गुजरात मॉडल की हकीकत जानें

गुजरात के विकास मॉडल को लेकर देशभर में एक बहस चल रही है. कुछ लोग कहते हैं कि ‘गुजरात का विकास’ आंकड़ों की बाजीगरी भर है, गरीबी और गैर-बराबरी इसकी कड़वी सच्चइयां हैं. आज पढ़ें उन विद्वानों की राय, जो मानते हैं कि गुजरात के विकास की हकीकत दरअसल एक छलावा है और देश के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 4, 2014 11:02 AM

गुजरात के विकास मॉडल को लेकर देशभर में एक बहस चल रही है. कुछ लोग कहते हैं कि ‘गुजरात का विकास’ आंकड़ों की बाजीगरी भर है, गरीबी और गैर-बराबरी इसकी कड़वी सच्चइयां हैं. आज पढ़ें उन विद्वानों की राय, जो मानते हैं कि गुजरात के विकास की हकीकत दरअसल एक छलावा है और देश के समग्र विकास के लिए बेहतर नहीं है.

कल पढ़िए उन विश्‍लेषकों की राय, जो मानते हैं कि गुजरात का विकास मॉडल ही देश के लिए सही है.

मैत्रीश घटक/ संचारी रॉय

अब चाहे आप इसे पसंद करें या नापसंद, लेकिन इस चुनाव में बहस के बोल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘विकास का गुजरात मॉडल’ तय कर रहा है. उनके समर्थकों को लगता है कि मोदी को जनादेश मिला तो ‘मोदीनॉमिक्स’ की जादुई शक्तियां जाग उठेंगी और केंद्र में आर्थिक-गवर्नेस की उनकी अनूठी शैली देश की अवरुद्ध अर्थव्यवस्था में नयी जान फूंकेगी. दूसरी ओर मोदी के विरोधियों को लगता है कि गुजरात की विकास कथा कुछ और नहीं, बल्कि एक बढ़े-चढ़े प्रचार-अभियान का गढंत है और इसका उद्देश्य है गरीबी, गैर-बराबरी और निचले स्तर पर पहुंचे मानव-विकास के सूचकांकों की स्याह सच्चाइयों को छुपाना.

तथ्य क्या हैं? यह बात ठीक है कि आर्थिक धरातल पर उपलब्धि के कई पहलू होते हैं. हम किसी पहलू के संकेतक पर जोर देने के लिए उसे चुनते हैं, तो उससे जाहिर होता है कि आर्थिक उपलब्धि के किस पक्ष को हम सबसे ज्यादा मूल्यवान समझते हैं या फिर हमारी राय का पता चलता है कि जिस बात की चिंता हमें ज्यादा (मिसाल के लिए गरीबी-उन्मूलन) है उसमें बेहतरी लाने के लिए में हम कौन-से संकेतक (मिसाल के लिए प्रति व्यक्ति आय) में सुधार देखना चाहते हैं. तो आइए, सबसे पहले सर्वाधिक प्रकट संकेतक यानी प्रति व्यक्ति आय की बात की जाये. इस मामले में बीते तीन दशकों में गुजरात चौथे स्थान पर यानी पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र के पीछे रहा है और सन् 2000 के दशक में जैसे गुजरात प्रति व्यक्ति आय के मामले में तीसरे स्थान पर पहुंचा वैसे ही महाराष्ट्र ने भी तीसरे से पहले स्थान पर छलांग लगायी. दिलचस्प बात यह रही कि इन दोनों राज्यों की ऊंची छलांग के बरक्स पंजाब नीचे फिसल कर सातवें स्थान पर पहुंच गया.

आइए, अब प्रति व्यक्ति आय के मामले में हुई वृद्धि-दर पर विचार करें, जिसे कि मोदी के आर्थिक-रिकॉर्ड का मजबूत पक्ष माना जाता है. बहुत से लोग तर्क देते हैं कि सन् 2000 के दशक में शेष भारत की तुलना में गुजरात की वृद्धि-दर ज्यादा रही और वे इस तर्क को मोदी के आर्थिक मॉडल की ताकत के निर्णायक प्रमाण के रूप में पेश करते हैं.

इस तर्क के साथ दो दिक्कतें हैं. पहली तो यही कि कुछ अन्य राज्यों ने भी कुछ ऐसा ही कर दिखाया है. गुजरात, महाराष्ट्र और हरियाणा बीते तीन दशकों में वृद्धि-दर के मामले में शीर्ष पर एक-दूसरे से होड़ लगाकर विराजमान रहे हैं. बावजूद इसके कोई भी विकास के ‘हरियाणा मॉडल’ या ‘महाराष्ट्र मॉडल’ के बारे में बात नहीं कर रहा. प्रशंसा के लिए गुजरात को चुन लेना और मुकाबले के शेष शीर्षस्थ दावेदारों को छांट देना छलपूर्ण जान पड़ता है.

दूसरी बात, सन् 1980 और 1990 के दशक में भी गुजरात की वृद्धि-दर ज्यादा थी. इस दावे को साबित करने के लिए, कि गुजरात की वृद्धि-दर पर मोदी ने कायापलट प्रभाव डाला है, हमें यह दिखाना होगा कि गुजरात और शेष भारत के बीच वृद्धि-दर का फर्क मोदी के शासन के सालों में बढ़ा है और यह फर्क अन्य राज्यों की तुलना में कुछ विशेष ही दिखता है.

सन् 1990 के दशक में गुजरात की वृद्धि-दर 4.8 प्रतिशत थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर औसत वृद्धि-दर 3.7 प्रतिशत. सन् 2000 के दशक में वृद्धि-दर का राष्ट्रीय औसत 5.6 प्रतिशत रहा, जबकि गुजरात की वृद्धि-दर 6.9 प्रतिशत रही. इस प्रकार गुजरात की वृद्धि-दर और राष्ट्रीय वृद्धि-दर के औसत के बीच अंतर बहुत कम यानी 1.1 प्रतिशत से 1.3 प्रतिशत बढ़ा. तो क्या इसे आर्थिक-धरातल पर बेहतर उपलब्धि माना जाये? क्या इसे गुजरात की बढ़ती-चढ़ती का प्रमाण माना जाये? नहीं, क्योंकि सन् 2000 के दशक के सर्वाधिक समृद्ध राज्य महाराष्ट्र ने भी 1990 के दशक की तुलना में सन् 2000 के दशक में अपनी वृद्धि-दर में इजाफा किया था. सन् 1990 में उसकी वृद्धि-दर 4.5 प्रतिशत थी, जो सन् 2000 के दशक में बढ़ कर 6.7 प्रतिशत हो गयी. महाराष्ट्र की वृद्धि-दर और राष्ट्रीय वृद्धि-दर के औसत के बीच अंतर 0.8 प्रतिशत से 1.1 प्रतिशत तक का रहा, जो कि गुजरात के ही समान है. इस तरह देखें तो गुजरात ने पहले की तुलना में सन् 2000 के दशक में वृद्धि-दर में तेजी का कोई लक्षण नहीं दिखाया और न ही इस मामले में वह शीर्ष पर विराजमान एकमात्र राज्य रहा.

इसकी तुलना बिहार यानी एक ऐसे राज्य के कामकाज से करें जो प्रति व्यक्ति आय के मामले में इन सालों में सबसे नीचे के राज्यों में रहा. सन् 1990 के दशक में बिहार की वृद्धि-दर 1 प्रतिशत थी, जो सन् 2000 के दशक में 6.9 प्रतिशत हो गयी. इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रीय वृद्धि-दर के औसत की तुलना में 1990 के दशक में बिहार की वृद्धि-दर 2.7 प्रतिशत नीचे थी, जबकि सन् 2000 के दशक में 1.3 प्रतिशत ज्यादा हो गयी. इसलिए, सबसे नाटकीय ढंग से परिवर्तन कर दिखाने का सेहरा बिहार के सिर पर सजना चाहिए, क्योंकि सन् 1990 के दशक में सबसे नीचे के राज्यों के बीच बैठा यह राज्य सन् 2000 के दशक में विकास के मामले में अगुआ राज्यों, जैसे गुजरात और महाराष्ट्र, के बीच खड़ा नजर आया.

कोई कह सकता है कि बिहार जैसे सुस्त-चाल राज्य के कदमों में तेजी लाना आर्थिक-विकास के मामले में अग्रणी महाराष्ट्र, हरियाणा या गुजरात जैसे राज्यों की रफ्तार को बनाये रखने की तुलना में आसान है. इन राज्यों की तुलना में बिहार के मामले में सुधार की कहीं ज्यादा गुंजाइश जो है. लेकिन, इसके उलट यह भी कहा जा सकता है कि एक पिछड़े राज्य की तस्वीर को बदलने का काम कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि यदि ऐसा कर दिखाना आसान होता, तो यह काम कोई पहले ही कर चुका होता. इस दूसरी बात को इस तर्क से भी बल मिलता है कि बिहार आबादी के मामले में देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है, जबकि गुजरात इस मामले में 10वें स्थान पर है और छोटे राज्यों की तुलना में बड़े राज्यों में तेजी से सुधार का लक्ष्य हासिल करना ज्यादा कठिन होता है.

सामाजिक-आर्थिक विकास के अन्य सूचकांकों के संदर्भ में बात कहां ठहरती है? जहां तक मानव-विकास सूचकांक (एचडीआइ) का सवाल है, केरल एक समय से इस मामले में सबसे आगे है. सन् 1980 और 1990 के दशक में मानव-विकास सूचकांक के लिहाज से गुजरात राष्ट्रीय औसत से आगे था, लेकिन सन् 2000 के दशक में उसका स्तर नीचे खिसककर राष्ट्रीय औसत के बराबर हो गया. जहां तक असमानता का सवाल है, सन् 1980-90 के दशक में गुजरात राष्ट्रीय औसत से नीचे था लेकिन सन् 2000 के दशक में यह रुझान उलट गया.

यदि हम गरीबी-रेखा से नीचे के लोगों के प्रतिशत पर विचार करें तो नजर आयेगा कि गुजरात में गरीबी का स्तर राष्ट्रीय औसत से कम है. बहरहाल, बीते तीन दशकों से गरीबी-उन्मूलन के मामले में गुजरात का प्रदर्शन इस मामले में अग्रणी राज्य तमिलनाडु की तुलना में फीका रहा है.

इस तरह, बीते तीन दशकों में गुजरात का आर्थिक रिकॉर्ड कुल मिलाकर निस्संदेह अन्य राज्यों की तुलना में अच्छा रहा है, तो भी सन् 2000 के दशक के प्रदर्शन के आधार पर मोदी की अगुवाई में व्यक्त किया जा रहा ‘बड़बोला आशावाद’ और ‘चरम उल्लास’ उचित सिद्ध नहीं होता. गुजरात की कथा मीडिया पर छा गयी है, लेकिन विकास-कथाएं और भी हैं, जैसे बिहार, तमिलनाडु और राजस्थान के विकास की कथा, महाराष्ट्र और केरल की विकास-कथा तो खैर हैं ही! इसलिए जो लोग यथास्थितिवाद से परेशान हैं और जिन्हें उम्मीद है कि मोदी को सत्ता मिली तो चीजें जादुई ढंग से बदल जायेंगी, उनके लिए यह याद रखना बुद्धिमानी की बात होगी कि आखिरकार आर्थिक मामलों में आदमी को फैसला आंकड़ों के आधार पर ही करना होता है.

(मैत्रीश घटक लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और संचारी रॉय यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं.)

आंकड़ों की बाजीगरी से विकास
लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच गुजरात के विकास मॉडल को लेकर लोगों में काफी उत्सुकता है. कुछ दिन पहले अमेरिका में रहनेवाले एक अनिवासी भारतीय ने मुङो मेल करके एक अखबार में ‘गुजरात के विकास’ के मुद्दे पर छपे एक लेख के बारे में बताया. उसने कहा कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार के 10 फीसदी कृषि विकास दर के दावे पर सवाल उठाते हुए इसे 1.18 फीसदी बताया था. उसने लिखा कि मैंने गुजरात सरकार की बेवसाइट को भी खंगाला, लेकिन मुङो इससे संबंधित आंकड़े नहीं मिल पाये. मैंने उस एनआरआइ को गुजरात में कृषि के विकास से संबंधित एक ऑनलाइन खबर भेजी, जिसमें उपलब्ध आंकड़े मुङो राज्य के कृषि विभाग के एक अधिकारी ने दिये थे, जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. इन आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2003-04 से 2012-13 के बीच गुजरात में खाद्य पदार्थो के उत्पादन में सालाना औसतन 3.27 फीसदी और कपास के उत्पादन में सालाना औसतन 2.45 फीसदी की दर से वृद्धि हुई, जबकि तिलहन के उत्पादन में 2.71 फीसदी की दर से गिरावट दर्ज की गयी.

इसके अलावा, इस रिसर्चर को मैंने गुजरात के जीडीपी के बारे में भी कुछ आंकड़े भेजे. उसमें मौजूदा कीमत के आधार पर राज्य की विकास दर वित्त वर्ष 2012-13 में 13.98 फीसदी थी. इस आंकड़े के आधार पर विशेषज्ञों ने स्थिर कीमतों के आधार पर राज्य की वास्तविक विकास दर सात फीसदी ही माना. ये आंकड़े फरवरी, 2013 में जारी बजट दस्तावेज में अनुमानित थे, लेकिन मुङो हैरानी है कि गुजरात सरकार ने स्थिर कीमतों पर जीडीपी विकास दर के आंकड़े फरवरी, 2014 में जारी नहीं किये. क्या यह इसलिए है कि 2013-14 में पुन: गुजरात की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन खराब रहा है?

हकीकत यह है कि आर्थिक मोरचे के अलावा सामाजिक क्षेत्र में भी गुजरात के हालात अच्छे नहीं हैं. मसलन, राज्य के 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. शिशु मृत्यु दर में कमी आयी है, लेकिन यह अब भी राष्ट्रीय औसत से कम है. लिंगानुपात के मामले में भी हालात अच्छे नहीं हैं. राज्य में प्रत्येक हजार पुरु षों पर मात्र 918 स्त्रियां हैं. राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में 60 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 40 फीसदी घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है. और इस तरह की हकीकत पर परदा डालने के लिए तथा विकास दर को आकर्षक दिखाने के लिए गुजरात सरकार आंकड़ों के साथ बाजीगरी कर रही है.

गुजरात नहीं है कोई ‘मॉडल स्टेट’

क्रिस्टोफ जेफरलोट

गुजरात में आर्थिक वृद्धि कर्ज पर आधारित है और इसी से विकास हो रहा है. गुजरात के विकास मॉडल की वामपंथी उसके सामाजिक हालातों को लेकर आलोचना करते हैं. हकीकत में राज्य के सामाजिक सूचकांक कहीं से आर्थिक प्रदर्शन से मेल नहीं खाते हैं. गुजरात में वर्ष 2010 में 23 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 29.8 फीसदी से बेहतर है, लेकिन पिछले पांच वर्षो में गरीबी रेखा में केवल 10 फीसदी से कम की कमी आयी. गरीबी रेखा में कमी की दर दिहाड़ी मजदूरों के मेहनतनामे से जुड़ी हुई है. एनएसएसओ की 68वीं सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात में दिहाड़ी मजदूरों का रोजाना मजदूरी (सार्वजनिक कामों को छोड़ कर) सबसे कम है. यह शहरी क्षेत्रों में 144.52 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर शहरी क्षेत्रों में मजदूरों की रोजाना मजदूरी 170 रुपये है.

इंडियन इंस्टीटय़ूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक विकास सूचकांक के एक पहलू में गुजरात अप्रत्याशित रूप से पिछड़ा है. वह है ‘भूख सूचकांक’. गुजरात में केवल 43 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य है. यह सूचकांक सामान्य है, लेकिन इसे अलग-अलग करने पर कई रोचक जानकारियां सामने आती हैं. गुजरात में शहर-गांव के बीच अंतर स्पष्ट तौर पर दिखता है. एनएसएसओ के आंकड़ों से इस अंतर को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, जिसमें हर महीने प्रति व्यक्ति खर्च शामिल है. वर्ष 1993-94 में शहरों में प्रति व्यक्ति खर्च गांवों के मुकाबले 49 फीसदी अधिक था. 14 साल बाद यह फासला बढ़ कर 68 फीसदी हो गया. वर्ष 2011-12 में यह फासला 68.1 फीसदी पर आकर स्थिर हो गया.

निश्चित तौर पर नर्मदा बांध के कारण ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले कुछ लोगों का जीवन बेहतर हुआ है. हालांकि, इसका लाभ काफी सीमित है, क्योंकि खेतों में नहर का पानी नहीं पहुंचा है, खासकर सौराष्ट्र इलाके में. यह केवल खराब प्रबंधन के कारण नहीं, बल्कि शहरों और उद्योगों को प्राथमिकता के आधार पर पानी देने के कारण हुआ है. दूसरा, नकदी फसल उगानेवाले किसान कम कीमत मिलने से प्रभावित हो रहे हैं. कपास के किसान इसका उदाहरण हैं, क्योंकि इसकी कीमतें नहीं बढ़ी हैं. जबकि महंगाई के कारण उत्पादन महंगा हो गया है. तीसरा, खेती योग्य मुख्य भूमि उद्योगों को दे दी गयी और औद्योगिक कार्यो से पर्यावरण को नुकसान हुआ है. महुआ में निरमा ग्रुप को खनन और सीमेंट कारखाने के लिए 3000 हेक्टेयर भूमि दी गयी. पूर्व भाजपा विधायक कानू कलसारिया ने इससे गांवों के पानी के टैंक पर प्रतिकूल असर पड़ने की बात कहते हुए मुखालफत की. हालांकि, उन्हें दरकिनार कर दिया गया और अब वे राज्य सरकार की नीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं.

राज्य की नीतियों के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे ज्यादा असर आदिवासियों पर पड़ा है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 1993-94 और 2004-05 के बीच गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या 30.9 फीसदी से बढ़ कर 33.1 फीसदी हो गयी. हालांकि, राष्ट्रीय औसत से यह 10 फीसदी कम है. आदिवासियों और दलितों की आबादी के लिहाज से फंड का आवंटन नहीं करने के लिए मोदी सरकार की आलोचना होती रही है. गुजरात में आदिवासियों की आबादी कुल आबादी का 18 फीसदी है और 2007-08 में कुल आवंटन का 11.01 फीसदी ही उनके लिए आवंटित हुआ, जबकि 2008-09 में 14.06 फीसदी, 2010-11 में 16.48 फीसदी का आवंटन हुआ. वैसे वास्तविक खर्च तो इससे कहीं कम रहा. यही स्थिति दलितों के मामले में रही, जिनकी गुजरात में कुल आबादी 7.1 फीसदी है. इनके लिए 2007-08 में कुल आवंटन का 1.41 फीसदी, 2008-09 में 3.93, 2009-10 में 4.51 फीसदी, 2010-11 में 3.65 फीसदी और 2011-12 में 3.20 फीसदी का प्रावधान किया गया था.

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक क्षेत्र पर गुजरात ने अन्य राज्यों के मुकाबले काफी कम खर्च किया है. वर्ष 2011-12 में गुजरात ने शिक्षा पर बजट का केवल 15.9 फीसदी खर्च किया, जबकि बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओड़िशा, राजस्थान, यूपी और पश्चिम बंगाल ने 16 से 20.8 फीसदी के बीच खर्च किया. शिक्षा पर राष्ट्रीय खर्च का औसत 16.6 फीसदी था. दरअसल, गुजरात का आर्थिक वृद्धि कर्ज पर आश्रित है. राज्य का कर्ज वर्ष 2002 में 45,301 करोड़ रुपये से बढ़ कर 2013 में 1,38,978 करोड़ हो गया, जो उत्तर प्रदेश के 1,58,400 करोड़ और पश्चिम बंगाल के 1,92,100 करोड़ से थोड़ा ही कम है. प्रति व्यक्ति कर्ज के मामले में हालात और भी चिंताजनक हैं, खासकर राज्य के आकार को देखते हुए. अगर राज्य की आबादी छह करोड़ मानी जाये, तो हर गुजराती पर 23,163 रुपये का कर्ज है. वर्ष 2013-14 में गुजरात सरकार 26,009 करोड़ रुपये कर्ज लेने की योजना बना रही है. इस राशि में से 19,877 करोड़, जो कि 76 फीसदी होता है, का इस्तेमाल पुराने कर्ज पर ब्याज चुकाने के लिए किया जायेगा. जिस दिन यह आंकड़ा 100 फीसदी पर पहुंच जायेगा, उस दिन गुजरात कर्ज के जाल में फंस जायेगा.

यह वित्तीय संकट कई कारणों से पैदा हुआ है. राज्य का राजस्व मोदी सरकार के उद्योग समर्थित व्यवहार से सीधा प्रभावित हुआ है. निवेशकों को आकर्षित करने के लिए गुजरात सरकार ने करों में छूट और कम ब्याज दरों पर कर्ज देने के साथ ही कौड़ियों के भाव जमीन मुहैया करायी. नैनो कार के उदाहरण पर गौर करें. अगर मोदी की आत्मकथा लिखने वाले किंसुक नाग की बातों पर भरोसा करें, तो मोदी सरकार ने टाटा मोटर्स को अप्रत्याशित रियायतें दीं, जिसमें 1,100 एकड़ जमीन महज 900 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से देना शामिल है, जबकि जमीन की बाजार दर 10 हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर थी. साथ ही, 20 करोड़ रुपये स्टैंप डय़ूटी में छूट, 20 साल तक वैट से छूट और 2,900 करोड़ रुपये के निवेश की एवज में 9,570 करोड़ का लोन 0.1 फीसदी ब्याज दर पर दिया. गुजरात में निवेश करनेवाली बड़ी कंपनियां- जैसे अडानी, रिलायंस, फोर्ड, मारुति, एलएंडटी और अन्य को ‘सेज’ नीति के तहत विशेष रियायतें दी गयी हैं.

निश्चित तौर पर भविष्य के लिए निवेश आकर्षित करना अच्छी बात है और बढ़ता कर्ज समस्या नहीं है, यदि निवेश से राजस्व में इजाफा हो. पर गुजरात में हुआ निवेश कितना उपयोगी है, इस बारे में अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है. (लेखक पेरिस के सीइआरआइ-साइंस में सीनियर रिसर्च फेलो और लंदन स्थित किंग्स इंडिया इंस्टीटय़ूट में इंडियन पॉलिटिक्स एंड सोसियोलॉजी के प्रोफेसर हैं) साभार : इंडियन एक्सप्रेस

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