नज़रिया: क्या नरेंद्र मोदी ने आख़िरी दांव शुरुआत में ही चल दिया?
INDRANIL MUKHERJEE/AFP/GETTY IMAGES गुजरात चुनाव बीजेपी के लिए साख का सवाल बन गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद चुनावी प्रचार में जुटे हैं. एक दिन में कई रैलियां कर रहे हैं. हालांकि इसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है. आरोप लग रहे हैं कि चुनाव के चलते संसद के सत्र में देरी की जा […]
गुजरात चुनाव बीजेपी के लिए साख का सवाल बन गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद चुनावी प्रचार में जुटे हैं. एक दिन में कई रैलियां कर रहे हैं.
हालांकि इसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है. आरोप लग रहे हैं कि चुनाव के चलते संसद के सत्र में देरी की जा रही है.
प्रधानमंत्री की भाषा और भाषण पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. अपनी पहली ही रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने ग़रीब पृष्ठभूमि की बात कही. उन्होंने रैली में ख़ुद को गुजरात का बेटा भी कहा.
मोदी एक दशक से ज़्यादा समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं. क्या इस चुनाव में उन्हें ज़्यादा मेहनत करनी पड़ रही है?
बीबीसी ने इस मामले में वरिष्ठ पत्रकार आर के मिश्रा से बात की और उनसे पूछा कि 22 साल से गुजरात में राज कर रही भारतीय जनता पार्टी क्या इस बार आशंकित है? उनका आकलन उन्हीं के शब्दों में पढ़िए-
ग़रीबी नरेंद्र मोदी का तुरुप का इक्का था. मैं ये मानता था कि वे इसे आख़िरी 72 घंटे में आज़माएंगे. वे अपील करेंगे कि ‘मैं एक चाय वाला था, आप लोगों ने मुझे यहां तक पहुंचाया, आप ही ने मुझे मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनाया, अब यह आपकी इज़्ज़त का सवाल है.’
उन्होंने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत ही इससे की, जो ज़ाहिर करता है कि भारतीय जनता पार्टी में कुछ क़िस्म की खलबली ज़रूर है.
जैसा रिस्पॉन्स यहां कांग्रेस, ख़ास तौर पर राहुल गांधी को मिल रहा है. पिछले छह महीनों में बीजेपी ने जो भी अभियान चलाए उसे वैसी तवज्जो नहीं मिली जैसी वो उम्मीद कर रही थी. इसलिए मुझे लगता है कि यह सब चीज़ें आने वाले समय में और तीखी होंगी.
गुजरात में बीजेपी ने इतनी बड़ी ‘फ़ौज’ क्यों उतारी?
‘फ़ैक्ट्स में फ़िक्शन मिलाया जा रहा है‘
प्रधानमंत्री के स्तर पर जब कुछ कहा जाता है तो वह गंभीर बात हो जाती है. लेकिन इस वक़्त बहुत सी चीज़ें जो सच नहीं हैं, वो भी साथ में मिलाई जा रही हैं. फ़ैक्ट्स को फ़िक्शन के साथ जोड़ा जा रहा है.
मोदी कहते हैं कि वो गुजरात के बेटे हैं और कांग्रेस उनके साथ इस किस्म का बर्ताव कर रही है. इस तरीक़े से देखा जाए तो राहुल गांधी के दादा जी भी तो गुजरात के ही हैं.
वे इतिहास को अपने तरीक़े से मोड़ रहे हैं. अब जैसे केशुभाई को हटाने में कांग्रेस का क्या रोल था? उन्हें तो वाघेला ने हटाया जो बीजेपी के साथ थे. जब समझौता हुआ तो वाघेला ने शर्त रखी थी कि मोदी को गुजरात से हटा दिया जाए.
मोदी का आक्रामक प्रचार और वोटकटवा चालें
‘सच को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है‘
मोदी जी ने चिमनभाई पटेल को भी इसमें लपेट दिया, लेकिन चिमनभाई को हटाने की जो मुहिम थी, उसमें जनसंघ की भारी भूमिका थी.
मैं यह नहीं कहूंगा कि वो झूठ बोल रहे हैं, लेकिन वो इतिहास की ग़लत व्याख्या कर रहे हैं और ग़लत मोड़ दे रहे हैं.
वे ग़रीबी को एक ‘बैज ऑफ़ ऑनर’ की तरह पहनकर बाक़ी लोगों को ग़लत बता रहे हैं, लेकिन क्या लालबहादुर शास्त्री रईसज़ादे थे? और जो गुजरात के नेता कांग्रेस से लड़ रहे हैं, क्या वो गुजरात के पुत्र नहीं हैं?
न कांग्रेस के न भाजपा के, तो किसके हैं वाघेला?
‘गुजरात में ऐसी भाषा कभी इस्तेमाल नहीं की गई‘
गुजरात में हमेशा भाषा का विवेक रहा है. प्रधानमंत्री तो बहुत ही अलग लेवल हो जाता है, लेकिन मुख्यमंत्री या उनके नीचे के मंत्रियों के स्तर पर भी हमेशा भाषा का विवेक रहा है.
नेताओं के बीच सामान्य बातचीत या विरोधियों के लिए भी हमेशा आदर-सत्कार रहा है. मैंने तो पिछले 50 साल में गुजरात के इतिहास में इस क़िस्म की राजनीति या ऐसे मुद्दा बनते नहीं देखा.
यह निचले दर्जे़ की सियासत है. ऐसा दिखाया जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ही अकेली राष्ट्रवादी पार्टी है और बाक़ी जो भी पार्टियां बीजेपी के सामने खड़ी हैं वो राष्ट्रविरोधी हैं.
ये किस क़िस्म की राजनीति है? आप चुनाव में मुद्दे लेकर जाते हैं, लेकिन वे निजी मुद्दों पर जा रहे हैं. कहते हैं ‘मैं चाय बेचता था, ग़रीब था.’ क्या बीजेपी के सारे नेता अमीर थे?
ऐसी बातें करके पूरी राजनीतिक बहस की गंभीरता को ख़त्म कर रहे हैं.
वे राहुल गांधी को मंदिर में मत्था टेकने पर हमला करते हैं, लेकिन वे भी तो मौलवियों को कैम्पेनिंग के लिए ला रहे हैं.
गुजरात चुनाव और मंदिर में राहुल गांधी!
‘मोदी जी ने अकेले नहीं किया विकास‘
गुजरात के जिस विकास की बात होती है तो उसका क्रेडिट मोदी जी अकेले नहीं ले सकते. गुजरात में तरक्की गुजरातियों की वजह से हुई है.
हर सरकार ने राज्य को आगे ले जाने के लिए मेहनत की है. पहला टोल रोड गुजरात में आया जो माधोसिंह सोलंकी के समय में आया.
पहला सरकारी इंडस्ट्रियल एस्टेट मनुभाईशाह के समय में आया जब वे केंद्रीय मंत्री थे.
गुजरात एक प्रगतिशील राज्य है. वहां के विकास को प्रोजेक्ट करके मोदी साहब प्रधानमंत्री बन गए. बड़ी तगड़ी पब्लिसिटी की गई. ग्लोबल समिट हुए. लेकिन वहां लगातार विकास होता रहा है और उसमें सभी का योगदान रहा है.
पिछले चुनाव में मोदी जी ने कहा था कि पांच साल में 50 लाख घर बनाएंगे, पूछिए कि क्या तीन लाख घर भी बने हैं? और कुपोषण का क्या? कुपोषण में गुजरात सबसे आगे है.”
बीजेपी की ज़मीन कमज़ोर या कांग्रेस की ख़ुशफ़हमी
‘तीन चुनाव बीते लेकिन मेट्रो नहीं आई‘
बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी के अलावा और कुछ दिखाने के लिए नहीं है.
2001 में मोदी जी चुनाव अहमदाबाद में मेट्रो के नाम पर लड़े थे. आज 2017 आ गया है, लेकिन मेट्रो शुरू नहीं हुई जबकि मेट्रो के नाम कम से कम तीन चुनाव जीते गए हैं.
असल में इस वक़्त बीजेपी के पास अपने तुरुप के इक्के के अलावा कुछ दिखाने के लिए नहीं है.
यह सब मुद्दे इसलिए उठाने की ज़रूरत पड़ रही है क्योंकि फ़ैक्ट्स पर आप खड़े नहीं हो पा रहे हैं.
20 साल से आपकी सरकार है और आज भी आपका कैनाल नेटवर्क तैयार नहीं है. आप आज भी पानी का एक बहुत छोटा सा-हिस्सा इस्तेमाल कर पा रहे हैं. इसके लिए आप किसे ब्लेम करेंगे? कांग्रेस को?
20 साल में आप कैनाल नेटवर्क नहीं बना पाए और अब आप कह रहे हैं कि कांग्रेस एक ग़रीब आदमी का मज़ाक उड़ा रही है. यह सब डायवर्ज़न इसलिए खड़े करने की ज़रूरत पड़ रही है.
बेरोज़गारी बढ़ रही है. वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल समिट करके घोषणाएं की गईं कि इतने लाख करोड़ों का निवेश आ गया और इतनी लाख नौकरियां होंगी, लेकिन ऐसा कुछ तो हुआ नहीं.
कॉलेजों में आधी से ज़्यादा एमबीए की सीटें खाली पड़ी हैं. पढ़कर बच्चे पांच-सात हज़ार की नौकरियां ढूंढ रहे हैं.
गुजरात: व्यापारियों का जीएसटी पर ग़ुस्सा, चुनाव पर चुप्पी
‘बढ़ते असंतोष की उपज हैं पटेल, मेवानी‘
गुजरात में बेरोज़गारी लगताार बढ़ रही है.
हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर- ये इसलिए नेता नहीं बने क्योंकि इनके पास बहुत पैसा था. ये नेता बने क्योंकि इन्हें उन लोगों का समर्थन मिला जो परेशान हैं.
इनकी आवाज़ सुनी नहीं गई, बल्कि तब की सरकार ने हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया.
ये सब आज इसी वजह से बीजेपी के सामने खड़े हो गए हैं. यह भी एक वजह है कि बीजेपी बौखलाई हुई है.
जिस पार्टी ने पिछला चुनाव 1985 में जीता था आप उसमें मीनमेख निकाल रहे हैं. आप अपना बताइए कि आपने क्या किया?
आप अपनी लकीर लंबी नहीं कर सकते तो दूसरे की छोटी करने में जुट गए हैं.
पिछले कुछ साल में देख लीजिए लोगों में नेगेटिव वोटिंग का चलन बढ़ा है. ‘ये तो नहीं, फिर चाहे कोई भी आ जाए’ की मानसिकता से वोटिंग होने लगी है.
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‘ग्रामीण गुजरात में पकड़ खो चुकी है बीजेपी‘
भारतीय जनता पार्टी गुजरात के ग्रामीण इलाक़ों में अपनी पकड़ काफ़ी कुछ गंवा चुकी है. इसलिए वे शहरी इलाक़ों पर ही ध्यान दे रहे हैं. अगर आप विकास को भी देखें तो वो भी शहरी इलाक़ों में ही ज़्यादा हुआ है.
गुजरात में बीजेपी का ज़ोर दो बातों पर ही रहेगा, एक- विपक्ष के वोट बैंक को तोड़ा जाए और दूसरे शहरी वोटरों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाए.”
(वरिष्ठ पत्रकार आर के मिश्रा से बीबीसी संवाददाता प्रज्ञा मानव की बातचीत पर आधारित)
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