लोकसभा चुनाव : क्या सोचते हैं विदेशी मूल के मतदाता
लोग दुनिया के एक कोने से जाकर दूसरे कोने में बसेरा करते रहे हैं और वहीं के होकर रह जाते हैं. भारत में भी लगभग दो लाख विदेशी मूल के लोग अब यहीं के नागरिक हैं, जो भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व में भी बराबर के भागीदार हैं. चुनाव को लेकर इन लोगों की भावनाओं […]
लोग दुनिया के एक कोने से जाकर दूसरे कोने में बसेरा करते रहे हैं और वहीं के होकर रह जाते हैं. भारत में भी लगभग दो लाख विदेशी मूल के लोग अब यहीं के नागरिक हैं, जो भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व में भी बराबर के भागीदार हैं. चुनाव को लेकर इन लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं से रूबरू करा रहे हैं विवेक शुक्ला…
जब लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान तमाम नेता एक-दूसरे को बाहरी उम्मीदवार होने की तोहमत लगा रहे हैं, तब बहुत से बाहरी या कहें कि विदेशी मूल के भारतीय नागरिक हमारे लोकतंत्र के उत्सव को लेकर बेहद उत्साहित हैं. इनका संबंध चीन, तिब्बत, जापान, ब्रिटेन आदि देशों से है. एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में इस तरह के भारतीयों की तादाद दो लाख के करीब हो सकती है. हालांकि सही-सही आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका. इनमें चीनी व तिब्बती मूल के भारतीयों की तादाद अधिक है.
वैसे, विदेशी मूल के भारतीयों में सभी खास देशों के नागरिक हैं. हालांकि भारतीय मूल के लोग करीब एक-डेढ़ दर्जन देशों में सांसद से लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक हैं. इनमें मलयेशिया, मारीशस, त्रिनिदाद, गुयाना, केन्या, फीजी, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा शामिल हैं. गुयाना में 60 के दशक में भारतीय मूल के छेदी जगन राष्ट्रपति बने थे. उसके बाद तो शिवसागर राम गुलाम (मारीशस), नवीन राम गुलाम (मारीशस), महेंद्र चौधरी (फीजी), वासुदेव पांडे (त्रिनिदाद), एस रामनाथन (सिंगापुर) सरीखे भारतवंशी विभिन्न देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनते रहे.
भारत में कब कोई विदेशी मूल का शख्स राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनता है, इसकी फिलहाल उम्मीद बहुत कम है. हां, कुछ साल पहले सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पैदा हुई थी. पर, तब जम कर हंगामा मच गया था. केन्या की संसद में नामित सदस्य सोनिया विरदी कहती हैं कि उन्हें जब संसद के लिए नामित किया गया, तो समूचे अफ्रीका का भारतीय समाज खुश था. मैं केन्या में सामाजिक कामों से जुड़ी हुई हूं. मेरे काम को देख कर ही मुझे संसद में भेजा गया. भारत में बसे विदेशी मूल के बहुत से नागरिक उन हिंदुस्तानियों में से हैं, जो वोट बैंक नहीं बन सके हैं. इन्होंने या तो भारत की नागरिकता ले ली है या फिर भारत में जन्म लेने के कारण इन्हें नागरिकता स्वाभाविक रूप से मिल गयी है.
इनमें से कइयों के पुरखे या माता-पिता भारत आ गये थे. ये यहां पर रोजगार की तलाश में या भारत को करीब से जानने-समझने के लिए आये थे. एक बार यहां आये तो फिर यहीं के हो गये. अगर इस चुनाव में आपके साथ कोई विदेशी-सा दिखनेवाला इंसान भी मतदान कर रहा हो, तो हैरान मत होइए. हो सकता है कि वह आपकी-हमारी तरह से हिंदुस्तानी ना हो, पर वह भी भारत का नागरिक है. आइये, मिलते हैं कुछ विदेशी मूल के हिंदुस्तानियों से जो दे रहे हैं अपना वोट…
* मतदाताओं से समझदारी की उम्मीद है
।। कात्सू सान ।।
75, जापान
कात्सू लोकसभा चुनावों को लेकर उत्साहित हैं. वे मूलत: जापानी हैं और 1956 में भारत आ गयी थीं. उनका मन था कि भारत को करीब से देखा-समझा जाये. भारत को लेकर उनकी दिलचस्पी बौद्ध धर्म के कारण प्रबल हुई. आप उनसे अंगरेजी में संवाद करते हैं, तो उनका जवाब हिंदी में मिलता है. आंखें शर्म से झुक जाती हैं उनकी हिंदी को सुन कर. कात्सू बताती हैं कि उन्होंने हिंदी काका साहेब कालेलकर से सीखी. उन्होंने करीब 20 साल पहले भारत की नागरिकता ले ली थी. अब एक बौद्ध विहार से जुड़ी हैं. वे कैसी सरकार चाहती हैं, इस पर कात्सू कहती हैं, भारत के किसी भी नागरिक की तरह मेरी भी इच्छा है कि देश का नेतृत्व उन नेताओं के हाथों में आये, जो अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के प्रति गंभीर हो. उनमें भारत के दीन-हीन के सवालों को लेकर भी संवेदनशीलता हो. मेरा मत है कि जब देश को इस तरह के नेता मिलेंगे, तो ही देश में सुख और समृद्धि आयेगी. समाज आनंद से जीवन जी सकेगा. मुझे उम्मीद है कि देश के मतदाता समझदारी से वोट देकर बेहतर लोगों को संसद में भेजेंगे.
* सरकारी विभागों में सुधार जरूरी
।। रस्किन बॉन्ड ।।
77, ब्रिटेन
मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड को आप जानते होंगे. क्या आप उन्हें अपना नहीं मानेंगे! बॉन्ड भी मसूरी में अपना वोट देंगे. वे कहते हैं कि मैंने कभी माना ही नहीं कि मैं हिंदुस्तानी नहीं हूं. जब भारत आजाद हुआ, तो यहां पर रहनेवाले ब्रिटिश और यूरोप के नागरिकों ने इधर से जाना शुरू कर दिया. मेरी उस वक्त उम्र 12 साल थी. मैं भी अपनी मां के साथ इंग्लैंड लौट गया. लेकिन, मुझे देहरादून और मसूरी याद आने लगे. मेरे लिए होम सिक्नेस वाली स्थिति पैदा हो गयी. यानी जिसे मुझे मेरा देश बताया जा रहा था, वहां पर मेरे लिए एक दिन भी रहना मुश्किल हो रहा था. रस्किन चुनावों को लेकर दिलचस्पी ले रहे हैं. उनकी चाहत है कि सभी दल अपने घोषणापत्र को लागू भी करें. वे कहते हैं, भारत में लगातार बड़े बदलाव हो रहे हैं. लोगों में साक्षर होने की इच्छा पहले से कहीं ज्यादा हो गयी है. मिडिल क्लास विस्फोट हुआ ही है. 1950 में मसूरी में गिनती की कारें थीं, अब हजारों कारें हैं. अब भारतीयों की अपेक्षाएं व आकांक्षाएं आसमान छू रही हैं. सरकारी दफ्तरों में कामकाज की गति से बीच-बीच में कुंठा अवश्य होती है. बिजली विभाग और दूसरे सरकारी महकमों के कामकाज के काहिल रवैये में सुधार मुमकिन है. इस मोरचे पर नयी सरकार को बेहतर काम करके दिखाना होगा.
* छत और रोजगार की आशा
।। केरटिन सिरिंग ।।
36, तिब्बत
केरटिन को उम्मीद है कि जो भी देश में सरकार बनेगी, वह तिब्बतियों के हक की बात करेगी. केरटिन राजधानी दिल्ली के मजनूं का टीला में रहते हैं. वे कपड़ों का कारोबार करते हैं और यहां तिब्बती शरणार्थी समाज का नेता होने का दावा करते हैं. वे बताते हैं कि जिन तिब्बतियों का जन्म भारत में हुआ है, उनके पास भारत की नागरिकता है. विधानसभा से लेकर लोकसभा तक वे वोट देते हैं. वैसे, वे कहते हैं कि भारत की सभी सरकारों ने हमारे हितों को देखा और समझा है. उनके क्षेत्र में कांग्रेस के विधायक हैं. वे कहते हैं कि हमारे लिए तो कांग्रेस के विधायक और सांसद भी ठीक रहे. चुनावों के बाद अगर भाजपा की सरकार बनी, तो हमें पूरा यकीन है कि वह भी हमारे हितों का ध्यान रखेगी. नयी सरकार से क्या उम्मीदें हैं, इस सवाल पर वे कहते हैं कि हम चाहते हैं कि हमें छत मिल जाये. रोजगार के अवसर बढ़ जायें. लेकिन, उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं है कि महंगाई घटेगी. उनका तर्क है कि महंगाई बढ़ने के बाद कभी नहीं घट सकती.
* सबका भला होगा तो हमारा भी भला हो जायेगा
।। जार्ज च्यू ।।
64, चीन
दिल्ली में अपने शो-रूम में बैठ कर अखबारों की सुर्खियों पर नजर डाल रहे हैं. घर में भी अखबार पढ़ कर आये थे. पर, चुनावी हलचल को और जानने की ख्वाहिश है. जार्ज च्यू यह बताने को तैयार नहीं हैं कि वे किसे वोट देंगे. उन्हें इस बात का गिला भी नहीं है कि वे या उनका चीनी समाज वोट बैंक नहीं माना-समझा जाता. उनसे कोई नेता या राजनीतिक दल वोट भी नहीं मांगता. च्यू दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल के चीनी हैं. उनके पिता 1930 के आसपास चीन के कैंटोन प्रांत से स्टीमर से कलकत्ता पहुंचे थे. उसके बाद दिल्ली आ गये. उन्होंने यहां पर जूतों की दुकान खोली. जार्ज बताते हैं कि वे मूलत: और अंतत: गैर-राजनीतिक इंसान हैं. अपने कारोबार से ही जुड़े रहते हैं. पर, चुनाव के मौसम में उन्हें पार्टियों के घोषणापत्रों को जानने की जिज्ञासा रहती है. महंगाई डायन सबको खा रही है. पर इस सवाल पर उनकी राय कुछ अलग है. वे कहते हैं कि मुद्रास्फीति बढ़ना अच्छी बात है. उनका तर्क है कि जब आपके घर का दाम दो साल में 50 लाख रुपये से एक करोड़ रुपये हो जाता है, तो आप खुश होते हैं. पर, आलू 20 रुपये किलो से 30 रुपये किलो हो जाता है, तो हंगामा मचना शुरू हो जाता है. उन्हें इस बात का अफसोस नहीं है कि उनका समाज किसी भी दल के लिए वोट बैंक नहीं है. उनकी बात कोई भी दल अपने घोषणापत्र में नहीं करता. वे तो कहते हैं कि अगर देश के नेता सबका सोचेंगे, तो उसमें हमारा भी भला हो जायेगा.