जर्मनी के बॉन शहर से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक जंगल है- हमबख. आज यह जंगल खत्म होने की कगार पर है. वजह है, करीब 84 वर्ग किलोमीटर में फैली कोयले की खदान, जिसे भूरा कोयला की यूरोप की सबसे बड़ी खदान कहा जाता है. यहां से सालाना करीब चार करोड़ टन कोयला निकाला जा रहा है. खबरों के अनुसार, जर्मनी की दूसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी आरडब्ल्यूइ इस जंगल से भूरा कोयला निकालने में जुटी है. कोयले के लिए जंगल का 90 प्रतिशत भाग काटा जा चुका है और करीब 1,50,000 लोगों को पलायन होने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इस कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन में किया जाता है. उत्पादित बिजली का ज्यादातर हिस्सा निर्यात कर दिया जाता है. वास्तव में जर्मनी अपने उपयोग के लिए ऊर्जा का उत्पादन अन्य वैकल्पिक स्रोतों से करता है. यानी अगर जर्मनी चाहे तो वह कोयले के इस्तेमाल को कम कर सकता है. यह भी कम चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि पर्यावरण को बचाने के लिए पूरी दुनिया को नसीहत देने वाला जर्मनी पूरे यूरोप का 20 प्रतिशत कार्बन अकेले उत्सर्जित करता है.
बॉन से कुछ किलोमीटर दूर मुट्ठी भर लोग धरती के सबसे पुराने जंगलों में से एक ‘हमबख’ को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. जंगल को कटने से बचाने के लिए इन लोगों ने पेड़ों पर ही अपने घर बना लिये हैं. एक आंदोलनकारी ने कहा कि इस तरह मचान बनाने का मकसद पेड़ों को कटने से बचाना है. जब तक इस पेड़ पर कोई आदमी चढ़ा रहेगा, इसे काटा नहीं जा सकता. प्रदर्शनकारियों ने पुलिस और माइनिंग कंपनी के लोगों को भीतर घुसने से रोकने के लिए जंगल में प्रवेश करने वाली सड़कों को काट दिया है. प्रवेश के रास्ते पर एक बैनर टांगा गया है, जिस पर लिखा है – ‘रेस्पेक्ट एक्जिस्टेंस ऑर एक्सपेक्ट रेजिस्टेंस’ यानी लोगों की जिंदगी का सम्मान करो, वरना विरोध का सामना करो. इसी के साथ एक क्रॉस पर जीसस की तस्वीर लगायी गयी है. विरोध करने वालों का मकसद लोगों को जंगल काटने से रोकने और पुलिस को जंगल में आने से रोकना है. हालांकि, प्रदर्शनकारियों के ऊपर पुलिस दमन का खतरा हर वक्त मंडराता रहता है. उनके कई साथियों को जेल में बंद कर दिया गया है.
ये प्रदर्शनकारी किसी से बात करते वक्त अपने चेहरे का ढक कर रखते हैं, ताकि अपनी पहचान छुपायी जा सके. इनमें से एक ने बताया कि बिजली बनाने वाली जर्मनी की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी आरडब्ल्यूइ यूरोप के सबसे पुराने जंगल को भूरा कोयला के खनन के लिए खत्म कर रही है. लोगों को अपने घरों से हटाया जा रहा है. हमबख के जंगलों का 90 प्रतिशत हिस्सा काटा जा चुका है. आंदोलनकारी कहते हैं, हम दुआ करते हैं कि इस क्षेत्र में आनेवाला ड्राइवर ईसाई हो और यीशू की तस्वीर को तोड़कर गाड़ी ले जाने से वह मना कर दे. प्रदर्शनकारी पर्यावरण प्रेमी सिर्फ जर्मनी से ही नहीं, बल्कि इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, इटली और स्पेन के भी हैं. यहां जो जंगल बचा है, उसे इन्होंने अपना घर बना लिया है और पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. एक आंदोलनकारी ने कहा, यह एक जंगल को बचाने की लड़ाई नहीं है. हम एक ऐसे हालात से लड़ रहे हैं, जहां बिजली बनाने के लिए लिग्नाइट का इस्तेमाल रोका जा सके. हम जलवायु परिवर्तन को गलत मानते हैं.
क्रिश्चियन एड के राम किशन भी इस आंदोलन से जुड़े हैं. वे कहते हैं कि मैं दुनिया के तमाम देशों में यह देख चुका हूं कि खनिजों की लूट के लिए सरकार और कंपनियां पर्यावरण की परवाह नहीं करतीं और स्थानीय लोगों को धोखा देती हैं. वे इस इलाके के लोगों की उपेक्षा करते हैं. शांतिपूर्ण संघर्ष की अनदेखी खतरनाक हो सकती है. यह अंतत: अशांति का रास्ता तैयार करता है.
उत्तराखंड से शुरू हुआ था चिपको आंदोलन
1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में जंगलों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी. पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट तथा गौरादेवी के नेतृत्व में शुरू हुआ आंदोलन एक दशक के अंदर पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में फैल गया. इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था. 1974 में उत्तराखंड के रैंणी गांव में सड़क निर्माण के लिए 2451 पेड़ों के काटने के आदेश के खिलाफ 23 मार्च को आयोजित महिलाओं की रैली का नेतृत्व गौरा देवी कर रही थीं. ठेकेदार और वन विभाग के लोगों ने उन्हें धमकाया, गिरफ्तार करने की धमकी दी, लेकिन महिलाएं अडिग रहीं. गौरा देवी के आह्वान पर सभी महिलाएं पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गयीं.