जब जेपी की बाला साहेब देवरस से लंबी बातचीत हुई…
Kevin Doyle Phnom Penh पांच जून, 1973 को जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के देहावसान के बाद ‘सभी स्वयंसेवकों’ को संबोधित उनके तीन सीलबंद लिफ़ाफ़े खोले गए, तो पहले लिफ़ाफ़े में एक पत्र निकला जिसमें उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि उनके बाद बाला साहब देवरस को आरएसएस का सरसंघचालक […]
पांच जून, 1973 को जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के देहावसान के बाद ‘सभी स्वयंसेवकों’ को संबोधित उनके तीन सीलबंद लिफ़ाफ़े खोले गए, तो पहले लिफ़ाफ़े में एक पत्र निकला जिसमें उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि उनके बाद बाला साहब देवरस को आरएसएस का सरसंघचालक बनाया जाए.
गोलवलकर की तरह देवरस आरएसएस में बाद में नहीं आए थे. बारह साल की उम्र में ही वो पहले सर संघचालक डॉक्टर हेडगवार के प्रभाव में आ गए थे.
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कहा ये जाता है कि अब तक आरएसएस के जितने भी सरसंघचालक हुए हैं, उनमें बालासाहब देवरस का झुकाव राजनीति की तरफ़ सबसे अधिक था.
राजनीति व्यक्तित्व
राम बहादुर राय इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख होने के साथ साथ वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनका संघ परिवार से पुराना संबंध भी रहा है.
राय बताते हैं, "बाला साहब देवरस के व्यक्तित्व का केंद्र राजनीतिक था. वो पूर्णत: राजनीतिक प्राणी थे, लेकिन वो इस अर्थ में राजनीतिक नहीं थे कि सत्ता के लिए वो स्वयं अपनी दावेदारी करते हों."
हेडगेवार की तरह बाला साहब देवरस को भी उनकी व्यवहारिकता के लिए जाना जाता है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक वरिष्ठ नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एक बार कहा था, "गुरु गोलवलकर कहते थे जिन्होंने डॉक्टर हेडगेवार को नहीं देखा हो, उन्हें बाला साहब को देख लेना चाहिए. एक बार गुरुजी ताँगे पर बैठ कर चले जा रहे थे और बाला साहब ताँगे को रास्ता बताते हुए नीचे चल रहे थे. उनको पैदल चलता देख गुरुजी ने कहा था कि असली सरसंघचालक तो पैदल चल रहे हैं और नकली सरसंघचालक ताँगे में बैठ कर चले जा रहे हैं."
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1948 में जब आरएसएस पर पहली बार प्रतिबंध लगाया गया था तो गोलवलकर की गिरफ़्तारी के बाद संघ के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी भैयाजी दाणी के साथ बाला साहब देवरस ने उठाई थी.
गोलवरकर से मतभेद
डाक्टर करंदीकर ने अपनी पुस्तक ‘तीन सरसंघचालक’ में लिखा है, "प्रतिबंध के बाद सरदार पटेल की ओर से डीपी मिश्र बातचीत करने नागपुर आए थे. उन्होंने बाला साहब से मुलाकात की थी. वो चाहते थे कि गुरु गोलवलकर जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखें. इसे बाला साहब ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया. जो निर्णय बाला साहब ने किया, उसे गुरु गोलवलकर ने यथावत माना."
लेकिन एक दूसरे के प्रति परस्पर सम्मान रखने के बावजूद गुरु गोलवलकर और बाला साहब देवरस वैचारिक मामलों में एक धरातल पर नहीं थे.
राम बहादुर राय कहते हैं, "1947 में आज़ादी के बाद बाला साहब देवरस और उस समय के सरसंघचालक की सोचने की दिशा दूसरी थी. साल भर बाद ही उन दोनों के बीच दृष्टिकोण का ज़बरदस्त फ़र्क सामने आया. आज़ादी के बाद संघ को क्या करना चाहिए, इस विषय पर गुरुजी और देवरसजी के बीच गहरे मतभेद थे."
संघ को सड़कों पर उतारा
राम बहादुर राय बताते हैं- "संघ में आज भी इस बात पर बहस चलती रहती है कि हमें राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं. या हमें सिर्फ़ समाज सेवा के काम में ही लगे रहना चाहिए- ये दुविधा संघ की शुरू से ले कर आज तक रही है. गुरुजी के कार्यकाल में संघ में एक समय पर उनके और उनके सहयोगियों के बीच बहुत बड़े मतभेद का दौर आया था और एक एक कर बहुत से प्रमुख लोग संघ से निष्क्रीय होने लगे. उन लोगों में से एक बाला साहब देवरस भी थे. मतभेद का मुख्य कारण था कि संघ को राजनीतिक दिशा लेनी चाहिए या नहीं. गोलवलकर इसके पक्ष में नहीं थे जबकि देवरस इससे सहमत नहीं थे."
देश की राजनीति में छात्रों का पहले पहल इस्तेमाल बाला साहब देवरस ने 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के दौरान किया. उसके बाद से भ्रष्ट और नाकारा सरकारों से इस्तीफ़ा दिलवाने के लिए छात्रों को सड़कों पर उतार कर आंदोलन चलवाना एक सर्वस्वीकृत दस्तूर बन गया.
इसका अगला प्रयोग बिहार में किया गया. राम बहादुर राय बताते हैं, "मैं 1974 में छात्र संघर्ष संचालन समिति का सदस्य हुआ करता था. जब जेपी घूमघाम कर आते थे तो उनके साथ जनसंघर्ष समिति और छात्र संघर्ष समिति की साझा बैठक हुआ करती थी. एक बार जब फ़रवरी 1974 में जेपी दिल्ली से आए तो अख़बारों में एक छोटी सी ख़बर छपी कि जेपी और बाला साहब देवरस की एक लंबी बातचीत हुई है."
जेपी के साथ क़रीबी
वो कहते हैं, "हम लोगों ने जेपी से पूछा कि हमें बताएं कि आपकी बाला साहब देवरस से क्या बातचीत हुई है? जेपी ने बताया कि मेरी देवरस से ये पहली मुलाकात थी. मैंने उनसे पूछा कि आपकी नज़र में हिंदुत्व क्या है. उनका जवाब था, ‘हिंदुत्व धर्म नहीं है, हिंदुत्व राष्ट्रीयता है.’ इससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. हम लोगों को उसी समय आभास मिल गया कि जेपी और बाला साहब में एक तरह की समझदारी विकसित हुई है."
"उन दिनों गोविंदाचार्य संघ के विभाग प्रचारक थे. तीन चार ज़िलों का काम उनके ज़िम्मे था. वो बढ़ चढ़ कर बिहार आँदोलन में भाग ले रहे थे. आरएसएस के प्रांत स्तर के प्रभारी गोविंदाचार्य को इसके लिए दंडित करना चाहते थे, क्योंकि आरएसएस का कोई पदाधिकारी किसी आँदोलन में सीधे शामिल हो, ये उसकी नियमावली के विपरीत था. ये बात बाला साहब देवरस तक पहुंची."
"उन्होंने इसके लिए गोविंदाचार्य को नागपुर बुलाया और आरएसएस के बड़े नेताओं के सामने उनकी सुनवाई हुई. उसके बाद उन्होंने कहा कि गोविंदाचार्य ने कोई गलत काम नहीं किया है. चूँकि आरएसएस इस आंदोलन का समर्थन कर रहा है. इसलिए इसमें सक्रिय भूमिका निभा कर गोविंदाचार्य ने ठीक ही किया है."
संघ और आंदोलन
संघ परिवार से जुड़े वरिष्ठ नेता गोविंदाचार्य भी मानते हैं कि 1974 के बिहार आँदोलन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का बढ़चढ़ कर भाग लेना बाला साहब देवरस के बिना संभव नहीं हो सकता था.
गोविंदाचार्य कहते हैं, "इस आंदोलन में हमारे और राम बहादुर राय के ख़िलाफ़ मीसा वारंट जारी कर दिया गया. वारंट के बाद मैं शाखा में जा नही सकता था, इसलिए आँदोलन में लग गया. इसके बाद संघ के कई लोगों को लगा कि कहीँ ऐसा मैने अपने मन से तो नहीं किया है. जब बाला साहब देवरस अप्रैल, 1974 में पटना आए, तब तक छात्र आंदोलन अपने उफान पर पहुंच चुका था."
वो बताते हैं, "उन्होंने उसी समय ये स्टैंड लिया कि संघ का स्वयंसेवक एक जागरूक और संवेदनशील नागरिक है. वो समाज में हो रहे बदलाव और समाज के तकाज़ों को अनसुना कैसे कर सकता है. उन्होंने मुझे नागपुर बुला कर कहा था कि हम बगैर तैयारी के अखाड़े में उतर पड़े हैं. अभी बहुत संकट आएंगे. लेकिन अब पीछे हटने का सवाल ही नहीं है. इसे अपने मुकाम तक पहुंचाना ही पड़ेगा."
इंदिरा गांधी को बधाई
गोविंदाचार्य आगे बताते हैं, "उन्होंने मुझसे कहा कि तुम यहाँ से बाहर मत जाना. शाम को मोटर साइकिल पर एक स्वयंसेवक आया. हमें अपने पीछे बैठा कर ले गया और महाराष्ट्र ट्रांसपोर्ट की बस पर बैठा दिया. उसने मुझे एक छोटा सा खाने का पैकेट दिया और कहा कि बाला साहब ने आपके लिए भेजा है. उन्होंने मुझसे यहाँ तक कहा कि एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि मुझे तुम्हें सार्वजनिक रूप से ‘डिसओन’ करना पड़े. लेकिन तुम इसका बुरा मत मानना."
1975 में आपातकाल के दौरान बाला साहब देवरस को गिरफ़्तार कर पुणे की यरवदा जेल में रखा गया. उसी दौरान आरएसएस पर दूसरी बार प्रतिबंध लगाया गया. जेल में रहने के दौरान देवरस ने इंदिरा गाँधी को कई पत्र लिखे, जिसकी बाद में बहुत आलोचना भी हुई.
मधु लिमये ने अपनी किताब, ‘जनता पार्टी एक्सपेरिमेंट’ में लिखा, "देवरस ने इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट में चुनाव याचिका पर अपील जीतने पर बधाई दी थी. उन्होंने अपने आप को जेपी आंदोलन से दूर करते हुए, इंदिरा गाँधी से अनुरोध किया था कि वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा लें. इस मामले में विनोबा भावे से भी हस्तक्षेप करने के लिए कहा गया था."
कार्यकर्ताओं से मतभेद
राम बहादुर राय का मानना है कि बाला साहब देवरस का ये कदम एक रणनीति के तहत था जिसे आरएसएस के सामान्य कार्यकर्ताओं ने पसंद नहीं किया था.
राय कहते हैं, "जिन दिनों ये पत्र लिखा गया, उन दिनों भूमिगत आँदोलन में शामिल सभी लोगों की कोशिश थी कि इंदिरा गाँधी किसी तरह से चुनाव के लिए तैयार हो जाएं. इसके लिए उन्हें माफ़ी भी मांगनी पड़े, इसके लिए भी उन्होंने मन बना लिया था. नवंबर, 1976 में मैं जेल से बाहर आ गया था. उसी साल 29 नवंबर को मैं अटल बिहारी वाजपेयी से उनके 1, फ़िरोज़शाह रोड स्थित निवास पर मिलने गया."
वो बताते हैं, "उन दिनों वो हाउस अरेस्ट थे. मैंने वाजपेयी जी से पूछा कि इस तरह की ख़बरें हैं कि आपकी ओम मेहता से भेंट हुई है. शायद वो आपसे मिलने आए थे. वाजपेयी ने मज़ाक में कहा कि ओम मेहता बहुत बड़े आदमी हैं. मैं उनसे मिलने गया था. मैंने उनसे कहा कि हम लोग जो अंडरग्राउंड मूवमेंट में हैं, इस बातचीत का क्या अर्थ लगाएं?"
वो कहते हैं, "उन्होंने मुझे बताया कि ओम मेहता ने मुझे एक लंबी लिस्ट दी है और कहा है कि विद्यार्थी परिषद के लोगों ने जो रेल की पटरियाँ उखाड़ी हैं, उसके लिए वो माफ़ी मांगें. बाला साहब देवरस की चिट्ठी पर भी आरएसएस में दो तरह की प्रतिक्रिया थी. जो लोग टैक्टिकल लाइन का समर्थन करते थे, वो मानते थे कि ये चिट्ठी ठीक है, लेकिन जो लोग इस लड़ाई को सैद्धांतिक लड़ाई मानते थे, उनको इस बात का अफ़सोस था कि बाला साहब ने ऐसी चिट्ठी क्यों लिखी."
संघ में मुसलमानों के प्रवेश का प्रस्ताव और बाला साहेब
बाला साहब के कार्यकाल के दौरान ही आरएसएस में मुसलमानों के प्रवेश का प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा में विचार के लिए आया था. लेकिन वो ख़ारिज कर दिया गया और देवरस संघ की परंपरागत सोच को नहीं बदल पाए.
राम बहादुर राय बताते हैं, "मैं इसका साक्षी हूँ. 1975 की इमरजेंसी के दौरान मुस्लिम और आरएसएस नेता साथ साथ जेलों में थे और उनमें आपस में एक सौहार्द बना था. जब जनता पार्टी की सरकार आई तो शाही इमाम वगैरह आरएसएस के दफ़्तर में जाते थे और शाम को अगर नमाज़ का वक्त होता था, तो वहीं नमाज़ भी पढ़ते थे. मोरारजी भाई की आरएसएस को सलाह थी कि वो संघ को हिंदुओं तक सीमित करने के बजाए उसे सब के लिए खोल दें."
वो कहते हैं, "1977 की आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में इस सवाल पर विचार हुआ. उस पर बहुत बहस हुई. उसमें बाला साहब देवरस का रुख़ था कि हमें आरएसएस को मुसलमानों के लिए खोलना चाहिए. लेकिन उनके जो प्रमुख सहयोगी थे, जैसे यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, दत्तोपंत ठेंगड़ी, इन सबने इसका घोर विरोध किया."
राय के मुताबिक, "जब बाला साहब के अलावा सभी लोग इसके विरोध में खड़े हो गए तो उन्होंने अपने समापन भाषण में इस अध्याय को बंद किया. अगर ये फ़ैसला बाला साहब के ऊपर छोड़ा जाता तो वो संघ की शाखाओं में सबको आने की अनुमति दे देते."
बाला साहब देवरस के कार्यकाल में इस बात पर कई बार बहस हुई कि आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के लिए विचारधारा बड़ी है या सत्ता की राजनीति.
संघ और गांधीवाद
गोविंदाचार्य कहते हैं, "इसमें आपको बीजेपी की यात्रा को बांट कर देखना होगा. अस्सी से चौरासी तक उसका एक ही नारा था, अँधेरे में एक चिंगारी, अटल बिहारी, अटल बिहारी. उस समय दोनों जगह नेतृत्व की सोच थी कि भारत एक बहुलवादी राष्ट्र है जहाँ एक विचारधारा वाले दल के लिए सत्ता में आना असंभव है. संघ के सामने एक यक्ष प्रश्न था कि या तो विचारधारा पर अडिग रहें और सत्ता में आने का स्वप्न कभी न देखें या विचारधारा से समझौता करे, सत्ता में आएं और दायित्व निर्वाह करें. इस मुदे पर बाला साहब देवरस ने संघ के प्रमुख लोगों की बैठक भी बुलाई, जिसमें अटल जी भी आए."
"उस समय गुरु जी भी जीवित थे. उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि मैं इस बात से सहमत हूँ कि विचारधारा में विश्वास रखने वाली पार्टी जल्दी सत्ता में नहीं आ सकती. लेकिन मैं ये नहीं मान सकता कि वो कभी नहीं आ सकती. ब्रिटेन में लेबर पार्टी का जन्म सन् 1900 में हुआ था. 29 साल तक वो विचारधारा पर अडिग रहते हुए मेहनत करते चले गए. 1929 में जा कर उन्होंने पहली बार गठबंधन सरकार बनाई. दस साल बाद 1939 में पहली बार वो अपने बल पर पूर्ण बहुमत ला सके."
"उन्होंने कहा कि भारत में सत्ता में आने में कितना समय लगेगा, ये कई बातों पर निर्भर है. इस पर अटल जी ने पूछा भी कि हमें तो साफ़ बताइए कि हमें कौन सी लाइन लेनी चाहिए. इस पर गुरु जी ने कहा था कि मुझे जो कहना था, वो मैंने कह दिया. 1980 से 1984 तक बीजेपी में इस बारे में धर्मसंकट चल रहा था. इसका परिणाम ये हुआ था कि वो लोकसभा में सिर्फ़ दो सीटें जीत पाए थे. इसके बाद से ही संघ का अपरहैंड बढ़ा था. तभी ये तय हुआ कि एकात्म मानवदर्शन ही बेसिक आइडियोलॉजिकल दस्तावेज रहेगा और आर्थिक नीतियों के निर्धारण में गांधीवादी समाजवाद का भी आश्रय लिया जाएगा."
आडवाणी की रथयात्रा
आडवाणी की रथयात्रा, भारतीय जनता पार्टी का फ़ैसला नहीं था. ये फ़ैसला बहुत सोच समझ कर बाला साहब देवरस के नेतृत्व वाले आरएसएस ने लिया था.
प्रलय कानूनगो अपनी किताब, ‘आरएसएस ट्रिस्ट विद पालिटिक्स’ में लिखते हैं, "रामजन्म भूमि और रथ यात्रा की वजह से ही संघ परिवार, भारतीय राजनीति के कार्यक्षेत्र में घुस पाया, जिसमें कि वो अब तक कामयाब नहीं हो पाया था. अब ये उत्तरी भारत के शहरी इलाकों के कुछ परंपरागत क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा था., बल्कि पूरे भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था. इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने सीमित उच्च जाति आधार को भी विस्तार देने की कोशिश कर रहा था. ये भी सच है कि मंडल का विरोध करने वाले उच्च जाति युवा भी रामजन्म भूमि आँदोलन के समर्थन में आ खड़े हुए थे."
अपनी मृत्यु से दो साल पहले ही बाला साहब देवरस ने रज्जू भैया को आरएसएस का सरसंघचालक नियुक्त कर दिया था.
संघ के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था. अपने जीवन काल में बाला साहब देवरस कई बड़ी राष्टीय घटनाओं के साक्षी रहे- बिहार दोलन, आपातकाल, जनता पार्टी की जीत, ऑप्रेशन ब्लूस्टार, रामजन्मभूमि आँदोलन, बाबरी मस्जिद का विध्वंस.
कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों की नज़र में उनकी इन घटनाओं में विवादास्पद भूमिका भी रही और इस पर उनकी काफ़ी आलोचना भी हुई लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नागपुर के मोहिते के बाड़े से निकाल कर पूरे भारत में स्थापित करने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है तो वो थे बाला साहब देवरस.
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