क्या डोकलाम मुद्दे पर चीन का विरोध वहां की उलझी घरेलू राजनीति से भी जुड़ा हुआ है?
नयी दिल्ली : डोकलाम मुद्दे पर भारत और चीन के बीच बीते दो महीने से अधिक समय से जबरदस्त गतिरोध बना हुआ है. यह गतिरोध तब और बढ़ गया है, जब इस मुद्दे पर जापान ने भारत के प्रति समर्थन जताया है और अमेरिका ने भारत, जापान व आस्ट्रेलिया के साथ अपने सुरक्षा सहयोग को […]
नयी दिल्ली : डोकलाम मुद्दे पर भारत और चीन के बीच बीते दो महीने से अधिक समय से जबरदस्त गतिरोध बना हुआ है. यह गतिरोध तब और बढ़ गया है, जब इस मुद्दे पर जापान ने भारत के प्रति समर्थन जताया है और अमेरिका ने भारत, जापान व आस्ट्रेलिया के साथ अपने सुरक्षा सहयोग को बढ़ाने का एलान किया है. चीन ने मौजूदा सरकार के मुखिया शी जिनपिंग के नेतृत्व में प्रतिक्रियावादी रुख अख्तियार कर रखा है और अक्सर कोई न कोई बयान बीजिंग इस मुद्दे पर जारी करता है. उसके बयान धमकी मिश्रित होते हैं. जबकि भारत संयमितवमजबूत भाषा में उसे जवाब देता है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चीन का यह रुख इस मुद्दे पर क्यों है? क्या इस साल के नवंबर महीने में फिर से सांगठनिक चुनावों का सामना करने जा रहे शी इसके माध्यम से अपनी पकड़ देश व पार्टी में मजबूत करना चाहते हैं?
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की इस साल नवंबर में 19वीं नेशनल कांग्रेस होगी. इसमें शी के दूसरे पांच साल के कार्यकाल के लिए अगले पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी के सदस्य चुने जायेंगे. खुद को सबसे मजबूत शासक के रूप में स्थापित करने के लिए शी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. माओ-त्से-तुंग के बाद चीन के सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे शी जिनपिंग चाहते हैं कि देश के अंदर उनकी ऐसी छवि बने जिसने देश के सामारिक महत्व के मुद्दों पर ढिलाई नहीं बरती. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर जबरदस्त गुटबंदी और वर्चस्व की जंग चल रही है. चीन में सामान्यत: शासक पांच-पांच साल के दो टर्म तक शासन करते हैं और 67 की उम्रआते-आते रिटायर हो जाते हैं. शी चिनफिंग और प्रधानमंत्री ली कछयांग अगली पार्टी कांग्रेस तक एक-एक बार शिखर पद चाहते हैं और बहुत संभव है इसमें वे कामयाब हो जायेंगे. शी ने बीते दिनों अपने कई विरोधियों को पार्टी में ठिकाने लगाया है और लगातार खुद को अधिक प्रभुत्वशाली व मजबूत नेता कि छवि बनाते गये हैं.
पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण इस पूरे मुद्दे पर एक लेख में लिखते हैं कि चीन के अंदर जारी सत्ता संघर्ष के मद्देनजर डोकलाम मुद्दे पर हमें सावधान रहने की जरूरत है. क्योंकि अगस्त 1962 में भी ऐसे ही एक सम्मेलन के बाद माओ ने भारत को सबक सिखाने के लिए युद्ध का निर्णय लिया था. उन्होंने तब कुछ विफलताओं के कारण अपनी प्रभुता दिखाने के लिए यह कदम उठाया था. ऐसे में चीन की पार्टी कांग्रेस जैसे-जैसे नजदीक आयेगा वहां राजनीतिक धड़ों में सत्ता संघर्ष तेज होगा. शरण के मुताबिक, ऐसे शी चिनफिंग यह नहीं चाहेंगे कि उन पर आरोप लगे किवे चीन की क्षेत्रीय अखंडता से जुड़े मसले पर खामोश रहे. उनके अनुसार, डोकलाम मुद्दे को इसी रूप में पेश किया जा रहा है अौर हमें इससे निबटने को पूरी तरह तैयार रहना चाहिए.