।। के विक्रम राव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव में चौपाये जानवरों की बड़ी चर्चा है. गुजरात के शेर से लेकर सांड़ तक खबर बनते रहे हैं. हालांकि चुनाव में चौपाये जानवरों की कथा बहुत पुरानी है.नेहरू के समय से लेकर आज तक चुनाव में चौपायों की भूमिका पर पढ़ें आज की यह टिप्पणी.
यूपी के चुनाव में आजकल चौपायों की बड़ी चर्चा है. अपने हरीफों के गुण बखानने हेतु राजनेतागण विषेषण के तौर पर इस का प्रभावी प्रयोग कर रहे हैं. यूं भी मुद्दों का टोटा है, तो ये दो-पैर वाले सामाजिक जंतु अपने इर्द-गिर्द हो तो खोज करेंगे. इसी लिए यूपी में सियासी होड़ रुचि कर होती जा रही है. खासकर इस लिए भी कि निर्वाचन आयोग ने रोजाना जारी कर रहे प्रतिबंधों द्वारा चुनाव को नीरस बना दिया है.
पिछले संसदीय मतदानों में होली-दिवाली जैसे उत्सव भरा माहौल रहता था. तब पोस्टर चिपकाते थे, माइक बजता था, प्रभात फेरियां निकलती थीं. स्कूली बच्चों की बन आती थी.
नारेबाजी के शोर में भी द्रुत-ताल में लयभरा संगीत स्वर आरोह पर होता था. शायद इसी लिए आज शुष्कता को कम करने के लिए मीडिया जन के साथ राजनेतागण वाक्द्वंद्व में श्लेषालंकार का इस्तेमाल करते दिखते हैं. हमें आश्वस्त करते हैं कि गणतंत्र अभी गूंगा नहीं हुआ है, भले ही पुलिसिया एफआइआर दर्जनों दायर हों. आयोग आचार संहिता के उल्लंघन की चेतावनी थोक में भेजता हो.
आज यह संयोग नही, स्वाभाविक घटना है कि चुनाव में चौपाये को ठेलने का श्रेय नरेंद्र दामोदरदास मोदी को जाता है. प्रचार के नूतन तरीकों और नयी ऊंचाइयां छू रहे यह भाजपाई पुरोधा ही सूत्रधार हैं कि किस तरह पशु भी प्रचार का पुख्ता माध्यम हो सकता है. एक मीडिया कर्मी ने मोदी से सवाल किया था कि 2002 के हिंदू-मुसलिम दंगों में आपका मर्म दु:खी नहीं था कि इतने निदरेष मारे गये? मोदी का नपा-तुला जवाब भी प्रश्न के तौर पर था. वे बोले, हमें तो पीड़ा होती है जब सड़क पर मेरी मोटर-कार से पिल्ला भी टकरा जाता है. बस मोहम्मद आजम खां ने बतंगड़ बना दिया. मोदी को ही पिल्लों का बड़ा भाई बता दिया. अर्थात श्वान हैं. प्रत्युत्तर उनका आया एक टीवी चैनल पर कि मुङो कुत्ता बनने में गर्व है क्योंकि वह वफादार होता है. मैं भारत के प्रति वफादार हूं. गनीमत थी आजम खान ने फिर वफादारी को परिभाषित करने की मांग नहीं की वरना अंगरेजी राज वाली मुसलिम लीग की बातें दुहराई जातीं. इसके पहले लखनऊ की रैली में भी मोदी दंश मार चुके थे कि यूपी के मुख्यमंत्री ने गिर जंगल के शेर मांगे थे, तो मैंने कहा हमारा विकास माडल भी मांगिए. इस पर छींटा कसा अखिलेश यादव ने कि हमने गुजरात के शेर को बंद कर दिया है. श्रोता इसके जो भी मायने लगायें.
मानो, मोदी को चौपायों से मौका खूब मिल रहा है. लखीमपुर-खीरी में मोदी की रैली के एक दिन पूर्व ही मुलायम सिंह यादव की जनसभा में उनके हेलीकॉप्टर आने के समय एक सांड़ आया. अत: मुलायम सिंह यादव का जहाज आसमान में घूमता रहा, जबतक उसे खदेड़ा नहीं गया.
अगले दिन मोदी ने इसी को वाणी दी. वे बोले : नेताजी (मुलायम सिंह यादव जी) आज जब अपने सांड़ों को नियंत्रित नही कर पाते, तो देश का संचालन कैसे करोगे? इन दोनों के बीच में केंद्रीय मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा आ गये. उन्होंने समाजवादी सरकार को सुझाया कि वह भाजपाई नेता को बकरी भेंट करें ताकि उसका दूध पीकर मोदी कुछ नरम पड़ें. इधर मौके की घात लगाये मोदी ने समाजवादी मुख्यमंत्री को समझाया कि यूपी पुलिस से कहिए कि मुजरिमों को पकड़े, न कि मंत्रीजी (आजम खां) की गुम हुई भैंसों की खोज में वक्त जाया करे.
अब लोकसभाई निर्वाचन के इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्ट गोचर होता है कि प्रथम लोकसभा (1952) के समय से ही ढोर की महती भूमिका सत्ता के गलियारे में रही. उस वक्त हर पार्टी का अलग वोट वाला डब्बा होता था, जिसपर उसका चुनाव चिह्न् लगाया जाता था. निर्वाचन आयोग ने तमाम पार्टियों को मनपसंद निशान दिया. जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी के लिए कंधे पर जुआ ढोते बैलों की जोड़ी की मांग रखी. पर जवाहरलाल नेहरू को यह निशान बड़ा पसंद आया क्योंकि करोड़ों किसानों को आकर्षित करने का यह सरलतम साधन था. निर्वाचन आयोग ने दबंग प्रधानमंत्री की कांग्रेस पार्टी को यह निशान दे दिया. चार लोकसभा निर्वाचनों तक कांग्रेस उसी का उपयोग करती रही. सोशलिस्ट पार्टी को बरगद के पेड़ से संतोष करना पड़ा. तक कहावत सी बन गयी थी कि नेहरू के बैल पांच साल तक जुगाली करते हैं और चुनाव रूपी हरी घास देख कर तुरंत खड़े हो जाते हैं.
जब कांग्रेस के विभाजन (1970) में बैल की जोड़ी का निशान कांग्रेस से छिन गया, तो फिर इंदिरा गांधी ने चौपाया ही पसन्द किया. प्रतिद्वंद्वी संगठन कांग्रेस के अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा को सूत कातती महिलावाला चिह्न् मिला. इंदिरा कांग्रेस ने गाय और बछड़ा वाला निशान पाया. तब उनके विरोधी व्यंग्य करते थे कि बड़ा माकूल चुनाव निशान मिला है. जो मां-बेटे का चतुष्पदी रूप मानते थे. उसी दौर में जनता आंधी में छठी लोकसभा (1977) का आम चुनाव आया. रायबरेली से राजनारायण थे. पड़ोस के अमेठी से जनता पार्टी के जनसंघ घटक के प्रत्याशी थे रवींद्र प्रताप सिंह. कांग्रेस के उम्मीदवार थे इंदिरा गांधी और संजय गांधी. तभी फोन पर राजनारायण ने पूछा रवींद्र प्रताप सिंह से कि बछड़े का क्या हाल है? रवींद्र प्रताप का सुझाव था, गाय को संभालिए, बछड़ा सीधा हो जायेगा.
अगले चुनाव में (सातवीं लोकसभा) भी कांग्रेस टूट गयी थी. कर्नाटक के देवराज अर्स एक के अध्यक्ष थे. तक फिर नया चुनाव निशान आवंटित करना था. इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को इस बार बड़ा चौपाया दिया जा रहा था. हाथी था. मगर वर्तनी परिमाजिर्त हुई और हाथी से बड़ी ई की मात्र कट गयी. वह हाथ हो गया. इसका किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. राष्ट्रीय कांग्रेस के विरोध पर इंदिरा-विरोधी घटक ने गाय-बछड़ा निशान रद्द हो गया. तभी इंदिरा गांधी आंध्र प्रदेश के नेता पीवी नरसिंह राव के साथ दौरे पर थीं. निर्वाचन आयोग का निर्देश आया कि तीन निशान भेजे जा रहे हैं. एक दिन के अंदर कांग्रेस पार्टी अपनी पसंद बता दे. तीन थे हाथी, हाथ और साइकिल. सरदार बूटा सिंह को फोन पर इंदिरा गांधी ने बताया कि उन्होंने हाथ का चिह्न् चुना. पर टेलीफोन पर बूटा सिंह भ्रमित हो गये कि हाथ सही है अथवा हाथी. तंग आकर इंदिरा गांधी ने नरसिंह राव से बूटा सिंह को सही चयन बताने की बात कही. देश विदेश की 15 भाषाओं के जानकार नरसिंह राव ने समझाने का प्रयास किया. पंजाबी बोलनेवाले सरदार जी हाथ और हाथी में भेद नहीं कर पर रहे थे, तो नरसिंह राव ने ठेठ पंजाबी में सरदार जी से कहा पंजा कांग्रेस की पसंद है. सरदार जी सरलता से समझ गये वरना एक बार फिर कांग्रेस को चौपाया ही मिलता. तब मायावती हाथी की सवारी से वंचित रह जाती.
कुछ इतिहासवेत्ता बताते हैं कि विश्व की संसदों की मां ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस में भी जब भारत को आजादी देने का प्रस्ताव आ रहा था, तो भी चौपाये का उल्लेख हुआ था. कंजर्वेटिव पार्टी के सांसद और नेता, विपक्ष सर विंस्टन चर्चिल भारत पर ब्रिटिश कब्जा बनाये रखने के पक्ष में थे, जब वे सत्ता पर थे तो उन्होंने चीख कर कहा भी था, ब्रिटिश साम्राज्य का दिवाला निकालने के लिए मैं प्रधानमंत्री नहीं बना हूं. ब्रिटिश मुकुट का सबसे कीमती नग है भारत. मगर लेबर (सोशलिस्ट पार्टी) के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने भारत की स्वतंत्रता देने का अधिनियम संसद में पेश किया. तब चर्चिल ने कहा था कि यह कायर प्रधानमंत्री भेड़ की खाल में भेड़ है. खुद चर्चिल भेड़िये की भांति गुर्रा रहे थे. लेकिन यूपी के चुनाव मे चर्चित चौपायों में भेड़िया नहीं, शेर बबर है, तो मिमियाती बकरी भी. वफादार श्वान तो है ही.