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राम के जन्म पर तुलसीदास ने क्यों किया ‘प्रगट’ शब्द का प्रयोग? लिखा- भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी

श्रीराम को धर्मशास्त्रों ने ‘नारायण’ नहीं, ‘नर’ के रूप में स्थापित किया है. भगवान श्रीराम का जन्म जब हुआ तो उसका उल्लेख रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने 'जन्म' न लिखकर 'प्रगट' शब्द का प्रयोग किया है. उन्होनें 'भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी' लिखा है.

मिर्जापुर, सलिल पांडेय : 22 जनवरी 2024 का दिन ऐतिहासिक होने जा रहा है, जब प्रभु राम की जन्मभूमि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी. श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ने मार्च, 2020 में श्रीराम मंदिर के निर्माण का पहला चरण आरंभ किया था. उसी वर्ष 5 अगस्त को भूमिपूजन किया गया. ‘जय सिया राम’ का जयघोष न केवल भगवान राम के शहर में, बल्कि आज पूरे विश्व में गूंज रहा है. श्रीराम को धर्मशास्त्रों ने ‘नारायण’ नहीं, ‘नर’ के रूप में स्थापित किया है. इसीलिए राम सदा से भारतीयों की आस्था के प्रतीक पुरुष रहे हैं. वहीं, अब अयोध्या में नवनिर्मित भव्य राम मंदिर हमारी समृद्ध परंपराओं का आधुनिक प्रतीक बनने जा रहा है. भगवान श्रीराम का जन्म जब हुआ तो उसका उल्लेख रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने ‘जन्म’ न लिखकर ‘प्रगट’ शब्द का प्रयोग किया है. उन्होनें ‘भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी’ लिखा है. इस ‘प्रगट’ अर्थात प्रकट शब्द से गोस्वामी जी का हर मनुष्य में ‘रामत्व’ प्रकट करने की मंशा झलकती है. श्रीराम को धर्मशास्त्रों ने ‘नारायण’ नहीं, ‘नर’ के रूप में स्थापित किया है. राम को ‘ऊर्जा-शक्ति’ के रूप में जब देखते हैं तो स्थिति स्पष्ट होती है. राजा दशरथ के आंगन में श्रीराम के प्रकट होने का निहितार्थ दस इंद्रियों वाले शरीर रूपी रथ में आत्मा रूपी राम मौजूद हैं. आत्मा रूपी ऊर्जा जब तक इस शरीर में हैं, तब तक यह रथ डोलता-बोलता है और इसी ऊर्जा के निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है. रथी के निकलते ही ‘अ-रथी’ (अर्थी) से व्यक्ति श्मशान तक चला जाता है.

राम को पाने के लिए क्या करना होगा?

मनुष्य शरीर की ऊर्जा सदाचरण से तेजयुक्त होती है. व्यक्ति में आत्मबल बढ़ता है. उसका विवेक उसे राम-सा बनाता है. भगवान श्रीराम अयोध्या नगरी में चैत्र नवरात्र की नवमी तिथि को प्रकट होते हैं. शास्त्रों के अनुसार, काशी महादेव के त्रिशूल पर स्थित है, तो अयोध्या भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र पर स्थित है. मानव शरीर भी मूलाधार से सहस्रार तक आठ चक्रों पर स्थित है. इन्हीं चक्रों को ऊर्जावान बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में योग की महत्ता पर अर्जुन को उपदेश दिया. महर्षि पतंजलि के योग-प्राणायाम से कुंडलिनी शक्ति जागृत कर जीवन को ऋतुराज वसंत की तरह बनाया जा सकता है. ‘नवमी तिथि मधुमास पुनीता, सुकल पक्ष अभिजित हरिप्रीता’ चौपाई के एक एक शब्द से स्पष्ट हो रहा है कि राम का चरित्र पढ़ते, सुनते, गुनते हुए हर कार्य मधुर हो सकता है. राम को पाने के लिए वाह्य दुनिया की जगह आंतरिक दुनिया को जीतना होगा. राक्षस बाहर नहीं, अंदर ही है. उसे निष्प्रभावी बनाने के लिए संयम का रास्ता ही श्रेष्ठ है.

तुलसीदास ‘मध्य दिवस अति सीत न घामा…’ चौपाई में सीत शब्द के जरिये आलस्य से तथा घामा शब्द से क्रोध उत्तेजना आदि के अतिरेक से बचने का संदेश देते दिखाई पड़ रहे हैं. इन रास्तों पर चलने से जीवन में सदैव शुक्ल पक्ष बना रहेगा. सारे धर्मग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि राजा दशरथ ने वृद्धावस्था में पुत्रेष्टि यज्ञ किया था. उस पुत्रेष्टि यज्ञ से अग्निदेव ने खीर प्रदान किया. दशरथ को चार पुत्र हुए. खीर और एक साथ चार पुत्र से स्पष्ट है कि जब कोई भी व्यक्ति सकारात्मक एवं नीतिगत जीवन जीता है, तो उसके शरीर के रस-रसायनों पर खीर की तरह मिठास और पौष्टिकता बनती है, जो शरीर ही नहीं मनोविकारों पर भी नियंत्रण में सहयोगी है. शरीर में विद्यमान ऊर्जा से शारीरिक एवं मानसिक क्षमता बढ़ती है. उसके प्रभामंडल के आगे राक्षस रूपी नकारात्मक शक्तियां पराजित होती हैं. उसका प्रताप दिक्-दिगंत में फैलता है. भगवान श्रीराम के प्रताप का ही असर था कि राक्षसों के वध के लिए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आये. विश्वामित्र ब्रह्मर्षि के पहले राजर्षि थे. उनका नाम विश्वरथ था. मानव शरीर भी एक विश्व की तरह है. इसमें असंख्य जीव रहते हैं. नाना प्रकार की मानसिक-वैचारिक सत्ता इसमें कायम है. द्वंद्वपूर्ण स्थितियां निरंतर बनी रहती हैं. कभी नकारात्मकता शक्तियां जीतती हैं, तो कभी सकारात्मकता. महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण भी इन्हीं द्वंद्वों के कुरुक्षेत्र में खड़े होकर शंखनाद से लेकर उपदेश तक देते हैं.

नवमी तिथि का आशय नौ-रस से लिया जाये. साहित्य के क्षेत्र में इन्हीं नौ रसों का समावेश कर रचनाकार अपनी कृति को रोचक और उत्कृष्ट बनाते हैं. श्रीराम के साथ भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न जैसे भाइयों की चर्चा करते हुए सभी रामायणकारों ने उनके अनूठे आपसी तालमेल का जिक्र किया है. जब जीवन शास्त्रानुसार कोई व्यक्ति जीता है तो उसकी सारी मनोवृत्तियां एकाकार हो जाती हैं. द्वंद्व नहीं होता. उसका मन अयोध्या-सा हो जाता है. उसका आचरण, विवेक राम-सा और फिर वह व्यक्ति समाज के लिए आदर्श तथा अनुकरणीय बन जाता है. वह जहां जायेगा, वहीं वसंत हो जाता है. मनुष्य को जन्म लेने के बाद अपने अंदर राम को प्रकट करने के लिए राम-के आदर्शों को आत्मसात करना ही उनकी सच्ची आराधना है. फिर ‘राम तुम्हारा चरित्र ही महाकाव्य है, कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है’ हर व्यक्ति पर लागू होने लगेगा.

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