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रांची: तुपुदाना में स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज के नये मंदिर का उद्घाटन, बच्चों को दी जाती है निःशुल्क शिक्षा

स्वामी प्रणवानन्द का जन्म 14 मई 1896 में हुआ था. उन्होंने 1917 में भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना की थी. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया. वे बाबा गंभीरनाथ जी के शिष्य थे. उनके अनुयायी उन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं.

झारखंड की राजधानी रांची स्थित तुपुदाना में भारत सेवाश्रम संघ के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज के नये मंदिर का उद्घाटन मंगलवार को किया गया. मंदिर के उद्घाटन में देशभर से करीब 150 संत पहुंचे थे. संघ के कार्यकर्ता गोपाल घोष ने बताया, यहां स्वामी जी का प्राचीन मंदिर है, जिसका पुननिर्माण किया गया.

मंदिर के अलावा, आध्यात्मिक केंद्र है भारत सेवाश्रम : स्वामी बुद्धस्वानंद

रांची तुपुदाना भारत सेवाश्रम के कार्यकारी सचिव स्वामी बुद्धस्वानंद जी महाराज ने बताया, यह केवल मंदिर ही नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक केंद्र भी है. गुरु जी महाराज सभी के लिए हैं. उन्होंने बताया रांची के तुपुदाना के अलावा बुंडू में भी सेवाश्रम है. वहां 150 से अधिक बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जा रही है.

1986 में हुई तुपुदाना में भारत सेवाश्रम मंदिर की स्थापना

रांची तुपुदाना भारत सेवाश्रम के कार्यकारी सचिव स्वामी बुद्धस्वानंद जी महाराज ने बताया, तुपुदाना स्थित भारत सेवाश्रम मंदिर की स्थापना 1986 में हुई थी. तब से यहां देश भर से लोग आ रहे हैं और अपनी सेवा दे रहे हैं.

भारत सेवाश्रम के तहत गरीब बच्चों को दी जाती है शिक्षा

भारत सेवाश्रम के तहत गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है. तुपुदाना के अलावा बुंडू में करीब 150 बच्चों को आश्रम में रखकर फ्री में शिक्षा दी जा रही है. इसके अलावा तुपुदाना सेवाश्रम में फ्री में एक्यूप्रेशर केंद्र चलाया जा रहा है. जिसका लाभ कोई भी ले सकता है.

1917 में स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज ने की थी भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना

भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना सन्त आचार्य स्वामी प्रणवानन्द जी महाराज ने 1917 में किया था. इसका मुख्यालय कोलकाता में है. देश-विदेश में इसके करीब 46 केंद्र हैं. बिहार के गया जिले में इसका सबसे बड़ा केंद्र है.

कौन हैं स्वामी प्रणवानन्द

स्वामी प्रणवानन्द का जन्म 14 मई 1896 में हुआ था. उन्होंने 1917 में भारत सेवाश्रम संघ की स्थापना की थी. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया. वे बाबा गंभीरनाथ जी के शिष्य थे. उनके अनुयायी उन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं. उन्होंने 1941 में समाधी ली.

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