छत्तीसगढ़ के कबीरधाम में अपने युवा साथियों के साथ आदिवासियों की बैगा बोली में गीत गाने वाले शिवराम बैगा की पीड़ा है कि उनके नाते-रिश्ते और गांव के लोग तो मानते हैं कि वो आदिवासी हैं लेकिन सरकार ऐसा नहीं मानती.
सरकारी दस्तावेज़ में उनके दादा के नाम के साथ बैगा के बजाए बइगा लिख दिया गया है और उसके बाद हुई जनगणना में उन्हें बैगा आदिवासी समुदाय से बाहर कर दिया गया.
पिछले कई सालों से शिव और उनका परिवार आदिवासियों को मिलने वाली आरक्षण समेत तमाम सुविधाओं से वंचित है.
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शिवराम बैगा अकेले नहीं हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है. छत्तीसगढ़ में ऐसे लाखों लोग हैं जिनकी जाति संबधी दस्तावेज़ों में मात्रा, वर्ण, शब्द और भाषा की गड़बड़ियों ने उन्हें आदिवासी समुदाय से बाहर कर दिया है.
ज़ाहिर है, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रुप से आदिवासी होने के बाद भी उन्हें सरकार आदिवासी नहीं मानती.
जांजगीर-चांपा ज़िले के कमली सराईपाली गांव के रहने वाले कीर्तन लाल सिदार कहते हैं- "मेरे बड़े पिताजी और उनके बेटे को तो सरकार आदिवासी मानती है लेकिन मुझे और मेरे परिवार के दूसरे सदस्यों को आज भी ग़ैर-आदिवासी माना जाता है."
छत्तीसगढ़ में कुल 42 आदिवासी जातियां हैं. लेकिन विभिन्न आदिवासी समुदाय से जुड़े राज्य सरकार के 27 प्रस्ताव पिछले कई सालों से केंद्र सरकार के अलग-अलग कार्यालयों में धूल खाते पड़े हैं.
इस सूची को दुरुस्त करने का काम केंद्र सरकार के हिस्से होता है. लेकिन आदिवासियों से जुड़ी सरकारी फाइलों की रफ़्तार बेहद धीमी है. इसमें से अधिकांश प्रस्ताव उन मुद्दों से संबंधित हैं, जहां अंग्रेज़ी, हिंदी और छत्तीसगढ़ी में अनुवाद की गड़बड़ियों के कारण जातियों का अलग-अलग विभाजन हो गया.
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राज्य की 42 आदिवासी जातियों की सरकारी सूची से जिनकी जाति के नाम में एक मात्रा की भी गड़बड़ी हुई, उन्हें सरकार ने आदिवासी समुदाय से अलग कर दिया.
उदाहरण के लिये सवर और सवारा को तो सरकार आदिवासी मानती है लेकिन अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद की गड़बड़ी के कारण हज़ारों लोगों के दस्तावेज़ में सौंरा, साओंरा, सौरा, सहरा, साओरा और सौरा दर्ज़ हो गया. ऐसी गड़बड़ियां ब्रिटिश शासनकाल में भी हुईं और आज़ादी के बाद भी.
रायपुर के अजय कुमार नागवंशी कहते हैं-"मेरे दस्तावेज़ में नागवंशी के बजाए नागबंसी लिखा हुआ है. इसी तरह हज़ारों-लाखों लोग हैं, जिनके प्रमाण पत्रों में नगवंसी, नगवन्सी, नागबंसि, नगबंसी, नगवासी, नागबसि, नगबसी लिखा हुआ है. हमारी पुरखों को तो आदिवासी माना गया, हमारे रीति रिवाज़, खान-पान और शादी ब्याह भी आदिवासी समुदाय में होता है. लेकिन सरकार हमें आदिवासी नहीं मानती."
इस तरह की मात्रात्मक गड़बड़ियों के कई मामले राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पास लंबित हैं. आयोग के अध्यक्ष नंद कुमार साय भी मानते हैं कि इन गड़बड़ियों को बहुत पहले ही सुधार लिया जाना चाहिए था.
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साय कहते हैं, "अनुस्वार, मात्रा और भाषा की छोटी-छोटी ग़लतियों की बड़ी सज़ा लाखों लोगों को मिल रही है. इसमें तुरंत बदलाव होना चाहिए. हालांकि यह हमारे क्षेत्राधिकार का मामला नहीं है, तब भी हम इसमें हस्तक्षेप करेंगे और इसे दुरुस्त करने का काम करेंगे."
‘जल, जंगल और ज़मीन’ की लड़ाई में पिछले कई सालों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय का कहना है कि जातिगत नाम में वर्ण और मात्राओं की भाषायी गड़बड़ियों के कारण ग़ैर-आदिवासी ठहरा दिये गये समुदायों को सरकार आदिवासी होने की मान्यता देने के बजाए उनमें से कई को पिछड़े वर्ग में शामिल कर रही है.
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गौतम बंदोपाध्याय का दावा है कि पूरे देश में ऐसी परिस्थितियां हैं. गौतम कहते हैं, "2011 की जनगणना में बोलियों के आधार पर 1084 ऐसी जातियों की पहचान हुई थी, जो आदिवासी समुदाय के थे. ऐसी 705 जनजातियों को तो सरकार से मान्यता मिली. लेकिन 379 जनजातियां इससे बाहर ही रहीं."
वो कहते हैं, "संकट ये है कि आदिवासी समाज की सांस्कृतिक अस्मिता और उनके डीएनए को किनारे कर के सरकारों ने कई को तो पिछड़े वर्ग में शामिल कर दिया. यह और भी भयावह है."
अनुस्वार, वर्ण, शब्द और भाषा की शुद्धता ज़रुरी है इस बात को आदिवासी समाज से बाहर कर दिए गये लोगों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. लेकिन उनकी तक़लीफ को सरकार समझे तब कहीं बात आगे बढ़े.
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