।। विवेक शुक्ला।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
इस लोकसभा चुनाव में वाराणसी में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और भाजपा नेता नरेंद्र मोदी, जबकि अमृतसर में अरुण जेटली और अमेठी में स्मृति ईरानी को बाहरी उम्मीदवार कहा जा रहा है. ये नाम तो कुछ उदाहरण मात्र हैं, विभिन्न पार्टियों के कई उम्मीदवारों को इसी तरह ‘बाहरी’ होने का आरोप ङोलना पड़ रहा है, जबकि कुछ राज्यों को छोड़ कर बाकी में कोई भी योग्य भारतीय नागरिक कहीं से भी चुनाव लड़ सकता है. इतना ही नहीं, दुनिया के कई देशों में अनेक भारतवंशी नेता न केवल चुनाव लड़ रहे हैं, बल्कि सत्ता के शीर्ष तक भी पहुंचे हैं. ऐसे में इस बात के औचित्य पर बहस की दरकार है कि अपने ही देश में किसी उम्मीदवार को बाहरी बताना क्या सही है? इस मुद्दे के विभिन्न आयामों से अवगत करा रहा है आज का नॉलेज.
आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के वाराणसी से, जबकि अरुण जेटली के अमृतसर से लोकसभा चुनाव लड़ने पर उन्हें बाहरी उम्मीदवार बताया जा रहा है. उधर, अमेठी में कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपने भाई राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरी भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी और आप उम्मीदवार कुमार विश्वास को बाहरी करार दिया है. प्रियंका ने कहा है कि अमेठी के निवासी ‘बाहरी लोगों’ को वोट न दें. लोकसभा चुनाव लड़ रहे अनेक अन्य नेताओं को इसी तरह ‘बाहरी उम्मीदवार’ होने का आरोप ङोलना पड़ रहा है. कहा जा रहा है कि ये नेता स्थानीय नहीं हैं, इसलिए चुनाव जीतने पर जनता के साथ इंसाफ नहीं कर सकेंगे. लेकिन जरा सोचिये, अपने ही देश में किसी को बाहरी बताना कितना सही है?
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब कोई नेता किसी खास प्रांत से संबंध न रखने के बावजूद वहां से लोकसभा का चुनाव जीता हो. जैसे, कानपुर से एसएम बनर्जी लंबे समय तक सांसद बनते रहे. जार्ज फर्नाडीज मुजफ्फरपुर और नालंदा से लोकसभा चुनाव जीते. मधु लिमये बांका से सांसद रहे. ऐसे नेताओं की संख्या भले ही कम रही हो, लेकिन उदाहरण मौजूद हैं.
विदेश में भारतवंशियों का नेतृत्व
भारत में ही क्यों, करीब एक दर्जन से अधिक दूसरे देशों में भी भारतीय मूल के लोग सांसद से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक बन गये. इनमें मलयेशिया, मॉरीशस, त्रिनिडाड, गयाना, केन्या, फीजी, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा वगैरह शामिल हैं. उन्हें कभी बाहरी नहीं कहा गया. कैरिबियाई देश गयाना में 60 के दशक में भारतीय मूल के छेदी जगन राष्ट्रपति बने थे. उसके बाद तो शिवसागर राम गुलाम (मॉरीशस), नवीन राम गुलाम (मॉरीशस), महेंद्र चौधरी (फीजी), वासुदेव पांडे (त्रिनिडाड), एस रामनाथन (सिंगापुर) सरीखे भारतवंशी विभिन्न देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनते रहे.
भारत में कोई विदेशी मूल का शख्स राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनेगा, इसकी उम्मीद फिलहाल बहुत कम है. हां, कुछ साल पहले सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पैदा हुई थी, पर तब जम कर हंगामा बरपा था. हम हिंदुस्तानी जाति, समाज, भाषा, मजहब के बंधनों को तोड़ कर अपने लिए बेहतर उम्मीदवारों को चुनने के लिए तैयार नहीं हैं.
पेरू के पूर्व राष्ट्रपति अलबर्ट फूजीमोरी मूलत: जापानी मूल के थे. वे जब बहुत छोटे थे तब अपने माता-पिता के साथ पेरू में बस गये. आगे चल कर वे उस देश के शिखर तक पहुंच गये. जबकि पेरू में जापानी परिवारों की आबादी बहुत ही कम है. वे वर्ष 1990-2000 तक पेरू के राष्ट्रपति रहे. उनके पुत्र केंजी फूजीमोरी भी पेरू के सांसद रहे.
विकसित देशों में भारतवंशी सांसद
वर्तमान में भी भारतवंशी सांसद अफ्रीका से लेकर यूरोप और न्यूजीलैंड से लेकर अमेरिका तक की पार्लियामेंट को सुशोभित कर रहे हैं. मतलब यह कि नौकरी की तलाश में दूर देश में गये भारतवंशी वहां की किस्मत ही लिखने लगे.
बात मलयेशिया से शुरू करें, तो वहां की संसद में मौजूदा समय में तीन सांसद भारतीय मूल के हैं. मलयेशिया से शुरुआत इसलिए, क्योंकि माना जाता है कि भारत से बाहर भारतीय लोग सबसे ज्यादा मलयेशिया, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में ही बसे हुए हैं.
कृपाल सिंह सांसद होने के साथ-साथ मलयेशिया में चोटी के वकील भी रहे. वे मौत की सजा की हमेशा कड़ी मुखालफत करते रहे हैं. कुछ दिन पहले उनका एक दुर्घटना में निधन हो गया. कृपाल ने शिक्षा सिंगापुर में ली थी. प्रखर वक्ता कृपाल के राजनीतिक सफर का आगाज 1970 में हुआ था, जब उन्होंने डेमोक्रेटिक एक्शन पार्टी (डीएपी) ज्वाइन की. तब से वे एकाध बार को छोड़ कर सांसद बने हुए थे. उनके अलावा सेम वेलू भी भारतीय मूल के सांसद हैं. वे तमिल के प्रखर वक्ता भी हैं.
गोविंद सिंह देव भी मलयेशिया में सांसद हैं. वे पहली बार मार्च, 2008 में सांसद बने सेलगॉर सीट से. उनका संबंध भी डेमोक्रेटिक एक्शन पार्टी (डीएपी) से है. वे भी कृपाल की तरह से पेशे से वकील हैं. राजनीति की दुनिया में उनके गुरु कृपाल ही हैं. उनके भाई जगदीप सिंह पेनांग एसेंबली के सदस्य हैं. दरअसल, मलयेशिया में भारतवंशियों में सर्वाधिक तमिल हैं. हां, सिखों की आबादी भी अच्छी खासी है.
अफ्रीका में भारतवंशी नेता
अगर बात दक्षिण अफ्रीका की करें तो वहां मेवा रामगोंविद वर्तमान में सांसद हैं. उनसे पहले भी कुछ भारतवंशी वहां सांसद रहे हैं. परमिंदर सिंह मारवाह युगांडा की पार्लियामेंट में हैं. वे चाहते हैं कि भारत के निवेशक युगांडा के कृषि क्षेत्र में कारोबार के लिए आयें. उनके परिवार ने बीती सदी में 70 के दशक में भी युगांडा को नहीं छोड़ा था, जब इदी अमीन भारतीयों पर जुल्म ढा रहे थे. उनके दादा युगांडा में आकर बसे थे. उनके दादा वहां रेलवे में थे. उन्होंने 30 और 40 के दशक में पूर्वी अफ्रीकी देशों में रेल लाइनें बिछायी थीं. मारवाह ने बताया कि अंगरेज भारत से बहुत से मजदूरों को अफ्रीकी देशों में रेल पटरियों को बिछाने के लिए लेकर गये थे और फिर वे वहां के ही हो गये थे. भारत भ्रमण के दौरान वे खास तौर पर स्वर्ण मंदिर गये थे मत्था टेकने के लिए. उन्हें गुरुदास मान की गायकी पसंद है. उनके पुरखे जालंधर से हैं.
केन्या में भारतवंशी सांसद
अफ्रीका से आगे बढ़ने से पहले केन्या भी हो आते हैं. यहां एक सरदारनी सांसद हैं. नाम है सोनिया विरदी. सोनिया केन्या में महिलाओं की बड़ी एक्टिविस्ट मानी जाती हैं. दरअसल, वह एशियाई मूल की पहली महिला सांसद हैं केन्या में. वह मकरादा नामक स्थान का प्रतिनिधित्व करती हैं. मकरादा केन्या का अहम शहर इस लिहाज से है, क्योंकि वहां काफी इंडस्ट्रीज हैं. वहां की अर्थव्यवस्था की इसे जान माना जा सकता है. उन्हें इस साल मार्च महीने में सत्तासीन यूनाइटेड रिपब्लिक पार्टी ने संसद के लिए नामित किया था.
सोनिया अपने क्षेत्र में इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति को सुधारने के लिए सघन अभियान चला रही हैं. सोनिया अपने क्षेत्र में बिजली की नियमित आपूर्ति के लिए लगातार संघर्षरत हैं. इससे उन्हें देशभर में वाहवाही मिली है. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि उनकी जीत से केन्या की भारतीय मूल की आबादी बहुत गर्व महसूस कर रही है. मालूम हो कि केन्या में गुजराती और सिख काफी संख्या में हैं.
कनाडा में कम नहीं भारतवंशी
सियासत में नाम कमाने के लिहाज से भारतवंशियों के लिए कनाडा बहुत उर्वरा भूमि है. वहां भारतीय मूल के कई सांसद हैं, तो कुछ बरास्ता अफ्रीका से कनाडा में आकर बसे. बलजीत स्ंिाह गोशल ‘हाउस ऑफ कामंस’ के मेंबर हैं. वे खेल मंत्री भी हैं. वे कनाडा में भारतीयों से जुड़े मसलों को लेकर हमेशा संवेदनशील रहते हैं. उन्होंने राजनीति करने से पहले बहुत से पापड़ बेले हैं. कई जगह नौकरी की. समाजसेवा भी करते रहे. उनके बारे में कहा जाता है कि जब से वे कनाडा के खेल मंत्री बने हैं, तब से देश में खेलों को लेकर सरकार बजट बढ़ा रही है. बलजीत 1981 में कनाडा जाकर बसे थे. उनकी शिक्षा जालंधर के डीएवी कॉलेज से हुई. वे कंजरवेटिव पार्टी के ब्रेमिलिया सीट से सांसद हैं.
टिम उप्पल भी कनाडा में भारत के झंडे गाड़ रहे हैं. वे भी मंत्री हैं. उप्पल का संबंध भी कंजरवेटिव पार्टी से है. वे एडमेंटन से सांसद हैं. उनका जन्म भी कनाडा में ही हुआ. वे संसद की हेल्थ और हेरिटेज मामलों की स्थायी समितियों के भी सदस्य हैं. वे 1992 से 1997 तक रेडियो में प्रोड्यूसर थे.
नरेंद्र कौर ग्रेवाल की जिंदगी भी बड़ी ही दिलचस्प है. उन्हें नीना भी कहते हैं. उनका जन्म ओसाका, जापान में 1958 में हुआ. कनाडा में बसने से पहले वह अपने पति के साथ लाइबेरिया में रहती थीं. वे पहली बार जून, 2004 में सांसद बनीं. वे और रूबी ढल्ला हाउस ऑफ कामंस के लिए निर्वाचित होने वाली पहली सिख सांसद थीं. नरेंद्र कौर के पति गुरमंत ग्रेवाल भी सांसद रहे हैं. वे विदेश और महिला मामलों की स्थायी कमेटी की सदस्य हैं. वे 2006, 2008 और 2011 के फेडरल चुनावों में जीतीं. पंजाबी भारतवंशियों के मामलों के जानकार प्रताप सहगल के मुताबिक 60 और 70 के दशकों में बेहतर जिंदगी की तलाश में पंजाब के दोआब क्षेत्र से बड़ी तादाद में लोग कनाडा गये थे.
परम गिल भी कनाडा संसद में हैं. वे ब्रेमटन से सांसद हैं. 39 साल के परम पंजाब के मोगा जिले के पुरनवाला से हैं. वहां पर ही उनका जन्म हुआ. वे 14 साल की उम्र में कनाडा चले गये थे. परमजीत सिंह कंजरवेटिव पार्टी से हैं. उन्होंने 2011 के चुनावों में लिबरेल पार्टी की रूबी ढल्ला को हराया था. रूबी कनाडा की चोटी की भारतीय मूल की नेता हैं.
जसबीर संधू कनाडा पार्लियामेंट में इंडियन ‘आर्मी’ के अहम सदस्य हैं. संधू नार्थ सरे से डेमोक्रेटिक पार्टी से सांसद हैं. वे देश की 41वीं संसद के लिए 1996 में निवार्चित हुए थे. वे भी उन तमाम कनाडा में बसे भारत के लोगों में हैं, जो बचपन में अपने परिवारों के साथ यहां पर बेहतर जिंदगी के ख्वाब लेकर आ गये थे. संधू भारत से संबंधों को मजबूत बनाने की वकालत करते हैं. उन्होंने टैक्सी चलाने से लेकर रेस्तरां तक में नौकरियां की हैं.
ब्रिटेन में पहले पगड़धारी सांसद
ब्रिटेन में लंबे समय से भारतवंशी संसद पहुंचते रहे हैं, लेबर और कंजरवेटिव पार्टी की तरफ से. वर्तमान में किथ वाज लेबर पार्टी से सांसद हैं. वे गोवा मूल के हैं. इंदरजीत सिंह ब्रिटेन की संसद में पहुंचनेवाले पहले पगड़ी पहननेवाले सिख सांसद हैं. वे निर्दलीय सदस्य हैं हाउस ऑफ कामंस में. उनके साथ हाउस ऑफ कामंस में पाल उप्पल भी सांसद हैं. 43 साल के उप्पल कंजरवेटिव पार्टी से हैं.
न्यूजीलैंड की संसद में भारतवंशी
कंवल सिंह बख्शी 2008 में न्यूजीलैंड की संसद के लिए निर्वाचित हुए थे. उनका संबंध नेशनल पार्टी से है. उनका परिवार 2001 में न्यूजीलैंड में जाकर बसा था. यानी मात्र आठ सालों में ही वे एक पराये देश की संसद में पहुंच गये. बेशक, यह एक बड़ी उपलब्धि है. वे यहां पर बेहतर नौकरी की संभावनाएं तलाशने के इरादे से आये थे. वे न केवल पहले सिख बल्कि पहले भारतीय हैं, जिन्हें न्यूजीलैंड की संसद में पहुंचने का अवसर मिला. वे दिल्ली से हैं. हालांकि, उन पर कई आरोप भी लगते रहे हैं. एक बार उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने कुछ लोगों को न्यूजीलैंड में नौकरी दिलाने का झांसा देकर मोटा माल बनाया था. पर पुलिस जांच में उनके खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए. उन्होंने एक बार बताया था कि वे दिल्ली में अपना बिजनेस करते थे. वे सियासत और अपने बिजनेस दोनों के साथ इंसाफ कर रहे हैं.
सिंगापुर में विदेशी मूल के सांसद
इंदरजीत सिंह दिल्ली से हैं. उनकी स्कूली और कॉलेज की पढ़ाई सिंगापुर में ही हुई. वे पेशे से इंजीनियर हैं. उन्होंने कई कंपनियों में बड़े पदों पर काम किया. करीब 13 सालों के कॉरपोरेट दुनिया के सफर के बाद वे सियासत भी करने लगे. अब वे सियासत को लेकर बेहद संजीदा हैं. उन्होंने एक बार बड़े ही गर्व से कहा था कि सिंगापुर में कई देशों से संबंध रखनेवाले सांसद हैं. इससे साफ है कि सिंगापुर हर इंसान को बराबरी का हक देता है. और प्रीतम सिंह भी सिंगापुर की संसद में हैं. वे पेश से वकील हैं. उनका संबंध वर्कर्स पार्टी से है.
इन उदाहरणों के आधार पर आप खुद तय करें कि देश में किसी नेता को बाहरी उम्मीदवार बताना कहां तक सही है? हम भारतवंशी तो कहीं भी चले जायें और बन जायें सांसद से लेकर राष्ट्रपति, पर हम अपने ही देश में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश से चुनाव लड़नेवाले शख्स को बाहरी करार देते हैं. ऐसे विचारों के औचित्य पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
‘लोकल’ और ‘बाहरी’ के आधार पर वोट उचित नहीं
तकनीक का फैलाव बढ़ने से दुनिया छोटी होती जा रही है. हमारे देश के युवा मलयेशिया, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, इंगलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि अनेक देशों में नौकरी के लिए जा रहे हैं और वहां बस रहे हैं. इनमें से बहुत सारे युवाओं में भारत की विदेशों में मौजूदा छवि को बदलने की चाहत है. अपनी इस चाहत को पूरा करने के लिए अनेक देशों से भारतीय मूल के युवा मौजूदा लोकसभा चुनाव में अपना योगदान देने के लिए अपने वतन आये हैं और आ रहे हैं. इन युवाओं में भारत में राजनीतिक व्यवस्था को सुधारने की ललक है. खास कर आम आदमी पार्टी के मामले में तो इसे स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है. हम कह सकते हैं कि यह एक नयी प्रक्रिया है.
जहां तक देश के भीतर एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर चुनाव लड़ने का सवाल है, तो कानून इस मामले में हमें नहीं रोकता (कुछ राज्यों को छोड़ कर). और जब कानून इसकी मनाही नहीं करता, तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि कोई उम्मीदवार बाहरी है. हमारे देश में कोई भी उम्मीदवार कहीं से भी चुनाव में नामांकन कर सकता है. आखिर हमारी सोच इस तरह की क्यों हो गयी है कि यदि दिल्ली से कोई नेता चुनाव लड़ने बनारस जाता है तो हम उसे बाहरी साबित करने पर तुले रहते हैं. यदि आप उत्तर प्रदेश के निवासी हैं, और आप चाहते हैं कि महाराष्ट्र से चुनाव लड़ें तो आप ऐसा कर सकते हैं. महाराष्ट्र की कोई भी क्षेत्रीय पार्टी आपको ऐसा करने से रोक नहीं सकती. इस मायने में हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा कि यदि दिल्ली का कोई नेता अमृतसर से या उत्तर प्रदेश का कोई नेता महाराष्ट्र से चुनाव लड़े तो उसे हम बाहरी कहें.
इस मामले में यह भी उल्लेखनीय है कि आप जहां से मर्जी चुनाव लड़िये, लेकिन यदि आप जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरेंगे, तो जनता आपको नकार देगी. दूसरी ओर, जनता को इस बात पर ज्यादा नहीं ध्यान देना चाहिए कि उम्मीदवार कहां का है. यदि उम्मीदवार सही है, तो उसे मौका देना चाहिए. इसी तरह कोई नेता पहले से विकास कार्यो में अपनी भूमिका निभा रहा है और क्षेत्र की जनता के हित में कार्य कर रहा है, तो फिर उसे जीतने से कोई नहीं रोक सकता. (बातचीत : कन्हैया झा)