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अलेक्सेंडर दुब्चेक : साम्यवाद का मानवीय चेहरा

।। रवि दत्त बाजपेयी ।। एक के लिए लाभकारी नेतृत्व, दूसरे के लिए अनर्थकारी भारत नेतृत्व के गहरे संकट से गुजर रहा है. हर क्षेत्र में- राजनीति, समाज, संस्कृति. ऐसा नेतृत्व, जो देश को एकसूत्र में बांध कर रख सके, जो जाति, पंथ, समुदाय, धर्म, क्षेत्र आदि से ऊपर उठ कर देशहित की सोचता हो […]

।। रवि दत्त बाजपेयी ।।

एक के लिए लाभकारी नेतृत्व, दूसरे के लिए अनर्थकारी

भारत नेतृत्व के गहरे संकट से गुजर रहा है. हर क्षेत्र में- राजनीति, समाज, संस्कृति. ऐसा नेतृत्व, जो देश को एकसूत्र में बांध कर रख सके, जो जाति, पंथ, समुदाय, धर्म, क्षेत्र आदि से ऊपर उठ कर देशहित की सोचता हो और जिसके फैसले लोगों में भरोसा जगा सकें. इस बार 16वीं लोकसभा के लिए होनेवाला आम चुनाव देश के लिए बहुत ही निर्णायक साबित होनेवाला है.

नेतृत्व के चयन में छोटी-सी चूक देश को वर्षो पीछे धकेल देगी. किसी एक देश या एक जनसमूह को अत्यंत हितकारी प्रतीत होने वाला नेतृत्व किसी अन्य देश या जनसमूह के लिए अत्यंत अनर्थकारी भी हो सकता है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक फौलादी, निर्णायक और लाभकारी नेतृत्व अवश्य थे, लेकिन अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारत जैसे देश के लिए बहुत हानिकारक थे. पढ़िए, दुनिया के ऐसे ही अनूठे, प्रेरक और साहसी नेताओं के बारे में. प्रस्तुत है इस श्रृंखला की पहली कड़ी.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप अमेरिकी व सोवियत खेमों में बंट गया, समाजवाद की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी सोवियत रूस ने पूर्वी यूरोप में अपने सहयोगी देशों को अपना उपनिवेश माना और अपनी मरजी थोपने के लिए सैन्य कार्यवाही से परहेज नहीं किया. रूसी तानाशाह जोसेफ स्टालिन के निधन के बाद हंगरी में सोवियत साम्यवादी दासता से मुक्ति के लिए प्रदर्शन हुए, हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में सोवियत फौज दाखिल हुई और इस सैन्य कार्यवाही का विरोध करने वाले हजारों लोगों की निर्ममता से हत्या कर दी गयी.

साम्यवादी अधिनायकवाद ने अपने नियंत्रण के अधीन यूरोपीय देशों को ऐसा सबक दिया था कि कोई उपनिवेश सोवियत रूस से गुस्ताखी करने की हिमाकत ना करे, लेकिन 1968 में चेकोस्लोवाकिया की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख (जनरल सेक्रेटरी) अलेक्सेंडर दुब्चेक ने यह हिमाकत कर दिखायी.

अलेक्सेंडर दुब्चेक का जीवन बहुत रोचक था, पहले विश्व युद्ध के बाद इनके पिता स्टेफन दुब्चेक स्लोवाकिया से अमेरिका चले गये थे, लेकिन 27 नवंबर 1921 में अलेक्सेंडर के जन्म से कुछ महीने पहले वापस अपने देश लौट आये.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अलेक्सेंडर दुब्चेक स्लोवाक कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और 1955-58 के दौरान सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित समाज विज्ञान अकादमी में छात्रवृत्ति पर पढ़ने गये.

मॉस्को में अपने अध्ययन में बेहतरीन प्रदर्शन के बाद अलेक्सेंडर दुब्चेक को स्लोवाकिया कम्युनिस्ट पार्टी में महत्वपूर्ण पद दिया गया, इस दौर में चेकोस्लोवाकिया शासन में स्लोवाक लोगों को बड़ी भूमिका नहीं दी जाती थी. 1960 के दशक के आरंभिक वर्षो में चेकोस्लोवाकिया की आर्थिक स्थिति बदतर हो गयी, इस बदहाली के लिए सोवियत पद्धति की केंद्रीय योजना को जिम्मेदार ठहराया गया. 1967 में तत्कालीन राष्ट्रपति अंटोनिन नोवोटनी के शासन के खिलाफ अलेक्सेंडर दुब्चेक ने अपनी शिकायतों को पार्टी के सामने रखा, 1968 में चेकोस्लोवाकिया कम्युनिस्ट पार्टी ने अंटोनिन नोवोटनी को हटा कर, महासचिव के पद पर अलेक्सेंडर दुब्चेक को नियुक्त किया. ऐसा माना जाता है कि इस नियुक्ति के पीछे भी सोवियत रूस की सहमति थी. दिसंबर 1967 में अपनी चेकोस्लोवाकिया यात्र के दौरान लियोनिद ब्रेझनेव ने ज्यादातर समय अलेक्सेंडर दुब्चेक के साथ बिताया था, इन दिनों सोवियत शासकों को अलेक्सेंडर दुब्चेक एक बहुत भरोसेमंद सहायक लगे थे.

कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनने के बाद अलेक्सेंडर दुब्चेक ने चेकोस्लोवाकिया की साम्यवादी व्यवस्था के सख्त नियमों में ढील देना शुरू किया, पार्टी के सदस्यों को केवल अनुशासित कैडर होने के बजाय अपने विवेक से निर्णय लेने को कहा. अलेक्सेंडर दुब्चेक ने पार्टी के समाज के हर क्षेत्र में नियंत्रण को हटाने और देश में बहुदलीय व्यवस्था अपनाने का विचार रखा, अखबारों और पत्रिकाओं और बोलने पर सेंसर बोर्ड के प्रतिबंध को हटा दिया. कम्युनिस्ट पार्टी के बाहर श्रमिक संगठन बनाने और किसानों को सहकारी समिति बनाने की आजादी दी.

अलेक्सेंडर दुब्चेक ने अपने इन सुधारों को सोशलिज्म विथ ए ह्यूमन फेस (समाजवाद का मानवीय स्वरूप) का नाम दिया, लंबे समय के बाद चेकोस्लोवाकिया के लोगों को पहली बार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एहसास हुआ. सेंसर व्यवस्था के समापन के बाद शुरु आती दिनों में अखबारों-पत्रिकाओं-भाषणों में निवर्तमान राष्ट्रपति नोवोटनी और उनके सहयोगियों की आलोचना होती थी, लेकिन जल्दी ही इन सार्वजनिक मंचों से पूरी साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना होने लगी.

वारसा संधि के देशों और सोवियत रूस की सेनाएं वर्ष 1966 से चेकोस्लोवाकिया में अपनी सेनाएं युद्धाभ्यास के लिए आयी हुई थीं, अलेक्सेंडर दुब्चेक के सुधारों के बाद चेकोस्लोवाकिया के लोगों को अपनी सीमाओं के भीतर सोवियत सेनाओं की उपस्थिति नागवार लगने लगी और इन सेनाओं को वापस भेजने की मांग उठी. जुलाई 1968 में वारसा संधि के भागीदार देशों ने अपनी एक बैठक में चेकोस्लोवाकिया को साम्यवादी व्यवस्था के दायरे में रहने की सख्त हिदायत दी. अलेक्सेंडर दुब्चेक ने चेकोस्लोवाकिया की विदेश नीति में किसी परिवर्तन से तो इनकार किया, लेकिन सोवियत रूस की सारी धमकियों के बावजूद अपने देश में हो रहे नये सुधारों को रोकने से इनकार कर दिया.

21 अगस्त 1968 को सोवियत रूस और उसके अन्य चार मित्र देशों की सेनाओं ने चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर दिया, राजधानी प्राग से अलेक्सेंडर दुब्चेक और उनके सारे सहयोगियों को गिरफ्तार करके रूस लाया गया. अलेक्सेंडर दुब्चेक ने खून खराबा रोकने के लिए चेकोस्लोवाकिया के लोगों से आक्रामक सेनाओं का सशस्त्र विरोध करने से मना किया.

सोवियत रूस से लौटने के बाद अलेक्सेंडर दुब्चेक को उनके शुद्धीकरण के लिए वन विभाग में क्लर्कका काम दिया गया. 1989 में सोवियत रूस के बिखरने के बाद अलेक्सेंडर दुब्चेक दुबारा चेकोस्लोवाकिया की राजनीति में सक्रि य हुए, लेकिन इस दौर के चेकोस्लोवाकिया में प्रख्यात लेखक वास्लेव हॉवेल केंद्रीय भूमिका में थे. एक नवंबर, 1992 को रहस्यमय तरीके से हुई एक कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी.

1968 में अपनी गिरफ्तारी के बाद रूस से वापस लौट कर अलेक्सेंडर दुब्चेक को एक रेडियो संदेश देने का मौका दिया गया, दुब्चेक ने कहा -‘ वह देश कभी नहीं मिट सकता, जिसका हर नागरिक अपने स्वविवेक और अंतरात्मा से मार्गदर्शन लेता है.’ व्यवस्था परिवर्तन के इस प्रयास को अलेक्सेंडर दुब्चेक का दु:साहस भी कहा जा सकता है, शायद उन्हें सोवियत रूस के गुस्से और ताकत का सही अनुमान नहीं था, वैसे अलेक्सेंडर दुब्चेक और सोवियत रूस के अंतिम शासक मिखाइल गोर्बाचोव में भी कई समानताएं मिलेंगी. अलेक्सेंडर दुब्चेक अपने प्रयास में पूरे सफल भले ही न रहे हों, लेकिन यह उल्लेखनीय तथ्य है कि अनेक बार किसी भ्रष्ट, पक्षपाती, हिंसक व्यवस्था को सुधारने वाले भी उसी व्यवस्था से निकल कर आते हैं.

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