ज्यादातर ‘आंबेडकरवादी’ पार्टियों ने निराश किया है
राष्ट्रीय संदर्भो में प्रकाश आंबेडकर, रामदास अठावले, नामदेव ढसाल, कुमारी मायावाती, राम विलास पासवान और उदितराज जैसे नेता दलित नेतृत्व के रूप में जाने जाते हैं. इनमें नामदेव ढसाल का निधन हो चुका है. रामविलास पासवान और उदितराज भाजपा के साथ हैं. रामदास अठावले लंबे समय से समझौते की राजनीति कर रहे हैं. मायावती भी […]
राष्ट्रीय संदर्भो में प्रकाश आंबेडकर, रामदास अठावले, नामदेव ढसाल, कुमारी मायावाती, राम विलास पासवान और उदितराज जैसे नेता दलित नेतृत्व के रूप में जाने जाते हैं. इनमें नामदेव ढसाल का निधन हो चुका है. रामविलास पासवान और उदितराज भाजपा के साथ हैं. रामदास अठावले लंबे समय से समझौते की राजनीति कर रहे हैं. मायावती भी एक से अधिक बार भाजपा से गठबंधन कर चुकी हैं.
बहुजन महासंघ के प्रकाश अंबेडकर और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के रामदास अठावले का वैचारिक आधार आंबेडकरवाद रहा है. लेकिन इनकी समझौते की राजनीति और आपसी फूट की वजह से आंबेडकरवादी विचारधारा धूमिल हुई है. अब इन दोनों मराठी दलित नेताओं के लिए आंबेडकरवाद से ज्यादा खुद का राजनीतिक वजूद अधिक अहम हो गया है. रामविलास पासवान की पहचान प्रखर दलित नेता की तो रही है, लेकिन पूर्णरूप से आंबेडकरवादी नेता के रूप में कभी उनकी पहचान नहीं बनी. इसीलिए इनके लिए आसान था मोदी से समझौता करना और अपने बचाव में कुतर्क गढ़ना.
अधिकतर लोगों को जानकारी है कि उदित राज का असली नाम रामराज था और ये आइआरएस अधिकारी थे. इन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण के मुद्दे पर राष्ट्रीय परिसंघ बना कर इस वर्ग का पहले विश्वास जीता और फिर अपना नाम रामराज से बदल कर उदितराज कर लिया. फिर राष्ट्रीय स्तर पर बौद्ध धर्मातरण अभियान चलाया और लॉर्ड बुद्धा क्लब की स्थापना भी की. इससे पहले उदितराज बसपा से गहरे स्तर पर जुड़े हुए थे, लेकिन निजी कारणों से, शायद टिकट बंटवारे के मुद्दे पर, कांशीराम के जीवनकाल में ही अनबन हो गयी थी. इसके बाद उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से अभियान चला कर और फिर इंडियन जस्टिस पार्टी की स्थापना कर चुनावी राजनीति में कूद पड़े. जब इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकी, तो आंबेडकरवादी विचारधारा की राजनीति छोड़ कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दामन थामकर मोदी की नाव खेनेवालों में शामिल हो गये. निश्चित तौर पर ऐसे दलित नेतृत्व से आंबेडकरवादी विचारधारा को चोट पहुंची है. ऐसे में आनेवाले दिनों में दलित हितों के लिए खड़े होनेवाले किसी भी नेतृत्व के लिए जनता का भरोसा जीत पाना कठिन हो जायेगा.
बसपा का राजनीतिक सफर इन सब से भिन्न है. कांशीराम द्वारा 1984 में बसपा के गठन के बाद उत्तर भारत की राजनीति में बुनियादी बदलाव आया. बीसवीं सदी के आखिरी दशक में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद पूरे देश में आंबेडकरवादी विचारधारा के रूप में यह पार्टी बहुजन राजनीति का विकल्प बन गयी. इसका असर यह हुआ कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में भी दलित नेताओं का महत्व बढ़ गया और उन्हें भी डॉ आंबेडकर का नाम लेना पड़ा. लेकिन मायावती जैसा विश्वसनीय दलित नेतृत्व दूसरा कोई नहीं बन सका है. बसपा जैसी राजनीतिक पार्टी के सशक्त उभार और बहुजन नायकों, संतों, गुरुओं और डॉ आंबेडकर की विचारधार पर आधारित उनकी राजनीति ने देश की सभी पार्टियों में डॉ आंबेडकर को प्रासंगिक बना दिया. आज हर पार्टी में डॉ आंबेडकर प्रकोष्ठ और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति मोर्चा जैसे आंतरिक संगठन बने हुए हैं.
अब सवाल यह है कि आंबेडकरवादी पार्टी किसे कहा जाये- आंबेडकरवादी विचारधारा आधारित राजनीति को या विभिन्न पार्टियों में डॉ आंबेडकर प्रकोष्ठ पर की जानेवाली राजनीति को? निश्चित तौर पर यह बहुत दुखद है कि महाराष्ट्र के दलित नेतृत्व से लेकर पासवान और उदितराज तक की दलित राजनीति ने दलित वर्ग और उनके हिमायतियों के साथ विश्वासघात किया है. रही बात बसपा की, तो इस पार्टी ने भी भाजपा जैसे दल से गठबंधन कर तीन बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाया और मायावती एक बार नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के लिए गुजरात गयी थीं. लेकिन मायावती ने भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री होते हुए भी बहुजन राजनीति और आंबेडकरवाद से समझौता नहीं किया. एक अहम बात यह भी है कि बसपा ने भाजपा के साथ कभी चुनावी गंठजोड़ का समझौता नहीं किया. बसपा और मायावती द्वारा किया गया सत्ता का गठबंधन हमेशा ही बसपा की शर्तो पर रहा. इस पूरे सच को जाने बिना आंबेडकरवादी राजनीति की प्रासंगिकता को नहीं समझा जा सकता.
डॉ आंबेडकर की विचारधारा को बसपा ने महाराष्ट्र की राजनीति से बाहर लाकर राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर ला दिया. इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर गांधी, हेडगेवार, गोलवरकर, लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि नेताओं के बरक्स ज्यादा प्रासंगिक हो गये. संपूर्ण भारत में दलित आंदोलनों की भूमिका और वैधता अहम हो गयी. खासतौर पर उत्तर भारत में दलित साहित्य लेखन और आंदोलन की जमीन भी सुदृढ़ हुई. इसलिए आंबेडकरवाद की विचारधारा पर केंद्रित बसपा जैसे दल का मूल्यांकन करें तो पायेंगे कि यह पार्टी आज भी आंबेडकर के नाम के साथ उनकी बहुजन राजनीति को ही आगे ले जा रही है. शेष दलित नेतृत्व का हश्र तो हम सबके सामने है. दिनकर सिंह से बातचीत पर आधारित.
डॉ राम चन्द्र
प्राध्यापक,
जेएनयू, नयी दिल्ली