सलिल पाण्डेय, आध्यात्मिक लेखक
Holashtak 2023: फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका-दहन से आठ दिन पूर्व अष्टमी से होलाष्टक की तिथियां शुरू हो जाती हैं. होलाष्टक शब्द में ‘अष्टक’ शब्द आठ की संख्या में तिथियों एवं नक्षत्रों के समूह को ध्यान में रखकर इस अवधि में मांगलिक तथा शुभ कार्य स्थगित कर दिये जाते हैं. धर्मग्रंथों में इस पर्व से जुड़े ‘नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजी की कथा’ का विस्तृत वर्णन है, जिसका अध्ययन करने पर इन आठ दिनों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व का पता चलता है.
ज्योतिषीय दृष्टि से फाल्गुन मास की अष्टमी तिथि से पूर्णिमा तक ग्रहों की चाल प्रकृति के प्रतिकूल रहती है. होलाष्टक की अवधि में ग्रहों का स्वभाव उग्र हो जाता है, जिस कारण से इनके दुष्प्रभाव का खतरा बढ़ जाता है. इसका असर पर्यावरण पर भी देखने को मिलता है. इस अवधि में वृक्षों के पत्ते पीले और मुरझा कर गिरते हैं और अनुकूल वातावरण आने पर नये कोंपल उगने शुरू हो जाते हैं.
यह तो खगोलीय और नक्षत्रों के प्रभाव का फल है. यहां अष्टक अवधि में दो प्रवृत्तियां द्वंद्वात्मक स्थिति में आमने-सामने लड़ती दिखाई पड़ती हैं. धर्मग्रंथों की कथाओं के अनुसार, होलिका-दहन को लेकर कथा प्रचलित है कि हिरण्यकश्यप नाम का राजा अपने धर्मनिष्ठ पुत्र प्रह्लाद को मारने के लिए अपनी बहन होलिका को आदेश देता है कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ जाये. होलिका को वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी. हालांकि श्रीमद्भागवत, श्रीमद्देवीभागवत तथा पद्म पुराणों में ऐसी किसी कथा का वर्णन नहीं है. इसकी विस्तृत कथा यह है कि कश्यप ऋषि की दिति नामक पत्नी से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्रों और होलिका नामक पुत्री का जन्म हुआ. हिरण्यकश्यप तो प्रारंभिक दौर में भगवान का उपासक था, लेकिन भाई हिरण्याक्ष भगवान का विरोधी था. भगवान विष्णु ने जब हिरण्याक्ष के अनीतिपूर्व कार्य से खीझ कर उसका वध कर दिया और माता दिति पुत्रशोक में पड़ गयी, तब हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु का विरोधी हो गया और बदला लेने के लिए कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उसे वरदान दिया.
पद्मपुराण के उत्तर खण्ड के ‘नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजी की कथा’ अध्याय के अनुसार, तपस्या के बाद हिरण्यकश्यप ने राजा उत्तानपाद की पुत्री कल्याणी से विधिपूर्वक विवाह किया, जिससे प्रह्लाद का जन्म हुआ, जो भगवान विष्णु का उपासक था. श्रीमदभागवत, श्रीमद्देवीभागवत की कथाओं के अनुसार, हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद की शिक्षा-दीक्षा के लिए जिस गुरु को नियुक्त किया था, उन्हें निर्देश दिया गया था कि वह दैत्य-संस्कृति में उसे दीक्षित करें तथा भगवान विष्णु के प्रति विद्वेष का भाव जागृत करें. जब हिरण्यकश्यप देखता है कि उसका पुत्र प्रह्लाद ‘नारायण’ ही जपता है, तो क्रोध में गुरु को ही प्रताड़ित करने तथा बंधन में बांध लेने का आदेश देता है. जब प्रह्लाद पिता से कहता है कि नारायण-भक्ति का ज्ञान गुरु ने से नहीं मिली, बल्कि खुद का ज्ञान है. तब पिता का क्रोध बढ़ता ही गया. हिरण्यकश्यप के आदेश से प्रह्लाद को भारी यातनाएं दी गयीं, परंतु प्रह्लाद पर कोई असर नहीं पड़ा.
होली पर्व के इस अष्टक को लेकर मान्यता है कि ये वही यातनाओं के आठ दिन थे. यहां परिलक्षित होता है कि भारी यातनाओं को कोई अष्टांग योगी ही सहज झेल सकता है. राजा उत्तानपाद के दौहित्र के नाते प्रह्लाद में वंशानुगत प्रभाव झलकता है. नारायण के जन्मना भक्त तथा अष्टांग योग की साधना में सिद्धहस्त प्रह्लाद के शरीर के रोम-रोम से अष्टाक्षर मंत्र ‘ऊँ नमो नारायणाय’ तथा ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’ की गूंज हो रही थी. अन्य कथाओं के अनुसार, हिरण्यकश्यप पुत्र प्रह्लाद की हत्या के लिए सैनिकों के बजाय किसी स्त्री (होलिका) को गोद में बैठा कर अग्नि में भस्म करने का आदेश इसलिए भी देता है कि आठ अवगुण होलिका की ओढ़नी थी, जो ज्वलनशील नहीं थी. रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई ‘‘अवगुण आठ सदा उर रहहिं… साहस अनृत चपलता माया, भय अविवेक अशौच अदाया…’’ ये भाव और चरित्र पक्ष की ओढ़नी है.
श्रीमद्देवीभागवत में पुरुषों के लिए भी दुर्गुणों का उल्लेख किया गया है. सत्ययुग में इंद्र आदि देवता भी कलियुग के मनुष्यों की तरह क्रोध, ईर्ष्या करते थे. आधुनिक चिंतक प्रह्लाद तथा होलिका की कथा को संवेदना की दृष्टि से देखते हैं. पांच वर्ष के प्रह्लाद की मृत्यु के लिए भाई हिरण्यकश्यप के आदेश पर होलिका असमंजस में पड़ गयी. उसके नारी-मन पर वात्सल्य भाव प्रह्लाद के लिए था ही, क्योंकि वह बुआ है. किसी नारी के मन में भगवान स्वरूप अबोध बच्चे के प्रति ममता न जागे, यह संभव नहीं. लेकिन भाई हिरण्यकश्यप के आदेश के चलते राजी होती तो है, लेकिन प्रह्लाद के अष्टाक्षर मंत्र के आगे वह असफल हो जाती है. सत्य को जलाने की आठ दिनों की हिरण्यकश्यप की कोशिश ही आखिरकार जल जाती है. भाई हिरण्यकश्यप द्वारा दिये निर्मम आदेश के पालन के लिए होलिका को भी आठ दिन लगे. वह अपने आठ अवगुणों को सशक्त रूप देने में लगी थी. आखिरकार वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में कूद जाती है, किंतु प्रह्लाद को बाहर रखकर आत्माहुति कर लेती है. इस कथा के सभी पात्रों पर गौर करें, तो मनुष्य की विकृतियों को जलाने का पर्व होलिकादहन प्रतीत होता है.
होलिकादहन से पूर्व पड़ने वाला होलाष्टक पर्व होला और अष्टक दो शब्दों से बना है. हिंदी साहित्य के शिखरपुरुष आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि होलिका का अर्थ उन्होंने लकड़ी, घास, फूस और अष्टक का अर्थ आठ अवगुणों को कहा है, जिनमें पैशुन्य (चुगलखोरी), दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया (छिद्रान्वेषण) अर्थदूषण, वाग्दण्ड (डांटना-फटकारना) और पारुष्य (कठोरता) है. जब विचारों में उक्त अवगुण घास-फूस की तरह उग आयें, तो इसे जलाकर ही जीवन के आह्लाद को बचाया जा सकता है. वहीं हिरण्यकशिपु का अर्थ आचार्य शुक्ल ने सोने की गद्दी पर बैठने वाला कहा है. जबकि हिरण्य का अर्थ स्वर्ण, ज्ञान, ज्योति, प्रकाश, और अमृत है. कश्यप का आशय मृग से है. हिरण्य (ज्ञान) की प्रवृत्तियां मृग यानी पशुवत होने लगे तो उसे विनष्ट करना आवश्यक है. भगवान श्रीराम ने वनवास के दौरान मृग का ही वध किया था. इस तरह होलिकादहन की इस कथा के माध्यम से मन के भीतर पलने वाले विकारों को जलाकर विवेक रूपी प्रह्लाद को बचाने का भाव सन्निहित है.