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सोनिया गांधी के भिन्न मानदंड

।। के विक्रम राव ।। वरिष्ठ पत्रकार करें कांग्रेस के इतिहास पर चिंतन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी आज चुनाव की बेला में कहती घूम रही हैं कि विपक्ष सत्ता का भूखा है या संप्रग सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करता रहा है. इसमें गलत क्या है? क्या सत्ता में रहना कांग्रेस का जन्म सिद्ध […]

।। के विक्रम राव ।।

वरिष्ठ पत्रकार

करें कांग्रेस के इतिहास पर चिंतन

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी आज चुनाव की बेला में कहती घूम रही हैं कि विपक्ष सत्ता का भूखा है या संप्रग सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करता रहा है. इसमें गलत क्या है? क्या सत्ता में रहना कांग्रेस का जन्म सिद्ध अधिकार है? सच्‍चाई तो ये है कि एक वाजपेयी सरकार को छोड़ कर देश में जब-जब विपक्ष की सरकार बनी, कांग्रेस ने ही उसे अस्थिर करके गिराया. कांग्रेस के पिछले इतिहास पर नजर डालें, तो ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जायेंगे.

कई सभाओं में बारंबार सोनिया गांधी कह चुकीं हैं कि भाजपा सत्ता की भूखी है. दशक भर से कांग्रेस अध्यक्ष कहती रहीं कि विपक्ष संप्रग सरकार को अस्थिर करने में जुटा हुआ है या सत्ता का भूखा है. मायने यही हुए कि राजग विपक्ष संप्रग सरकार की नींव पुख्ता करे. वीतरागी हो जाए. परिग्रह की प्रवृत्ति का परित्याग कर दे. हरिभजन करे, मंजीरा बजाये और पंजीरी फांके.

सोनिया गांधी का यह नवचिंतन लोहिया के मान्य सिद्धांत को नकार देता है कि विपक्ष पलक झपकाता है, वह भी सत्ता पलटने के संकल्प के साथ. एलानिया तौर पर इस बागी सोशलिस्ट ने कहा भी कि जिंदा कौमें पांच बरस तक इंतजार नहीं करतीं. तवे पर पक रही रोटी को नहीं पलटेंगे, तो वह जल जायेगी. हर लोकतंत्र में दो दफे सत्ता पर रहने के बाद (अमेरिका में आठ वर्ष तथा इंगलैंड में दस वर्ष) वोटर औसतन तख्ता पलट देते हैं. ठहराव तोड़ देते हैं.

सोनिया गांधी की पार्टी के भीतर ही कितनी बार और साजिशन सत्तासीन लोगों को गिराया गया है. सरकार को भी उखाड़ा है. इस पर गौर कर लें. राजीव गांधी के पांच वर्षों के काल में सोनिया गांधी ने सत्ता की चाभी पा ली थी. मगर बाद में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने सोनिया गांधी को पांच वर्षों तक वनवास में रखा. सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष रहे. पर, एक शाम सोनिया गांधी स्वयं दलबल सहित पार्टी मुख्यालय में गयीं. सीताराम केसरी को बलपूर्वक हटा कर स्वयं पार्टी अध्यक्ष बन गयीं. न निर्वाचन, न प्रस्तावक, न नामांकन, मगर पूरी पार्टी संगठन पर कब्जा कर लिया. विश्व के लोकतंत्र में ऐसा वाकया कभी नही हुआ.

प्रधानमंत्री पद कब्जा करने के इरादे से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को सोनिया गांधी ने गिरा कर राष्ट्रपति केआर नारायण से आग्रह किया कि उनके पास 272 सांसद हैं, जो बहुमत है. भला हो मुलायम सिंह यादव का, जिन्होंने सोनिया के झूठ को उजागर कर दिया और समाजवादी पार्टी का समर्थन देने से इनकार किया. लोकसभा का चुनाव घोषित हो गया. राजग तीसरी बार सत्ता में आया और अटल बिहारी वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बने.

अचरज होता है सोनिया गांधी के इस आरोप पर कि विपक्ष सरकार को अस्थिर करता है तथा सत्ता का भूखा है. तो याद कर लें कैसे कांग्रेस पार्टी ने पांच प्रधानमंत्रियों को गिरा दिया था. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार को तोड़ कर, चरण सिंह को समर्थन देकर इंदिरा गांधी ने लोकदल की (1979 में) सरकार बनवा दी. चरण सिंह प्रमुदित थे कि उनके जीवन की आकांक्षा पूरी हुई और वे प्रधानमंत्री बन गये. मगर एक ही दिन में राष्ट्रपति को पत्र भेज कर इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी का समर्थन वापस ले लिया.

कारण था कि शपथ ले कर राष्ट्रपति भवन से वापसी पर चरण सिंह का कार्यक्र म था कि विंडसर प्लेस वाले निवास पर रुक कर इंदिरा गांधी से माला धारण करेंगे. मगर चरण सिंह बिना रुके घर आ गये. माला तोड़ कर इंदिरा गांधी ने सरकार भी तोड़ डाली. फिर आया पुत्र राजीव गांधी का दौर. राष्ट्रीय मोरचा की विश्वनाथ प्रताप सिंह वाली सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से गिरा कर राजीव गांधी ने चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवाया.

कुछ दिन बाद राजीव गांधी ने चंद्रशेखर पर आरोप लगाया कि हरियाणा के चौधरी देवीलाल के दो चैकीदार उनके आवास 10 जनपथ की निगरानी कर रहे हैं. बस कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया. चंद्रशेखर की सरकार गिर गयी. फिर आये सीताराम केसरी जिन्होंने बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोरचा की पहली सरकार देवगौड़ा की बनवायी. ग्यारह माह में गिरवा दी. फिर इंदर गुजराल की बनवायी.

कुछ महीनों बाद गिरा दी. लेकिन सबसे घृणित संसदीय हरकत सोनिया गांधी ने की. उस दिन सदन में अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार और विपक्ष के सभी दलों का वोट बराबर था. ओड़िशा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग को दिल्ली बुलवा कर राजग की सरकार के खिलाफ लोकसभा में वोट डलवाया. अटल सरकार फिर गयी. तकनीकी रूप से गोमांग लोकसभा के सदस्य थें क्योंकि छह माह बाद ही त्यागपत्र देना पड़ता है. पर, एक मुख्यमंत्री राज्य विधानसभा की कार्यवाही में भी शिरकत करे और लोकसभा में भी वोट दे. ऐसी करामात सोनिया गांधी ने कर दिखाई थी.

कांग्रेस पार्टी का नियंत्रण हथियाने का दौर 75 वर्षों पूर्व ही चल पड़ा था. तब प्रांतीय विधान मंडल के आम निर्वाचन हुए थे. कांग्रेस कई प्रांतों में सरकार बना चुकी थी. उस वक्त सुभाष चंद्र बोस (त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन 1939) अध्यक्ष दुबारा चुने गये थे. उन्होंने महात्मा गांधी के प्रत्याशी डॉ पट्टाभि सीतारामैया को हराया था. जवाहरलाल नेहरू जो शुरू में सुभाष चंद्र बोस के समाजवादी कार्यक्रम के पक्षधर थे ने पारी बदल ली और बोस को त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया.

अंतत: बोस भारत छोड़ कर चले गये और कभी नहीं लौट पाये. नेहरू का वर्चस्व कायम हो गया. फिर आया 1946, जब अंगरेज भारत छोड़ कर जानेवाले थे. कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुना जाना था. प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने अध्यक्ष पर प्रस्ताव भेजे. वर्किंग कमेटी बैठक में गांधी जी ने घोषणा की कि एक भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने जवाहरलाल नेहरू का नाम प्रस्तावित नही किया है. बहुमत सरदार बल्लभभाई पटेल के पक्ष में था. बापू ने अपना निर्णय सुना दिया.’

जवाहर, तुम्हारा नाम कहीं से भी नहीं आया है. सरदार, सभी तुम्हारे साथ है. पर, मैं चाहता हूं कि जवाहर के पक्ष में अपना नामांकन वापस ले लो.’ सरदार ने बस दो ही शब्द कहे, ‘जी बापू.’ नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बन गये. उसी पद के कारण वे प्रथम प्रधानमंत्री भी बन गये. फिर एक बार सत्ता की चुनौती आयी. नये अध्यक्ष के लिए (1950 में) आचार्य जेबी कृपलानी प्रधानमंत्री नेहरू के समर्थन से राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के विरुद्ध चुनाव लड़े और हार गये. नेहरू ने टंडनजी के साथ पार्टी संगठन में काम करने से मना कर दिया. विवश होकर टंडन जी ने त्यागपत्र दे दिया और नेहरू स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे.

इसके कुछ ही दिन पूर्व की घटना है कि नवसृजित पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली खां ने मुसलिम लीग का अध्यक्ष पद भी ले लिया. तब नेहरू ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि संसदीय दल के नेता तथा पार्टी संगठन के प्रमुख को अलग होना चाहिए. मगर कुछ ही माह बाद अपने इस बयान पर से पलट गये और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन से त्यागपत्र लेकर प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आधिपत्य जमा लिया. चूंकि सरदार पटेल का निधन हो गया था, अत: नेहरू का पार्टी या सरकार में कोई भी विरोधी नहीं रहा. मगर अक्तूबर 1962 में चीन के आक्रमण के बार नेहरू का स्वास्थ्य गिरने लगा, तो उत्तराधिकारी की चिंता सताने लगी.

तब कद्दावर नेता मोरारजी देसाई, एसके पाटील, सीबी गुप्त, आदि पार्टी और सरकार में छाये हुए थे. इनके रहते इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री बनना कठिन था. तभी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज के नाम पर एक योजना रची. इसके तहत संगठन का काम करने हेतु मंत्रीपद से कुछ वरिष्ठों को मुक्त कर दिया गया. फिर इंदिरा गांधी ने कमजोर मोरारजी देसाई को पराजित किया और प्रधानमंत्री बन गयीं. और तबसे (फरवरी 1966 से अक्तूबर 1984 तक, केवल ढाई वर्ष वाला जनता पार्टी शासन छोड़ कर) इंदिरा गांधी महाबलशाली प्रधानमंत्री रहीं. इस दौरान दो कांग्रेस अध्यक्षों ने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के हित में हलकी-सी मांग उठायी. इंदिरा गांधी ने कर्नाटक के देवराज अर्स और आंध्र के कासु ब्रrानंद रेड्डी को, बर्खास्त कर दिया. वे स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री बनी रहीं. उन्हीं दिनों की घटना है. उत्तर प्रदेश के नारायण दत्त तिवारी उद्योग मंत्री तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह वाणिज्य मंत्री थे. वे दोनों सीनियर कांग्रेसी जन इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी पद के संभावित दावेदार थे.

आसन्न समस्या को भांप कर इंदिरा गांधी ने नारायण दत्त तिवारी जी को यूपी का मुख्यमंत्री और विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना कर लखनऊ रवाना कर दिया. जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी (31 अक्तूबर 1984) कांग्रेस महामंत्री राजीव गांधी वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ जहाज से दिल्ली आ रहे थे. प्रणब बाबू ने राजीव से कहा कि वरिष्ठतम मंत्री होने के नाते वे प्रधानमंत्री के पद के हकदार हैं. गुलजारी लाल नंदा इसी आधार पर दो बार प्रधानमंत्री बने थे. दिल्ली की धरती पर उतरते ही, इंदिरा गांधी के शवदहन के पूर्व ही राजीव गांधी को राष्ट्रपति जैल सिंह ने प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी. न तो संसदीय दल की बैठक में नेता का कोई चुनाव हुआ और न प्रणब मुखर्जी को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया. इतना ही नहीं प्रणब बाबू को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया. उनका मंत्री पद भी छिन गया. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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