपनायेगी, इसमें शक नहीं.
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मतुआ संप्रदाय के मुख्यालय ठाकुरनगर वाले उत्तर 24 परगना जिले की 33 विधानसभा सीटों में से 27 को तृणमूल कांग्रेस ने ही पिछले विधानसभा चुनाव में फतह किया था. ऐसे में तृणमूल कांग्रेस पर मतुआ मतदाताओं के बदले ही रुख के चलते दबाव ज्यादा रहेगा, क्योंकि उसके प्रतिद्वंद्वी भाजपा को वहां विधानसभा की सीटें पाने की लड़ाई लड़नी है, तो तृणमूल को खोने से बचने की लड़ाई. इस बीच मतुआ वोटों के लिए तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की लड़ाई में कांग्रेस और वाम मोर्चा अभी तक कहीं दिख नहीं रहे.
Posted By : Mithilesh Jha