27 जनवरी, 1948, आजकल की तरह उस दिन भी दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. सूरज देवता का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं था. उस दिन सुबह आठ बजे महात्मा गांधी राजधानी के महरौली में कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह में पहुंचते हैं. उनके साथ मौलाना आजाद और राज कुमारी अमृत कौर भी थे. बापू तब राजधानी में अलबुर्कक रोड ( अब तीस जनवरी मार्ग) में स्थित बिड़ला हाउस में रहा करते थे. वे और उनके साथी सुबह साढ़े आठ बजे तक दरगाह में पहुंच गए.
महात्मा गांधी बिड़ला हाउस से युसुफ सराय के रास्ते 30-40 मिनट में दरगाह में पहुंच गए होंगे. तब तक एम्स या आईआईटी नहीं बने थे. वे जब दरगाह पहुंचे तब वहां पर उर्स चल रहा था,पर जायरीन कम ही थे. उर्स का उत्साह नहीं था.वहां पर पहुंचते ही उन्होंने दरगाह के उन हिस्सों को देखा जिसे दंगाइयों ने नुकसान पहुंचाया था.उन्होंने वहां पर एकत्र हुए मुसलमानों को भरोसा दिलाया कि उन्हें सरकार सुरक्षा देगी.उन्हें पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं है. उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से दरगाह की फिर से मरम्मत कराने के लिए भी कहा.वे दरगाह में लगभग एकाध घंटा रहे.पर अफसोस कि दरगाह के आसपास कोई शिलालेख भी नहीं लगा जिससे पता चल सके कि यहां कब और किसलिए राष्ट्रपिता आए थे.अब दरगाह से जुड़े किसी खादिम को ये जानकारी नहीं है कि बापू का काकी की दरगाह से किस तरह का रिश्ता रहा है.बहरहाल, यहां आने के तीन दिनों के बाद उनकी हत्या कर दी जाती है.
दरअसल उन्हें 12 जनवरी, 1948 को खबर मिली कि महरौली में कुतुबउदीन बख्तियार काकी की दरगाह के बाहरी हिस्से को दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई है.यह सुनने के बाद उन्होंने अगले ही दिन से उपवास पर जाने का निर्णय लिया.आम तौर पर माना जाता है कि बापू ने अपना अंतिम उपवास इसलिए रखा था ताकि भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सके कि वो पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अदा कर दे. पर सच ये है कि उनका उपवास दंगाइयों पर नैतिक दबाव डालने को लेकर था.उस समय राजधानी में जगह-जगह दंगे भड़के हुए थे. इंसानियत मर रही थी. गांधी जी ने 13 जनवरी को प्रात: साढ़े दस बजे अपना उपवास चालू किया. उस वक्त पंडित नेहरू, सरदार पटेल और बापू के निजी सचिव प्यारे लाल नैयर वगैरह वहां पर थे.बिड़ला हाउस परिसर के बाहर मीडिया भी ‘ब्रेकिंग’ खबर पाने की कोशिश कर रहा था, हालांकि तब तक खबरिया चैनलों को आने में लंबा वक्त बचा था.
बापू के उपवास शुरू करते ही नेहरू जी और सरदार पटेल ने बिड़ला हाउस में डेरा जमा लिया. वायसराय लार्ड माउंटबेटन भी उनसे बार-बार मिलने आने लगे. बापू से अपना उपवास तोड़ने के लिए सैकड़ों हिंदू, मुसलमान और सिख भी पहुंच रहे थे. उनकी निजी चिकित्सक डॉ. सुशीला नैयर उनके गिरते स्वास्थ्य पर नजर रख रही थीं.आकाशवाणी बापू की सेहत पर बुलेटिन प्रसारित कर रहा था.उनके उपवास का असर दिखने लगा.दिल्ली शांत हो गई.तब बापू ने 18 जनवरी, 1948 को अपना उपवास तोड़ा.उन्हें नेहरू जी और मौलाना आजाद ने ताजा फलों का रस पिलाया. इस तरह से 78 साल के बापू ने हिंसा को अपने उपवास से मात दी. इसके बाद वे 27 जनवरी को कड़ाके की सर्दी में सुबह साढ़े फकीर की दरगाह में पहुंचे.वे वहां पर मुसलमानों को भरोसा दिलाते हैं कि उन्हें भारत में ही रहना है.उ न्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से कहा कि वे तुरंत दरगाह के क्षतिग्रस्त भागों को ठीक करवाएं. गांधी जी की अपील के बाद नेहरू जी ने दरगाह की मरम्मत के लिए 50 हजार रुपये जारी किए.उस समय 50 हजार रुपये एक बड़ी रकम थी.
एक बात ध्यान देने की है कि महात्मा गांधी सनातनी हिंदू होने के बावजूद कर्मकांडी हिंदू कभी नहीं रहे थे.अगर बात दिल्ली की करें तो वे यहां 12 अप्रैल,1915 से लेकर 30 जनवरी 1948 तक बार-बार आते रहे, अंतिम 144 दिन भी यहां ही रहे, पर वे सिर्फ दो बार ही किसी धार्मिक स्थान में गए. वे एक बार बिड़ला मंदिर गए, दूसरी बार काकी की दरगाह गए. दरअसल राजधानी के मंदिर मार्ग स्थित प्रसिद्ध बिड़ला मंदिर ( लक्ष्मी नारायणमंदिर) के उदघाटन करने के लिए जब प्रमुख उद्योगपति और गांधी जी के सहयोगी श्री घनश्याम बिड़ला ने उनसे अनुरोध किया तो बापू एक शर्त रख दी. गांधी जी ने कहा कि वे मंदिर का उदघाटन करने के लिए तैयार हैं, पर उनकी एक शर्त है.अगर उस शर्त को माना जाएगा तब ही वे मंदिर का उद्घाटन करेंगे.ये बात 1939 के सितंबर महीने की है.
बिड़ला जी ने सोचा भी नहीं था कि उन्हें गांधी जी से इस तरह का उत्तर मिलेगा क्योंकि उनके बापू से काफी समय से मधुर संबंध थे.गांधी जी उनके के आवास में ठहरते भी थे. खैर, बिड़ला जी ने बापू से उनकी शर्त पूछी.गांधी जी ने कहा कि मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी.दरअसल उस दौर में मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश पर अनेक तरह से अवरोध खड़े किए जाते थे.उन्हें पूजा करने के लिए धर्म के ठेकेदार जाने नहीं देते थे.जब गांधी जी को आश्वासन दिया गया कि बिड़ला मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी तो वे बिड़ला मंदिर के उद्घाटन के लिए राजी हो गए.उसके बाद बिड़ला मंदिर का 22 सितंबर, 1939 को विधिवत उद्घाटन हुआ. बहरहाल, गांधी जी यहां पर उद्घाटन करने के बाद फिर कभी नहीं आए.पर उनकी प्रार्थना सभाओं में सभी धर्मों की पुस्तकों का पाठ होता था.