सुरीला सफर

संगीत की साधना में कैसे आपका मन रमना शुरू हुआ? शुरू से बताएं. मेरे पिता तबला वादक थे, तो संगीत से मेरा पहला परिचय तबले के द्वारा हुआ. मैं तबला बजाया करता था. मेरी माता जी सितार बजाया करती थीं, तो मैं कह सकता हूं कि सितार की मेरी पहली गुरु मेरी मां हैं. संगीत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 21, 2018 4:57 AM

संगीत की साधना में कैसे आपका मन रमना शुरू हुआ? शुरू से बताएं.

मेरे पिता तबला वादक थे, तो संगीत से मेरा पहला परिचय तबले के द्वारा हुआ. मैं तबला बजाया करता था. मेरी माता जी सितार बजाया करती थीं, तो मैं कह सकता हूं कि सितार की मेरी पहली गुरु मेरी मां हैं. संगीत को कैरियर के रूप में लेना है, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था. प्रोफेशनली मैं टेनिस खेलता था और विज्ञान का स्टूडेंट था. मेरे पिता कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत विदेश जाते रहते थे, ऐसे में बारहवीं तक की शिक्षा मेरी भारत से बाहर ही हुई.
भारत आने के बाद मैंने महाराजा कॉलेज में दाखिला लिया. मुझे धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि मैं अपने जीवन में सिर्फ संगीत के साथ ही न्याय कर सकता हूं. उसके बाद मैंने राजस्थान यूनिवर्सिटी से सितार में ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन किया.
आपकी संगीत-यात्रा में माता-पिता का कितना सहयोग रहा?
मेरे माता-पिता का इसमें जो सहयोग रहा है, उसके लिए धन्यवाद करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है. मेरे माता-पिता मेरे रियाज के लिए अपनी रातों की नींद तक खराब करते थे. मुझे रात के दो बजे या यह कह लीजिए कि सुबह के दो बजे जगाते थे, ताकि मैं रियाज कर सकूं. उन दिनों मैं रोजाना 10 से 12 घंटे रियाज किया करता था. घर का माहौल बहुत आध्यात्मिक और संगीतमय था, लेकिन संगीत की साधना के लिए कड़ा अनुशासन था. उसके बाद पंडित अरविंद पारीख को मैंने अपना गुरु बनाया,
जो इटावा घराने से संबंध रखते थे. उन्होंने मुझे पहले सितार वादन की शिक्षा दी और फिर बाद में सुरबहार वादन की विधिवत शिक्षा दी. मैं निखिल बनर्जी से बहुत प्रभावित था, पर उनसे मिलने का मौका नहीं मिल पाया. मेरी पीएचडी उनके संगीत पर ही है, जिसे मैंने अपने एक नये दृष्टिकोण से लिखा.
सुरबहार कैसे अस्तित्व में आया है? इसकी खोज के बारे में बताएं.
सुरबहार देखने में भले ही सितार जैसा लगता हो, पर वाद्य और वादन शैली दोनों सितार से काफी अलग हैं. सुरबहार के आने के बारे में दो-तीन मत हैं. पहले के कुछ गुरु लोग भी अपनी कला को लेकर बहुत पजेसिव थे. वे अपनी कला को अपने परिवार में तो रखना चाहते थे, पर शिष्यों में नहीं देना चाहते थे. एक रुद्रवीणा वादक थे बीनकार उमराव खान साहब. उनका एक बहुत होनहार शिष्य था गुलाम मोहम्मद खान. उमराव खान ने सितार (जिसे उस समय कछुआ भी कहते थे) का एक बड़ा रूप डिजाइन करके एक नया वाद्य बनाया,
जिसकी वादन शैली रुद्रवीणा जैसी ही थी. उस वाद्य को उन्होंने अपने शिष्य मोहम्मद खान को दिया. बाद में इसी को सुरबहार का नाम दिया गया. दूसरे मत के अनुसार, साहेब दत्त ने सुरबहार बनाया. सुरबहार को रुद्रवीणा का भाई कहा जा सकता है. इसकी चाल धीर-गंभीर होती है. सुरबहार में संभावनाएं रुद्रवीणा से ज्यादा हैं.
एक कलाकार के रूप में सुरबहार के साथ अपनी यात्रा के बारे में बताइए.
मुझे सुरबहार शुरू से पसंद था. मैंने अपना सुरबहार बनवाया और इसे बजाना शुरू किया. एक प्रोग्राम में बजाने के बाद मेरे गुरु पंडित अरविंद पारीख ने कहा था, ‘आश्विन, तुम सितार अच्छा बजाते हो. सुरबहार रहने दो.’ गुरु की आज्ञा मानकर मैंने सुरबहार बजाने का ख्याल छोड़ दिया. कुछ दिनों बाद एक बड़े कार्यक्रम में सुरबहार वादक के न पहुंच पाने पर मुझे बुलवाया गया. गुरु की आज्ञा लेकर मैंने वहां सुरबहार बजाया, जिसे खूब पसंद किया गया. उसके बाद गुरुजी ने मुझे विधिवत तरीके से सुरबहार में प्रशिक्षित किया. धीरे-धीरे मैं सितार छोड़कर सुरबहार बजाने लगा. वाद्य के साथ मेरी सारी यात्राएं सुखद रही हैं.
शुरू से आप संगीत के माहौल में रहे हैं. संगीत और ललित कला को जोड़ने के बारे में आपका क्या ख्याल है?
मेरे घर में संगीत का माहौल जरूर रहा है, पर मेरी कॉलेज की पढ़ाई ललित कला संकाय में हुई है. हमारा सिलेबस इस तरह से डिजाइन किया गया था कि संगीत के छात्र को फाइन आर्ट्स पढ़ना पड़ता था और फाइन आर्ट्स के छात्र को संगीत पढ़ना पड़ता था, ताकि ललित कलाओं में विषयों के परस्पर संबंध का अध्ययन किया जा सके. संस्कार तो मुझ में कला के हैं ही! जहां तक जोड़ने की बात है, तो खुद ललित कला अपने आप में सभी को समाहित करती है, चाहे वह दृश्य कला हो, नाट्य कला हो, संगीत कला हो, चित्र कला हो या मूर्ति कला हो.
अकादमी की दृष्टि से मैं संगीत और चित्रकला को जोड़ने का प्रयत्न भी नहीं करूंगा, क्योंकि अगर मुझे ललित कला अकादमी का दायित्व दिया गया है, तो मैं फोकस ललित कला और उससे जुड़ी गतिविधियों पर ही करूंगा.
आज की पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति रुझान कुछ कम हुआ है. उन्हें इससे जोड़ने के क्या प्रयास किये जाने चाहिए?
आज की पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति रुझान कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ा है. इसका एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा कि आप किसी भी म्यूजिक रियलिटी शो में देखिए, उसके जो टॉप लेवल में जो प्रतिभागी होते हैं, वे सभी किसी गुरु से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रहे होते हैं. इससे दर्शकों में जो भी बच्चे और उनके मां-बाप हैं, उन तक यह संदेश जाता है कि उस लेवल तक जाने के लिए शास्त्रीय संगीत सीखना जरूरी है. हां शास्त्रीय संगीत में जो साधना तत्व होता था, उसमें जरूर कमी आयी है.
आजकल जो भी सीख रहा है, फौरन मंच पर जाने की उसकी लालसा रहती है. जबकि पुराने समय में जब गुरु सिखाता था, तब शिष्य को न तो कोई दूसरा संगीत सीखने-सुनने की अनुमति होती थी और न ही दूसरे संगीत की कॉपी करने की.
मैं सीखनेवाले बच्चों की नहीं, सुननेवालों की बात कर रहा हूं. उन्हें शास्त्रीय संगीत से जोड़ने के लिए क्या करना चाहिए?
शास्त्रीय संगीत से नयी पीढ़ी को जोड़ने का प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए, चाहे वह सरकार हो, संगीत सिखानेवाले संस्थान हों, या संगीत के गुरु हों. गुरुजनों की जिम्मेदारी होती है कि वे संगीत कला का प्रचार-प्रसार करें, उसका विस्तार करें और खुले हृदय से अपने पात्र शिष्यों को सिखाएं. सरकार को भी यह देखना चाहिए, शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए क्या-क्या कदम उठाये जा सकते हैं, ताकि उसकी उन्नति हो सके.
आखिरी सवाल, आपको मिले सम्मानों और अवॉर्ड्स के बारे में बताएं.
कई सम्मान और अवॉर्ड हैं. सुरसंगीत संसद द्वारा सुरमणि अवाॅर्ड. संगीत कला केंद्र आगरा द्वारा नाद साधना अवाॅर्ड. जीवन गौरव अवाॅर्ड 2012. यूएस काउंसिल द्वारा अहमदाबाद में ‘आहो’ यानी अहमदाबाद हारमोनी ऑर्केस्ट्रा फॉर पीस एवरीवेयर अवाॅर्ड आदि हैं.

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