अनिश्चित जीवन जीने के आदी थे गांधी
महात्मा गांधी कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने भारत आये थे, लेकिन इस सम्मेलन ने उनकी जिंदगी का रूख बदल दिया. अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का जिक्र करते हुए लिखा है- मैं दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ प्रस्ताव लेकर आया था. पंडाल का भव्य दृश्य, स्वयंसेवकों की […]
महात्मा गांधी कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने भारत आये थे, लेकिन इस सम्मेलन ने उनकी जिंदगी का रूख बदल दिया. अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का जिक्र करते हुए लिखा है- मैं दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ प्रस्ताव लेकर आया था. पंडाल का भव्य दृश्य, स्वयंसेवकों की कतारें, मंच पर नेताओं की उपस्थिति देखकर घबरा गया. सभा में फिरोजशाह मेहता जैसे दिग्गज मौजूद थे. जब गांधीजी की बोलने की बारी आयी तो, उन्हें मात्र पांच मिनट दिया गया. भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उतरने का यह उनका पहला अनुभव था. दशकों तक भारत की स्वाधीनता संग्राम की केंद्रीय भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी ने शुरुआती दिनों में ही आंदोलन को अभिजात वर्ग से निकालकर आम भारतीयों तक पहुंचा दिया.
गांधी को यह ताकत विरासत में नहीं मिली थी. आम भारतीयों के जनमानस और तकलीफों को समझने के लिए उन्होंने कई जतन किये. स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने से पहले वह देश के विभिन्न इलाकों में रहे. स्थानीय नेताओं से मुलाकात की. रेलवे के तीसरे दर्जे से यात्रा करने का फैसला लिया. भारत के तीर्थस्थलों का दौरा किया. भारत के अनेक प्रांतों में घूमने वाले, विदेशों में काम और आंदोलन के सिलसिले में बाहर रहने वाले गांधीजी ने एक तरह से बेहद अनिश्चित जीवन जीया. अपने जीवन के इस अनिश्चितता के बारे में उन्होंने लिखा है – ‘इस संसार में, जहां ईश्वर अर्थात सत्य के सिवा कुछ भी निश्चित नहीं है. निश्चितता का विचार दोषमय प्रतीत होता है. यह सब जो हमारे आस – पास दिखता है और होता है, सो अनिश्चित है, क्षणिक है. उसमें जो परमतत्व निश्चित रूप से छिपा हुआ है. उसकी झांकी हमें हो जाये, उस पर श्रद्धा बनी रहे, तभी जीवन सार्थक होता है.
राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर पहुंचे थे बिहार
राजकुमार शुक्ल गांधीजी का नाम सुन उनका पीछा कर लखनऊ पहुंच गये. नील की खेती से परेशान राजकुमार शुक्ल की बात मान गांधीजी को चंपारण आना पड़ा. गुजरात में पैदा हुए और पले – बढ़े शख्स के लिए बिहार का एक छोटा सा इलाका अजनबी जगह साबित हो सकता था, लेकिन उन्होंने वहां रहने की ठानी . अंग्रेजों से पहले टकराव की कहानी यहीं से शुरू हुई.
जब चंपारण में महिलाएं गंदे कपड़े पहनती थी, तो उनकी वस्तुस्थिति को जानने के लिए गांधीजी ने कस्तूरबा को भेजा. महिलाओं ने कस्तूरबा से कहा कि – आप देखिए, यहां कोई अलमारी नहीं है कि जिसमें कपड़े बंद हो. मेरे पास यही एक साड़ी है, जो मैंने पहन रखी है. इसे मैं कैसे धो सकती हूं. महात्मा जी से कहिए कि वह हमें कपड़े दिलवायें. अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र करते हुए गांधीजी ने लिखा है – हिंदुस्तान में ऐसे झोपड़े अपवाद स्वरूप नहीं, असंख्य झोपड़ों में साजो- समान, कपड़े –लत्ते कुछ नहीं होते हैं. और असंख्य लोग केवल पहने हुए कपड़ों पर निर्वाह करते हैं.
गांधीजी आम भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई मुस्तैदी से लड़ते थे. इस लड़ाई के साथ – साथ सामाजिक सुधारों के आंदोलन भी चलाते थे, लेकिन सामाजिक सुधारों के वक्त वह समस्या के जड़ में जाना नहीं भूलते थे.