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चुनाव में हिंदी प्रदेश की अहमियत

रविभूषण वर्ष 1857 की लड़ाई में भारत के हृदयप्रदेश की अहम भूमिका के कारण अंग्रेजों ने जिस प्रकार इसका विकास अवरुद्ध किया, बहुत कुछ उसी तर्ज पर स्वतंत्र भारत के ‘शासकों’ ने भी हिंदीभाषी क्षेत्र को औद्योगिक रूप से विकसित नहीं होने दिया. अशिक्षा, जातिवाद, संप्रदायवाद, धार्मिक कट्टरता इस क्षेत्र में बढ़ती गयी. 1977 के […]

रविभूषण

वर्ष 1857 की लड़ाई में भारत के हृदयप्रदेश की अहम भूमिका के कारण अंग्रेजों ने जिस प्रकार इसका विकास अवरुद्ध किया, बहुत कुछ उसी तर्ज पर स्वतंत्र भारत के ‘शासकों’ ने भी हिंदीभाषी क्षेत्र को औद्योगिक रूप से विकसित नहीं होने दिया. अशिक्षा, जातिवाद, संप्रदायवाद, धार्मिक कट्टरता इस क्षेत्र में बढ़ती गयी. 1977 के लोकसभा चुनाव के बाद इस प्रदेश की मतदाता-शक्ति का अहसास सत्ताधारी पार्टी को हुआ.

देश की 543 लोकसभा सीटों में से कुल 225 सीटें हिंदी प्रदेश की हैं. उत्तर प्रदेश की 80, बिहार की 40, मध्यप्रदेश की 29, राजस्थान की 25, झारखंड की 14, छत्तीसगढ़ की 11, हरियाणा की 10, दिल्ली की सात, उत्तराखंड की पांच और हिमाचल प्रदेश की चार. लोकसभा की कुल सीटों (543) की ये सीटें 40 प्रतिशत हैं. हिंदी प्रदेश की कुल लोकसभा सीटों (225) में उत्तर प्रदेश और बिहार का प्रतिशत 50 से अधिक है और देश की कुल संसदीय सीटों की लगभग 23 प्रतिशत सीटें यूपी और बिहार की हैं.

भारतीय राजनीति में- संसदीय राजनीति में क्षेत्रवाद और गंठबंधन का उभार 1989 से आरंभ होता है. बिहार और उत्तर प्रदेश सहित हिंदी प्रदेश का मतदाता बहुधा आवेग को महत्व देता है. 1977 के चुनाव में 542 सीटों में से कांग्रेस को मात्र 154 सीटें प्राप्त हुई थीं. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर में 1984 के चुनाव में 514 सीटों में से कांग्रेस को 404 सीटें प्राप्त हुई थीं. नेहरू के समय भी इतनी बड़ी जीत कभी नहीं हुई थी. पहले, दूसरे और तीसरे लोकसभा चुनाव (1952, 57, 62) में कांग्रेसी सांसदों की लोकसभा में संख्या 364, 371, 361 थी.

अब हिंदी प्रदेश में कांग्रेस सर्वाधिक दुर्बल स्थिति में है. राष्ट्रीय दलों में भाजपा ने ‘हिंदुत्व’ का कार्ड खेल कर यहां अपनी स्थिति मजबूत की. ‘सेकुलरिज्म’ की बात यहीं प्रमुख रूप से उठी और लालू प्रसाद ने अभी तक सांप्रदायिक दलों/तत्वों से हाथ नहीं मिलाया. हिंदी प्रदेश में जदयू, राजद, सपा, बसपा, रालोद, भारालोद, लोजपा, झाविमो, झामुमो प्रमुख क्षेत्रीय दल हैं. पिछले लोकसभा चुनाव (2009) में सपा 23 सांसदों के साथ तीसरे स्थान पर, बसपा 21 सांसदों के साथ चौथे स्थान पर और जदयू 20 सांसदों के साथ पांचवें स्थान पर था. हिंदी प्रदेश स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों में कभी भाजपा (या भारतीय जनसंघ) का गढ़ नहीं था. पहले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ को 3, दूसरे में 4, और तीसरे चुनाव में 14 सीटें प्राप्त हुई थीं. चौथे लोकसभा चुनाव (1967) में उसे मात्र 35 संसदीय सीटें मिली थीं, जो घट कर 1971 के चुनाव में 22 हो गयीं. भाजपा को 1984 में दो, 1989 में 85, 1991 में 120, 1996 में 161, 1998 में 181, 1999 में 182, 2004 में 138, और 2009 में 116 सीटें मिलीं.

बर्लिन की दीवार ढहने और सोवियत रूस के विघटन के साथ विश्व में जो एकध्रुवीयता प्रमुख हुई, ‘विकास’ का जो विश्वबैंकी और अमेरिकी मॉडल नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ फैला, उसने राजनीति में दक्षिणपंथी ताकतों को आगे बढ़ने का ‘सुअवसर’ प्रदान किया. सोलहवें लोकसभा चुनाव में यह हिंदी प्रदेश पर निर्भर करता है कि वह मोदी और भाजपा के साथ कितनी दूर तक जाये. हिंदी प्रदेश में भी उत्तर प्रदेश और बिहार की कुल 120 सीटों का फैसला अहम होगा. अगर इन दोनों राज्यों से भाजपा 70 सीटें प्राप्त कर लेती है और हिंदी प्रदेश की कुल 225 सीटों में से 125 सीटें प्राप्त करती है, तो वह बड़ी आसानी से 200 सीटों पर पहुंच जायेगी.

अभी 10 अप्रैल के चुनाव में हिंदी प्रदेश की 48 और 17 अप्रैल के चुनाव में इस प्रदेश की कुल 56 सीटों (कुल 104 सीट) पर प्रत्याशी खड़े हैं. छठे, सातवें, आठवें और नौवें चरण (45, 21, 31 और 24 सीट) की कुल 121 सीटों पर नामांकन नहीं हुआ है. क्षेत्रीय दल अगर सही अर्थो में ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं, तो उन्हें अब तक एकजुट हो जाना चाहिए था. इसकी संभावना भी नहीं है. लोभ-लालच की राजनीति मुद्दों और उसूलों की बात नहीं करती. हिंदी प्रदेश पर आज पहले से कहीं अधिक जिम्मेदारी है. समय बीतते देर नहीं लगती. 16 मई को मालूम हो जायेगा कि इस प्रदेश के गैर भाजपाई दलों ने क्या किया है? उसने भाजपा और मोदी को 225 सीटों में से कितनी सीटें दी हैं!

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