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समाजवाद की संभावना थे सुनील

।। अरुण कुमार त्रिपाठी ।। न तो बौद्धिकता का अहंकार था, न ही अपनी सादगी का घमंड सुनील भाई से जब भी मिला, जहां भी मिला उन्हें एक जैसा ही पाया. वे रंग बदलनेवाले और रंग दिखानेवाले समाजवादी नहीं थे. उन्हें देख कर और याद कर मुक्तिबोध की बौद्धिकों पर व्यंग्य में की कही गयी […]

।। अरुण कुमार त्रिपाठी ।।

न तो बौद्धिकता का अहंकार था, न ही अपनी सादगी का घमंड

सुनील भाई से जब भी मिला, जहां भी मिला उन्हें एक जैसा ही पाया. वे रंग बदलनेवाले और रंग दिखानेवाले समाजवादी नहीं थे. उन्हें देख कर और याद कर मुक्तिबोध की बौद्धिकों पर व्यंग्य में की कही गयी कविता की पंक्तियां पलट कर कहने का मन करता है.

मुक्तिबोध ने आज के बुद्धिजीवियों के लिए कहा था- ‘उदरंभरि अनात्म बन गये, भूतों की शादी में कनात से तन गये, लिया बहुत ज्यादा दिया बहुत कम.’ लेकिन अगर मुक्तिबोध सुनील भाई को देखते तो कहते- ‘दिया बहुत ज्यादा लिया बहुत कम.’ मैं नहीं कह सकता कि भारत में समाजवाद कब आयेगा और क्या कभी आयेगा भी, लेकिन सुनील को देख कर लगता था कि वह जरूर आयेगा और बेहद निश्छल होगा.

उसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होगा. उसे न तो अपनी बौद्धिकता का अहंकार होगा और न ही अपनी सादगी का घमंड. उसे न ही कुछ खोने की चिंता होगी और न ही किसी भी कीमत पर तरक्की करने की सनक. सुनील से जब भी मिलता था तो एक पत्रकार के नाते मैं छिद्रान्वेषण करता रहता था. मैं चाहता था कि उनमें कोई न कोई कमी ढूंढ़ निकालूं. पर मैं उनमें वैसी कोई कमी नहीं पाता था जो आमतौर पर समाजवादियों के बारे में बतायी जाती है- ईष्र्या, द्वेष, परनिंदा, तोड़फोड़, पाखंड, ऊपर से विनम्रता का आवरण और भीतर से अहंकार की तनी हुई बरछियां, यह सब कुछ नहीं था सुनील में. शायद यही कारण है कि वे सत्ता की राजनीति में सफल नहीं हो सके. पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. वे संगठन और आंदोलन के व्यक्ति थे. वे वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन के स्तंभ थे और आदिवासियों के अपने साथी थे.

डेढ़ साल पहले जब उनके घर केसला गया तो लगा ही नहीं कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग को टॉप करके निकले किसी व्यक्ति से मिलने जा रहा हूं. जेएनयू से अगर उन्होंने कुछ लिया था तो बस समाज का विेषण करने का औजार. डिग्री को तो वे कब का भुला चुके थे. मंगलवार को जब लोधी रोड स्थित श्मशान में उनकी अंत्येष्टि पर कथित आम आदमी पार्टी से लेकर जेएनयू और दिल्ली के एनजीओ दायरे के एलीट उमड़ पड़े तो लगा ही नहीं कि यह उन सुनील की अंत्येष्टि है, जो केसला में आदिवासियों के बीच रहते थे और सिद्धांत पर आदिवासी जीवन की शान चढ़ाये हुए थे.

सचमुच सुनील महानगरों के अंगरेजीदां बौद्धिकों के व्यक्ति थे नहीं. वे उनके लिए इतने ही थे कि एक बौद्धिक विश्वमानव के तौर पर वे भी उनके हिस्से थे. पर न तो उनकी जीवनशैली उनकी थी और न ही विमर्श की. सचुमच सुनील की अंत्येष्टि में आदिवासियों को न पाकर एक खालीपन भी लगा.

जेएनयू दो तरह के लोग पैदा करता है. एक वे जो बौद्धिक स्तर पर आम जनता और तीसरी दुनिया के करीब रहते हैं और भौतिक स्तर पर यूरोप और अमेरिका की गलियों में विचरण करते हैं. दूसरे वे जो सिर्फ क्रांति के नारे ही नहीं लगाते, बल्कि अपने जीवन में सारी अभिजात्यता छोड़ कर सर्वहारा वर्ग से अपना नाता जोड़ लेते हैं. सुनील चंद्रशेखर की तरह दूसरी श्रेणी के लोगों में थे, इसीलिए मैं उन्हें उस जेएनयू क्लब का सदस्य नहीं मानता, जो नौकरशाही, राजनीति और अकादमिक जगत में एक दूसरे की मदद करता रहता है.

सुनील के केसला स्थित घर पहुंच कर ऐसा लगा जैसे किसी आदिवासी के ही घर में आये हैं. वह थोड़ा पक्का जरूर है, लेकिन उसमें फागराम, गुलिया बाई या मोहल्ले की दूसरी औरतों और पुरुषों का उसी सहजता से आना-जाना था, जिस सहजता से वहां कोलकाता से चल कर अशोक सेक्सरिया आकर ठहरे थे, या मुजफ्फरपुर से आकर सच्चिदानंद सिन्हा ठहरे थे. उनके घर जाकर और उनसे चर्चा करके उन तमाम स्थलों को देखने का मौका मिला, जहां उन्होंने आंदोलन किये थे और आदिवासी स्वशासन के सपने देखे थे.

केसला गांव से पहले की धरना-प्रदर्शन वाली पुलिया, सड़क के उस पार का वह पंचायत भवन और वहां बैठकें करते फागराम व अन्य साथी, वह सब सुनील के उन संघर्षो की याद दिलाते थे जो उन्होंने अपने कृशकाय और साधनहीनता के बावजूद चलाये थे. जिस तवा मत्स्य सहकारी मछुआ संघ के माध्यम से उन्होंने मछुआरों को आत्मनिर्भरता दिलायी थी, उसे सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था. पर उनके प्रयोग की गूंज पूरे राज्य में थी.

जिन्होंने भी देखा होगा उन्हें ‘द वीक’ पत्रिका की वह आवरण कथा याद होगी, जिसमें सुनील भाई की तसवीर कवर पेज पर थी. आमतौर पर ऐसा होता है कि जिसकी तसवीर ‘द वीक’ में कवर पर होती है, उसे अगले साल मैग्सेसे पुरस्कार मिल ही जाता है. उनकी तसवीर देख कर कई साथियों ने यह कयास लगाना शुरू कर दिया था कि अब उन्हें भी मिलनेवाला है. पर वे तो और मिट्टी के बने थे. उन्हें साम्राज्यवादी ताकतों का पुरस्कार लेकर अपने को ‘गौरवान्वित’ नहीं करना था और न ही एनजीओ के क्लब में शामिल होकर अपनी रफ्तार बढ़ानी थी. वे उदारीकरण के साथ शुरू हुए वैश्वीकरण के दृढ़ विरोधी थे और उसमें किसी तरह की मिलावट या समझौता करना पसंद नहीं करते थे.

किशन पटनायक द्वारा स्थापित समता संगठन, समाजवादी जन परिषद और फिर पत्रिका ‘सामयिक वार्ता’ यही सब उनके परिवार और उनकी उपलब्धियां थीं और उनके लिए जान से भी प्यारी थीं. इसी दौरान वे अपने जैविक परिवार की जिम्मेदारियां भी निभाते थे, पर पहलेवाले से ज्यादा नहीं.

सचमुच वह पत्रिका इस देश के जन अर्थशास्त्री के हाथों उसके आखिरी दिनों में सीचा जानेवाला विरवा था. वे उसे इटारसी लेकर गये और बाबा मायाराम, कश्मीर उप्पल के साथ मिल कर दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और देश के दूसरे शहरों और कस्बों के प्रबुद्ध व समर्पित पाठकों के लिए निकालने में लगे थे. उन्हें पक्षाघात भी उस पत्रिका का संपादकीय लिखते समय ही हुआ.

हालांकि उससे पहले वे लैटिन अमेरिका जैसे देशों में समाजवाद की स्थिति पर अच्छा अंक निकाल चुके थे. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का भी उन्होंने अच्छा विेषण किया था. दो साल पहले जब देश में चालू खाते का संकट बना और डॉलर के मुकाबले रुपया काफी नीचे जाने लगा, तो भी सुनील भाई ने सोने के आयात और मुद्रा संकट पर बेहरीन विश्लेषण कर अच्छा सुझाव प्रस्तुत किया था.

सहज और सरल दिखनेवाले सुनील अपने विचारों में दृढ़ थे. विधानसभा चुनावों के बाद जब उन्हें ‘आप’ के समर्थन में एक लेख भेजा, तो उन्होंने विनम्रता से इनकार कर दिया. हालांकि बातचीत में वे ‘आप’ के उतने आलोचक नहीं थे.

सुनील भाई ने अपने विचार और राजनीतिक कर्म के लिए जो औजार बनाये वे कमजोर पड़ रहे थे. इसका उन्हें दुख था. जहां सामयिक वार्ता निकालने में उन्हें परेशानी आ रही थी, वहीं उनके राजनीतिक दल ‘समाजवादी जन परिषद’ से एक-एक कर सारे महत्वपूर्ण साथी छोड़ कर ‘आप’ में जा रहे थे. सुनील किसी को रोक नहीं सके और उन साथियों से साल भर से संपर्क टूट गया था, जिनके साथ उन्होंने किशन पटनायक के नेतृत्व में बड़े-बड़े सपने देखे थे.

उन्होंने मुङो झमाझम बारिश में इटारसी स्टेशन पर विदा करते हुए कहा था कि हम लोग देश भर का दौरा करेंगे और समाजवादी विचारों को फैलायेंगे. तब ‘आप’ का प्रयोग नहीं शुरू हुआ था और उन्हें लगता था कि देश में अपने विचारों को लेकर बहुत सारे समर्पित लोग हैं और उन्हें जोड़ा और आंदोलित किया जा सकता है. लेकिन जब सितंबर 2013 में उन्होंने मुजफ्फरपुर चलने का आग्रह किया तो मैं किन्हीं व्यक्तिगत कारणों के चलते समय नहीं निकाल पाया. शायद उन्हें वह भी बुरा लगा होगा, पर उन्होंने व्यक्त नहीं किया.

इस भौतिकवादी युग में सुनील ने वह सब कुछ त्यागा था, जिसे मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए त्यागना आसान नहीं होता, पर साथियों की पूंजी उन्हें बड़ी ताकत देती थी. इसी पूंजी के बूते पर साधनविहीन सुनील वैश्वीकरण से भी लड़ने की हिम्मत रखते थे. वे सचमुच वैश्वीकरण के विरुद्ध स्थानीयकरण का प्रयोग कर रहे थे. उनके तमाम साथी भले ‘आप’ में चले गये, लेकिन यह सच्चा आम आदमी समाजवादी जनपरिषद में ही रहा. जाहिर है वह अपने को खास नहीं बनाना चाहता था और न ही असली आम आदमी का साथ छोड़ने को तैयार था.

सुनील देश भर के समाजवादियों के सामने एक आदर्श जीवन का उदाहरण छोड़ गये हैं. उनके सपने आज भले धुंधले दिख रहे हों, लेकिन वे ऐसे अलाव हैं जो बुझने की बजाय समय के साथ और धधकेंगे. सुनील अपने छोटे से जीवन में एक पूरी पीढ़ी को बहुत कुछ देकर गये हैं, जिनका विश्लेषण और मूल्यांकन अभी किया जाना है.

इस भौतिकवादी युग में सुनील ने वह सब कुछ त्यागा था, जिसे मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए त्यागना आसान नहीं होता, पर साथियों की पूंजी उन्हें बड़ी ताकत देती थी. इसी पूंजी के बूते पर साधनविहीन सुनील वैश्वीकरण से भी लड़ने की हिम्मत रखते थे.

वे सचमुच वैश्वीकरण के विरुद्ध स्थानीयकरण का प्रयोग कर रहे थे. उनके तमाम साथी भले ‘आप’ में चले गये, लेकिन यह सच्चा आम आदमी समाजवादी जनपरिषद में ही रहा. जाहिर है वह अपने को खास नहीं बनाना चाहता था और न ही असली आम आदमी का साथ छोड़ने को तैयार था.

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री,समाजवादी युवजन परिषद के महासचिव व सामयिक वार्ता के संपादक सुनील भाई (54) का निधन सोमवार की रात एम्स में हो गया. उनका अंतिम संस्कार लोधी रोड स्थित श्मशान घाट पर मंगलवार को किया गया.

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