”पर वो मेरा लाल नहीं लौटाती….”
"सुबह, दोपहर और रात तीन पहर नदी किनारे जाती हूं. अंचरा (आंचल) फैलाती हूं, हाथ जोड़ती हूं, पर वो निर्मोही बनी है. ना जाने मेरे लाल को कहां बहा ले गई. गरीबी का आफत पेट पर और सीने में रह-रहकर हुक मारते इस दर्द का अंदाजा लगा सकते हैं बाबू." गांव की महिला दुगा देवी […]
"सुबह, दोपहर और रात तीन पहर नदी किनारे जाती हूं. अंचरा (आंचल) फैलाती हूं, हाथ जोड़ती हूं, पर वो निर्मोही बनी है. ना जाने मेरे लाल को कहां बहा ले गई. गरीबी का आफत पेट पर और सीने में रह-रहकर हुक मारते इस दर्द का अंदाजा लगा सकते हैं बाबू."
गांव की महिला दुगा देवी स्थानीय भाषा में ये कहते हुए अपनी बेटी और बड़े नाती को डबडबाई नजरों से देखती हैं. हाल ही में उनका छोटा नाती गांव में नदी की तेज धारा में बह गया, जिसका कोई पता नहीं चला है.
इस घटना ने दुगा देवी की बेटी जानकी देवी को गुमसुम कर दिया है. झारखंड की राजधानी रांची से करीब सत्तर किलोमीटर दूर पंचपरगना इलाके के कंकालजारा गांव के इस परिवार से हम जब मिलने पहुंचे थे, तो ये तीनों लोग नदी किनारे से ही लौटते मिले.
मिट्टी के जीर्ण-शीर्ण घर में रहने वाली जानकी देवी सामने के सरकारी स्कूल को इशारे से दिखाते हुए कहती हैं कि यहीं उनका बेटा पढ़ता था. ये लोग नदी किनारे खेत में धान रोपने गई थीं. स्कूल से पढ़कर बेटा भी उधर गया और नदी की तेज़ धार में बह गया.
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मौत का सिलसिला जारी
हालांकि यह घटना बानगी भर है. झारखंड के पठारी इलाकों में नदियों में बहने और डोभा- आहर में डूब कर मरने का सिलसिला जारी है. डेढ़ महीने के दौरान कम से कम 60 लोगों की डूबने से मौत हो गई है.
कई घटनाओं में एक ही परिवार के तीन-चार लोगों की मौत नदी में बह जाने से हो रही है. तब लाशों की तलाश में कई दिन लग जाते हैं. कई लाशें मिलती हैं, तो कुछ का पता भी नहीं चलता.
राहे की अंचलाधिकारी छवि बारला बताती हैं कि कंकालजारा गांव स्थित राढ़ू नदी की घटना के बारे में उन्होंने आला अधिकारी को बताया है.
स्थानीय पुलिस ने भी छानबीन की है, लेकिन बच्चे का कुछ पता नहीं चला है. इधर पीड़ित परिवार को सरकारी मदद की दरकार के साथ आस है कि जिंदा न सही बच्चे की लाश मिल जाए.
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जान पर खेलते हैं लोग
हम वह गांव नदी पार कर ही पहुंचे थे. तब जांघ तक पानी था, लेकिन धार तेज़ थी.
पंचपरगना के स्थानीय पत्रकार ओमप्रकाश सिंह बताते हैं कि पठारी इलाके की अधिकतर छोटी नदियां लोगों की जिंदगी से सीधी जुड़ी हैं. दूसरे मौसम में इनमें बीत्ते भर पानी रह जाता है, तो इस बार बारिश में नदियों का मिजाज बदला सा है. लोग इसे भांप नहीं पा रहे. वैसे राढ़ू नदी में पहले भी कई लोगों की मौत बहकर हुई है. गनीमत ये कि कई मौकों पर जान पर खेलकर डूबते लोगों को बचा लिया जाता है.
पता चला कि पंचपरगना इलाके में सिरकाडीह गांव की दो महिलाएं तारकेश्वरी देवी और अनिता देवी इन दिनों सुर्खियों में हैं. दोनों रिश्ते में ननद- भाभी हैं. तारकेश्वरी देवी सातवीं, जबकि अनिता देवी एमए पास हैं.
दोनों महिलाएं खेतों में धान रोप रही थीं. सामने नदी में उन्होंने गांव के खेतिहर मजदूर बुधराम हजाम को बहते देखा. दोनों महिलाओं ने वक्त की नज़ाकत को देखते हुए अपनी साड़ियां खोलीं. पहले उसे जोड़ा, फिर छोर पर पत्थर बांध कर बुधराम की ओर उछाला. पानी में डूबते बुधराम को साड़ी का सहारा मिल गया और वो बच गया.
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कोहराम मचा है
बढ़ती घटनाओं पर ग़ौर करें, तो कोयल, शंख, दामोदर, भैरवी, मयूराक्षी स्वर्णरेखा, खरकई जैसी झारखंड की बड़ी नदियों में डूबने- बहने की घटनाएं होती रही हैं, लेकिन अब छोटी और कम पाट वाली नदियां तेजी से जिदंगी लीलने लगी हैं.
पांच अगस्त को चतरा के लावालौंग इलाके में दो महिलाओं की मौत खैवा नदी में बहकर हो गई. दोनों साग तोड़ने नदी पार गई थीं. लेकिन लौटते वक्त जान गंवा बैठीं.
झारखंड की पहाड़ियों, नदियों, चट्टानों पर सालों से शोध करते रहे पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं वाकई कोहराम मचा है.
उनका कहना है कि पहले पठारी इलाके की नदियां प्राकृतिक तरीके से बहती थीं. अब बढ़ती आबादी जगह- जगह नदियों को दबा रही है. इससे मुश्किलें बढ़ी हैं. कई नदियों में तीखी ढाल हैं और पत्थर, चट्टान भी. जब बारिश का पानी पहाड़ियों से तीव्र गति से नीचे उतरता है जो बहुत गहरा न भी हो, पर उसमें करंट बहुत होता है.
नीतीश प्रियदर्शी के मुताबिक, इनके अलावा दर्जनों पुल- पुलिये नदियों के लगभग समानांतर या मामूली ऊंचाई पर बने हैं. तभी तो लोग गाड़ियां समेत बह जा रहे हैं. सरकार और खासकर निचले स्तर पर प्रशासन को इस पर गंभीरता से काम करने के साथ खतरनाक स्थानों को मार्किंग करते हुए लोगों को आगाह कराना होगा.
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हर पल तड़पता हूं
उधर, डाल्टनगंज में चैनपुर गांव के युवक देवाशीष राजन पर दुखों का पहाड़ टूटा है. 25 जुलाई की देर रात पुल पर बहते कोयल नदी की तेज धार में गाड़ी समेत उनके माता- पिता, भाई- बहन बह गए थे.
उनके पिता की हालत गंभीर थी और सभी लोग बेहतर इलाज कराने रांची के लिए निकले थे. एनडीआरएफ की टीम ने लंबी तलाशी के बाद उनके नाबालिग भाई- बहन की लाश निकाल ली, लेकिन अब तक माता- पिता का पता नहीं है.
देवाशीष राजन कहते हैं, "हर पल तड़पता हूं कि मां- पिता का अंतिम संस्कार कर लेते, लेकिन लाशें मिलती नहीं."
वैसे इस घटना के बाद सरकार ने हर मृतक के नाम चार- चार लाख मुआवजा देने की घोषणा की है. लेकिन नदियों में बहने के हर मामलों में मुआवजा की गारंटी नहीं है.
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मौत का सबब बनते डोभा
आदिवासी बहुल खूंटी के पंचायत प्रतिनिधि सोमा कैथा बताते हैं कि सरकार ने बड़े पैमाने पर डोभा (छोटे तालाब) तो खुदवा दिये हैं, लेकिन राज्य के कमबेसी हर हिस्सों में ये डोभा बच्चों की मौत की कहानी लिख रही है. दरअसल ये आबादी वाले इलाके में गलत तरीके (खड़ी ढाल) से बनाए जा रहे हैं. पठारों के पुल-पुलिये भी खतरनाक हैं.
इन हालात में राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, "डोभा में मरने वाले बच्चों के परिजनों को मुआवजा देने का निर्देश दिया गया है. इंजीनियरों- अधिकारियों से ये भी कहा है कि वैसी जगहों को चिह्नित करें, जहां नदियों की तेज धार के साथ बहती हैं और इस सिलसिले में कम उंचाई वाले पुल- पुलियों की जगह ऊंचे पुल बनाने के लिए भी डिटेल प्रोजेक्ट तैयार करने को कहा है. इस बीच आपदा प्रबंधन विभाग ने भी एहतियातन कदम उठाने के लिए जिलों को एडवाइज़री भेजा है."
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