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”मैं बाइसेक्शुअल हूं और मुझे ख़ुद पर गर्व है”

मैं कभी ख़ुद को लेकर इतना गर्व या आत्मविश्वास का अनुभव नहीं करती थी जैसाकि अब करती हूं. किशोरावस्था में मुझे इस बात से नफ़रत होती थी कि मैं अलग हूं क्योंकि मुझे सेरिब्रल पॉलसी है जिसकी वजह से मैं हमेशा के लिए व्हीलचेयर पर रहूंगी. कई दिन ऐसे भी थे जब मुझे पूरी दुनिया […]

मैं कभी ख़ुद को लेकर इतना गर्व या आत्मविश्वास का अनुभव नहीं करती थी जैसाकि अब करती हूं.

किशोरावस्था में मुझे इस बात से नफ़रत होती थी कि मैं अलग हूं क्योंकि मुझे सेरिब्रल पॉलसी है जिसकी वजह से मैं हमेशा के लिए व्हीलचेयर पर रहूंगी. कई दिन ऐसे भी थे जब मुझे पूरी दुनिया से ही नफ़रत होती थी.

हम चार भाई-बहन एक साथ जन्मे थे- तीन लड़कियां और एक लड़का. मेरे भाई ओलीवर की मौत जन्म के 10 महीने बाद ही हो गई, लेकिन हम हमेशा के लिए 4 भाई-बहन ही जाने जाएंगे.

स्कूल में मेरी दोनों बहनों के अपने दोस्त थे, उनके ब्वॉयफ़्रेंड भी थे और मैं बस उनके साथ ही घूमती रहती थी.

मैं ख़ुद भी अपनी बहनों से दूर जाने में संकोच करती थी और कभी-कभार ही अपने ख़ुद के दोस्तों के यहां रूकी.

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बदलाव

बातें तब बदलना शुरू हुईं जब मैं 17 साल की हुई और कोवेंट्री चली गई परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स की पढ़ाई करने के लिए. हेरेवार्ड कॉलेज जो कि विकलांग छात्रों के लिए एक रेसिडेंशियल कॉलेज था, वहां से 3 घंटे की दूरी पर रहने लगी.

हालांकि मैं और मेरी बहनें एक ही उम्र के थे, लेकिन सामाजिक तौर पर मैं उनसे सालों पीछे थी. वे और मेरे चारों तरफ़ सभी लोग शारिरिक रूप से समर्थ थे, हालांकि उन सबने मुझे अपने साथ मिलाने की कोशिश की, लेकिन मैं हमेशा अलग ही नज़र आई.

खुद को ‘सामान्य’ रखने की कोशिश में मैंने कई साल बिता दिए और फिर कब कॉलेज में पहुंच गई पता ही नहीं चला. मझे हैरानी हुई कि मैंने कैसे इतनी जल्दी ख़ुद को अपनी परिस्थितियों के अनुसार ढाल लिया था.

कॉलेज के पहले साल में मुझे ज़्यादातर छात्रों की तरह कॉलेज वाली जगह ही एक कमरा दिया गया, लेकिन दूसरे साल मुझे एक फ़्लैट दे दिया गया जहां मुझे अपना किचन, बाथरूम और लाउंज जैसी सुविधाएं मिली थीं.

मुझे अपनी आज़ादी से प्यार हो गया. मुझे नया आत्मविश्वास तब मिला जब मुझे दोस्त मिले और ब्वॉयफ्रैंड भी. जब हमने तीसरी-चौथी बार ब्रेकअप किया जैसा कि किशोरवस्था में लोग अक्सर करते रहते हैं, तब मुझे और अधिक आत्मविश्वास मिला.

यहां मैंने लड़कियों को भी समझा.

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क्यों होती थी जलन?

कुछ लड़कियां थीं जिन्हें मैं स्कूल में पसंद करती थी, लेकिन जब कोई पूछता तो हंस कर टाल जाती थी – ये कहकर कि बस वो अच्छी हैं या उनसे जलन होती है. ये बात ज़्यादा सामान्य या स्वीकार्य भी थी.

स्कूल में वो लड़कियां मुझे खुद से कहीं ज़्यादा सुंदर लगती थीं. उनके पैर थे जिनसे वो चल सकती थीं. फिर एक विकलांग किशोरी को जलन क्यों ना होती?

जो लैंगिकता का ठप्पा था, उससे निपटना सबसे ज़्यादा मुश्किल था. जिन्हें मैं जानती थी या प्यार करती थी, उनमें से किसी को मेरी लैंगिकता से फ़र्क नहीं पड़ा. वो मैं थी जिसे इससे दिक्कत हुई.

अपनी पूरी ज़िंदग़ी मैंने विकलांगता को तो स्वीकार किया, लेकिन मुझे लगा कि एक और लेबल कुछ ज़्यादा हो जाएगा. मैं आपने माथे पर एक और ठप्पा नहीं लगवाना चाहती थी, एक ही काफ़ी था और वो भी मुझे ठीक नहीं लगता था.

लेकिन घर से दूर होने के बाद मुझे प्रयोग के मौके मिले जिनका ना के बराबर या कम ग़लत प्रभाव था. रोकटोक के बावजूद कॉलेज में कुछ हाउस पार्टियां होती रहती थीं और शराब तो किशोरों के विद्रोह का हिस्सा होता ही है.

गर्व का एहसास

दो साल बाद मैं अपने स्पेशल कॉलेज से निकली जहां से मुझे मेरी सोच से ज़्यादा ज़िंदगी का अनुभव मिला और आखिरकार मैंने महसूस किया कि मेरा सामाजिक कौशल भी मेरी बहनों जितना हो गया है हालांकि उन्हें इसके लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ा था.

रेसिडेंशियल कॉलेज ने मुझे अच्छे के लिए बदला. मैंने अपनी अनुभवहीनता से छुटकारा पा लिया था और एक नई पहचान को पूरी तरह अपना लिया था – ‘मैं विकलांग हूं, बाइसैक्शुअल हूं और मुझे अपनी पहचान पर गर्व है.’

अब मैं और मेरी बहनें बड़ी हो गई हैं और हम अपनी-अपनी ज़िंदगियां बिता रही हैं.

बाइसेक्शुअल

मेरी बहन जॉर्जी को पुरुष पसंद हैं और मेरी बहन फ़्रैंकी समलैंगिक है. जब हम 15 साल के थे तब वो बाइसेक्शुअल थी और तब ही मैंने भी अपनी लैंगिकता पर सवाल करना शुरू किया था. अब वो पूरी तरह समलैंगिक है.

उस वक्त मैं उसकी नकल नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुप रही और बाद में 11 साल बाद 26 साल की उम्र में मैंने परिवार को बताया कि मैं बाइसैक्शुअल हूं.

मेरी दोनों बहनें अपने रिश्तों में खुश हैं और ये बहुत सुंदर बात है, लेकिन सालों बाद मैं एक बार फिर से सामान्य लोगों की दुनिया में उनके साथ सैर पर निकली हूं.

मैं चार साल से अकेली हूं और सोचने लगी थी कि ऐसे किसी डेट या साथी को ढूंढना जो मेरी विकलांगता के अलावा भी मुझे देख सके- ये ऐसा है जैसे संसार मांगना. इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना इसे टेलीविज़न पर दिखाया जाए.

तब मैंने चैनल 4 के कार्यक्रम ‘द अनडेटेबल्स’ के लिए आवेदन दिया. ये कहना सही होगा कि मैं काफ़ी हिचकिचा रही थी, लेकिन मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था और पाने के लिए सब कुछ.

किताब

इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने से मेरा आत्मविश्वास बढ़ा जिसकी मुझे काफ़ी ज़रूरत थी. आत्मविश्वास ना सिर्फ़ रूमानी तौर पर बल्कि कई तरह से. अब मैं प्रेम की तलाश में हुए अपने अनुभवों पर लिखी पहली किताब के लिए प्रकाशक ढूंढ रही हूं.

इसने मुझे ये भी सिखाया कि बात जब प्यार की हो और इससे जुड़ी खुशियों की तो ये संसार मांगने जैसा नहीं है.

लोग पारंपरिक प्यार को महत्व नहीं देते, लेकिन मेरे लिए ये बेहतरीन है.

वैसे मेरा झुकाव लाल बाल वालों की तरफ़ रहा है चाहे वो मिस्टर राइट हो या मिसेज़ राइट.

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