नज़रिया: मोदी के सामने नीतीश के ”सरेंडर” के मायने क्या हैं

मंगलवार को पटना में नीतीश कुमार ने ये कह कर सियासी पंडितों को चौंका दिया कि 2019 में नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं. धुर मोदी विरोध की राजनीति से मोदी समर्थक राजनेता बने नीतीश का हृदय परिवर्तन एक बार फिर से चर्चा में है. यह तो बिलकुल साफ-साफ दिखता है क्योंकि नीतीश कुमार एक ज़माने में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 31, 2017 7:38 PM

मंगलवार को पटना में नीतीश कुमार ने ये कह कर सियासी पंडितों को चौंका दिया कि 2019 में नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं. धुर मोदी विरोध की राजनीति से मोदी समर्थक राजनेता बने नीतीश का हृदय परिवर्तन एक बार फिर से चर्चा में है.

यह तो बिलकुल साफ-साफ दिखता है क्योंकि नीतीश कुमार एक ज़माने में नरेंद्र मोदी से इस कदर चिढ़ते थे कि उस तरह से चिढ़ने वाले लोग तो कांग्रेस में भी नहीं थे. कांग्रेस में तो लोग मोदी के विरोधी थे, उनके आलोचक थे.

ऐसा नहीं था कि दिल्ली में भारत सरकार की किसी मीटिंग में बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आए हुए हों तो कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री उनसे हाथ से नहीं मिलाए.

लेकिन नीतीश कुमार जब बिहार के मुख्यमंत्री थे और नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो पंजाब की एक रैली में नीतीश उनसे हाथ मिलाने में इस कदर शरमा रहे थे कि पूछिए मत.

यादव के घर भोजन दवा है, क्या पता काम कर जाए!

‘मोदी का मुकाबला करने की क्षमता किसी में नहीं’

मोदी की मौजूदगी

दूसरी तरफ़ पटना में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग के दौरान उन्होंने बीजेपी नेताओं के लिए जो डिनर रखा था, उसे भी नरेंद्र मोदी की मौजूदगी के कारण रद्द कर दिया था.

तीसरी बात जब गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए आपदा सहायता भेजी तो उन्होंने उसको भी लौटा दिया था.

इन तीन उदाहरणों से ये समझा जा सकता है कि मोदी के प्रति नीतीश की चिढ़ कुछ ज़्यादा थी और इस वक्त भी उनका जो आत्मसमर्पण है, वह भी कुछ ज़्यादा ही है.

वे दो एक्सट्रीम पर गए हैं, एक तरफ़ तो वे इस कदर विरोधी थे और आज वे इतने समर्पित हैं कि उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी अपराजेय हैं.

बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए

‘मोदी के रास्ते का आख़िरी कांटा निकल चुका है’

अचानक ऐसा क्या बदल गया?

भारत की मीडिया ने अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं खोजा है. किसी राजनेता ने भी इस सवाल का जवाब अभी तक ठीक से नहीं दिया है. अनुमान और अटकलें ही केवल लगाई जा रही हैं.

मीडिया में बहुत सारी अपुष्ट ख़बरें आई हैं, लेकिन सच पूछिए तो ये भारतीय मीडिया की क्षमता को भी ये एक चुनौती है.

अभी तक ये कोई ठीक से समझ नहीं पाया और इसको विस्तार से साक्ष्यों के साथ नहीं पेश कर सका कि आखिर अचानक पिछले कुछ महीने से नीतीश कुमार का जो हृदय परिवर्तन हुआ है, उसकी असल वजह क्या है?

सिर्फ़ एफआईआर तो नहीं हो सकती कि उनके उपमुख्यमंत्री पर एक एफआईआर था और वे इससे दुखी थे. या जैसा उनका कहना था कि दखलंदाज़ी होती थी. एक पत्रकार के तौर पर जहां तक मेरी जानकारी है कि लालू प्रसाद की अब इतनी राजनीतिक हैसियत नहीं रह गई थी कि वो बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करें.

सारी प्रशासनिक नियुक्तियां नीतीश कुमार की मर्ज़ी से ही होती थीं.

नीतीश, सुशील और तेजस्वी: ‘दाग’ सब पर हैं

नीतीश कुमार: डीएनए से एनडीए तक का सफ़र

नीतीश का राजनीतिक भविष्य

महागठबंधन या कांग्रेस ने नीतीश कुमार को कभी प्रधानमंत्री पद के लिए अपना प्रत्याशी घोषित नहीं किया था या न तो इस तरह का कोई निर्णय ही किया गया था. हां, अटकलें ज़रूर थीं कि नीतीश भी एक चेहरा बन सकते हैं.

मेरा मानना है कि नीतीश विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद का चेहरा नहीं बन सकते थे क्योंकि किसी भी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी इस पर दावेदारी करेगी. नीतीश कुमार की पार्टी बिहार में बहुत छोटी-सी पार्टी है.

जिस तरह से नीतीश कुमार का हृदय परिवर्तन हुआ है और उन्होंने गठबंधन के साथी बदले हैं, उससे तो ये दिखता है कि उनका भविष्य अब एनडीए के साथ ही है.

भविष्य में वे कभी एनडीए से अलग भी होंगे तो बीजेपी के ख़िलाफ़ बनने वाले किसी विपक्षी गठबंधन में उन्हें कोई बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं मिलने वाली है.

मुझे तो कई बार ये लगता है कि जिस तरह से उन्होंने बीजेपी को कंधे पर चढ़ाकर इस बार फिर से उन्हें सरकार दी है, भले ही वो राज्य के मुख्यमंत्री हों, कहीं वो भविष्य में गोवा की उस महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की तरह न बन जाएं जिससे कि बीजेपी ही वहां सबकुछ हो जाए. गोवा की तरह कहीं नीतीश बिहार में न पिछड़ जाएं.

वो बैकसीट पर आ जाएं और आगे की सीट पर बीजेपी चली जाए. मुझे बिहार में जेडीयू के महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी बनने का ख़तरा दिखाई देता है.

अब लालू प्रसाद को कौन बचाएगा?

नीतीश के झटके से 2019 पर क्या पड़ेगा असर?

पार्टी की अंदरूनी खटपट

शरद यादव ने अभी तक जिस तरह के तेवर दिखाएं हैं, उससे तो ये साफ़ लगता है कि वो नीतीश कुमार के फ़ैसले से बिल्कुल नाराज़ हैं और वो शायद कोई अलग स्टैंड लेने जा रहे हैं.

अली अनवर और केरल से वीरेंद्र कुमार के साथ ये तीन सांसद इनके विरोध में हैं. शरद यादव का महत्व इसलिए ज़्यादा है कि वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं.

राज्यसभा में शरद यादव का अभी लंबा कार्यकाल बाकी है, इसलिए वो शायद पार्टी में बने रहेंगे, लेकिन उन्हें एक बाग़ी के तौर पर ही देखा जाएगा.

(बीबीसी संवाददाता मोहनलाल शर्मा से बातचीत पर आधारित)

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

Next Article

Exit mobile version