20.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Umrao Jaan Death Anniversary: अवध की शान उमराव जान की कब्र पर चहेतों ने पढ़ा फातिहा, काशी में गुजरे अंतिम दिन

बेहतरीन फनकारा के रूप में लोगों के सामने हैं लेकिन जिंदगी के अंतिम समय में जब वह बिल्कुल अकेली पड़ गईं तब उन्होंने बनारस का रुख किया. यहीं पर दालमंडी इलाके में रहकर जीवन के अंतिम समय काटे.

Umrao Jaan Maqbara: अवध की शान उमराव जान को दुनिया एक तवायफ के रूप में ज्यादा और आजादी की दीवानी के रूप में कम ही जानती है. जिंदगी में तमाम उतार-चढ़ाव के बाद उमराव जान का आखिरी सफर मोक्ष नगरी काशी में पूरा हुआ था. यहीं दो गज जमीन में उन्हें जमींदोज किया गया. वाराणसी के सिगरा इलाके के फातमान कब्रिस्तान में उनका मकबरा आज भी मौजूद है.

26 दिसंबर को उमराव जान की बरसी मनाई जाती है. रविवार को उनकी याद में डर्बी शायर क्लब की ओर से श्रद्धांजलि समारोह आयोजित की गई. इसकी अगुवाई शकील अहमद जादूगर ने किया. उमराव जान की 84वीं पुण्यतिथि पर उनके चाहने वालों ने फातमान रोड स्थित उनके कब्र पर पहुंचकर फातिहा पढ़ा और मोमबत्तियां जलाईं. करीब 15 साल पहले साल 2004 में बनारस के दालमंडी इलाके के रहने वाले डर्बी शायर क्लब के अध्यक्ष शकील अहमद जादूगर ने उमराव जान की कब्र को खोज निकाला था. उस वक्त जमीन के लेवल पर मौजूद एक कपड़े में उर्दू में उमराव जान और उनकी मृत्यु की जानकारी लिखी हुई थी.

Undefined
Umrao jaan death anniversary: अवध की शान उमराव जान की कब्र पर चहेतों ने पढ़ा फातिहा, काशी में गुजरे अंतिम दिन 2

उस खोज के बाद उन्होंने मुहिम शुरू की और तमाम विवादों के बीच आखिरकार उत्तर प्रदेश सरकार ने इस स्थान पर एक मकबरे का निर्माण करवाया. मिर्जापुर के लाल पत्थरों से तैयार हुआ यह मकबरा अब पूरे कब्रिस्तान में बिल्कुल अलग ही दिखाई देता है. फैजाबाद में जन्मीं उमराव जान के बचपन का नाम अमीरन बीवी था. लखनऊ आने के बाद उनका नाम उमराव जान पड़ा. यहीं पर उन्होंने संगीत और नृत्य की शिक्षा दीक्षा ली और उसके बाद बेहतरीन फनकारा के रूप में लोगों के सामने हैं लेकिन जिंदगी के अंतिम समय में जब वह बिल्कुल अकेली पड़ गईं तब उन्होंने बनारस का रुख किया. यहीं पर दालमंडी इलाके में रहकर जीवन के अंतिम समय काटे.

Also Read: काशी से वाजपेयी जी का जीवनभर रहा था गहरा लगाव, वाराणसी में सीखे थे पत्रकारिता के कई गुर

26 दिसंबर, 1937 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी. इसके बाद उनके करीबियों ने उन्हें वाराणसी के सिगरा इलाके के फातमान कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया था. उमराव जान की जिंदगी को बयान करती ये पंक्तियां, ‘कितने आराम से हैं कब्र में सोने वाले, कभी दुनिया में था फिर फिरदौस में, अब लेकिन कब्र किस अहल-ए-वफा की है अल्लाह-अल्लाह…’ और ‘जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने, इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने’ काफी कुछ कहती हैं.

इन लाइनों को खय्याम साहब ने अपने सुरों से सजाया तो यह गीत बनकर लोगों के जेहन में छा गया. सही मायनों में देखा जाए तो अगर मुजफ्फर अली ने फ़िल्म उमराव जान न बनाई होती, रेखा ने किरदार को न जीवंत किया होता और खय्याम साहब का संगीत शहरयार के गीतों में चार चांद न लगाता तो शायद उमराव जान को एक काल्पनिक कैरेक्टर समझकर भुला दिया गया होता. फ़िल्म की कामयाबी में सबसे बड़ा हाथ खय्याम साहब की धुनों का ही था. कहा जा सकता है कि उमराव जान की आखिरी निशानी सहेजे जाने में खय्याम साहब के संगीत का ही बड़ा योगदान है.

Also Read: ख़य्याम: नहीं रहे ”उमराव जान” में जान डालने वाले संगीतकार शर्मा जी

रिपोर्ट : विपिन सिंह

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें