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बाल सुधार गृह से राष्ट्रीय पुरस्कार तक

।। रंगनाथ सिंह ।। सिस्टम को समझना है, तो जेल जरूर जाना चाहिए श्रीराम डाल्टन को महज साढ़े चौदह साल की उम्र में बलात्कार के प्रयास के लिए छह महीने बाल सुधार गृह में रहना पड़ा था. उस घटना ने उनकी जिंदगी को उस राह पर डाल दिया जिस पर चल कर उन्होंने बीते शनिवार […]

।। रंगनाथ सिंह ।।

सिस्टम को समझना है, तो जेल जरूर जाना चाहिए

श्रीराम डाल्टन को महज साढ़े चौदह साल की उम्र में बलात्कार के प्रयास के लिए छह महीने बाल सुधार गृह में रहना पड़ा था. उस घटना ने उनकी जिंदगी को उस राह पर डाल दिया जिस पर चल कर उन्होंने बीते शनिवार को देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार लिया. श्रीराम पलामू के रहनेवाले हैं.

श्रीराम डाल्टन को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार अपनी शॉर्ट फिल्म ‘द लॉस्ट बहुरूपिया’ के लिए कला/संस्कृति श्रेणी में दिया गया है. आज श्रीराम को लगता है कि अगर सिस्टम को समझना है तो जेल जरूर जाना चाहिए. ‘द लॉस्ट बहुरूपिया’ विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी बहुरूपिया कला और उसके बचे-खुचे कलाकारों की कहानी कहती है.

फिल्म की कहानी के बाद मैंने श्रीराम की असल जिंदगी की कहानी जाननी चाही. उन्होंने अपनी कहानी बतायी तो, लेकिन उसमें दु:ख या भावुकता का कोई पुट नहीं था. साढ़े चौदह साल के उस किशोर पर क्या गुजरी होगी यह तो अंदाजा ही लगाया जा सकता है, लेकिन आज श्रीराम में एक दृष्टा भाव ज्यादा प्रबल है.

वह घटना जिसकी वजह से उन्हें बाल सुधार गृह जाना पड़ा था, उसके बारे में पूछने पर वह कहते हैं, ‘सोसाइटी का एक ऐसा स्ट्रक्चर बन चुका है कि आपको प्रेम करने से रोके जाने के तमाम उपकरण, तमाम नियम, तथाकथित कल्चर जैसी बहुत सी चीजों को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि बचपन से आपको बताया जाता है कि आपको प्रेम से दूर रहना है.’ वह कहते हैं, ‘बचपन से आपको बताया जाता है कि आपको लड़कियों से दूर रहना है. चौदह साल की उम्र में आप प्रेम कर रहे हैं. लड़की की लगभग वही उम्र है. आप दोनों में एक जिज्ञासा है.

आप उसे छूना चाहते हैं, वो आपको छूना चाहती है. आप एक-दूसरे को स्पर्श करें तभी मां आकर हंगामा कर दे. यह हंगामा चर्चा-ए-आम हो जाये. फिर आप सोसाइटी की आटा चक्की में फंस जाते हैं और उस चक्की से आप एक ‘प्रॉडक्ट’ बन कर निकलते हैं. तो मैं इस समाज का चलता-फिरता ‘प्रॉडक्ट’ हूं.’

अपने ही शहर में तमाशा बन जाना : यह तो बहुत बौद्धिक किस्म का जवाब हो गया. हमने थोड़ा कुरेदा कि आखिर उस किशोर को कैसा लगा था, तो श्रीराम ने ज्यादा न खुलते हुए भी इशारों में ही अपनी बात कह दी. वह कहते हैं, ‘जिस शहर में आपका बचपन बीता हो, उसी शहर में पुलिसवाले 25 फुट लंबी रस्सी में बांध कर आपको चौराहे-चौराहे घुमा रहे हैं. आखिरकार एक चौदह साल के लड़के के साथ यह क्या किया जा रहा था? आखिर आप उसे क्या बनाना चाहते थे?’

श्रीराम को जिस बाल सुधार गृह में रखा गया वह वयस्कों की जेल के ही एक हिस्से में थी. वहां हुए अनुभवों के बारे में वह बड़े ही मुख्तसर ढंग से कहते हैं, ‘मैंने देख लिया कि सिस्टम कैसी बेवकूफी करता है. मैंने जेल में हर तरह के किरदार देखे- अपने से कम उम्र के, अपने से ज्यादा उम्र के. बहुत तरह के लोगों से मिला. वहां मैंने समझा कि अपराध क्या है, सिस्टम क्या है. ऐसी ही बहुत सी दूसरी बातें मैंने वहीं समझीं.’

बाल सुधार गृह से बाहर आने के बाद के अनुभव के बारे में वह कहते हैं, ‘बाहर आने के बाद मैं हर जगह से बाहर कर दिया गया था. मैं समाज के हाशिए पर पहुंचा दिया गया था. लेकिन हाशिए पर कर दिये जाने से आप के अंदर एक दृष्टिकोण पैदा होता है. मैं एक ‘जेल’ से निकल कर ‘दूसरी जेल’ में आ गया था. मेरे लिए यह एक नये जन्म जैसा था.’

कला की राह पर : श्रीराम को पनाह मिली कला की दुनिया में. कला की राह उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के फाइन आर्ट्स विभाग तक ले आयी. यहीं उन्हें फोटोग्राफी से प्यार हो गया. वह बताते हैं, ‘मैंने फोटोग्राफी सीख ली. देश में घूम-घूम कर फोटो खींचने लगा. बड़े स्टूडियो में एक प्रदर्शनी की, लेकिन उसके बाद ही समझ में आ गया कि गैलरी-वैलरी मेरे लिए नहीं है. मैं सड़कों पर, घाटों पर, फुटपाथ पर, रेलवे स्टेशनों पर अपने खींचे फोटो बेचने लगा.’ वह बताते हैं कि साल 2000 के आसपास वह 15 अगस्त और 26 जनवरी को दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपने खींचे फोटो बेच चुके हैं. लेकिन क्या सड़क किनारे फोटो की दुकान लगाने पर उनकी तस्वीरें बिकती थीं? श्रीराम कहते हैं, ‘मेरी तसवीरें ठीकठाक दामों में बिक जाती थीं. उससे जो पैसे मिल जाते थे, उसी से मेरा खर्च निकलता था.’

मुंबई का सफर : श्रीराम के फोटोग्राफी से अचानक फिल्म की तरफ मुड़ने की कहानी भी थोड़ी फिल्मी है. उनके किसी दोस्त ने कहा कि तुम फाइन आर्ट्स के आदमी हो, तो तुम्हें ‘मोक्ष’ फिल्म जरूर देखनी चाहिए. इस फिल्म का निर्देशन किया था मशहूर सिनेमैटोग्राफर अशोक मेहता ने. फिल्म ने श्रीराम पर जादुई असर किया. उन्होंने तय कर लिया कि उन्हें सिनेमैटोग्राफर बनना है और इसके लिए अशोक मेहता को अपना गुरु बनाना है.

श्रीराम बताते हैं, ‘अशोक मेहता लिजेंड्री सिनेमैटोग्राफर हैं इसलिए दो साल लगातार स्ट्रगल करने के बाद मुङो उनका सहायक बनने का मौका मिला.’ उन्होंने कई फिल्मों में अशोक मेहता के सहायक के रूप में काम किया. लेकिन धीरे-धीरे वह इस काम से भी असंतुष्ट रहने लगे. वह कहते हैं, ‘मैंने अशोक मेहता के साथ कुछ बड़ी फिल्में कीं, लेकिन मैं उससे भी हताश होने लगा, क्योंकि सिनेमैटोग्राफर के रूप में फिल्म पर आपका कोई ज्यादा नियंत्रण नहीं होता. कैमरामैन के रूप में स्वतंत्र रूप से काम करने के मौके सामने आये, लेकिन मैं तय कर चुका था कि मुङो सिनेमैटोग्राफर नहीं, निर्देशक बनना है.’

बॉलीवुड में शॉर्ट फिल्म : फिल्म निर्देशक बनने का ख्वाब पालना एक बात है और उसे पूरा करना दूसरी बात. श्रीराम ने निर्देशन की शुरु आत शॉर्ट फिल्में बनाने से की. इस शुरु आत के आरंभिक दौर के बारे में वह कहते हैं, ‘बिहार के निर्देशक मनीष झा को साल 2002 में कान्स में बेस्ट शॉर्ट फिल्म का अवार्ड मिला था. इस फिल्म ने इंडस्ट्री में शॉर्ट फिल्म को लेकर लोगों का नजरिया बदल दिया. यह वही समय था जब हम लोग शॉर्ट फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे थे. मैंने एक कहानी सोची और उस पर शॉर्ट फिल्म बनाने का प्लान किया.

संगीतकार विजय वर्मा की मदद से फिल्म शुरू हुई. आज स्टार बन चुके नवाजुद्दीन सिद्दीकी उस समय ज्यादा सोचे-विचारे बिना मुख्य भूमिका निभाने को तैयार हो गये.’

वह ़फिल्म थी, ‘ओपी स्टॉप स्मेलिंग योर सॉक्स’. इस फिल्म को यूट्यूब पर 80 हजार से ज्यादा बार देखा जा चुका है. जापानी निर्देशक अकीरा कुरु सावा को अपना पसंदीदा फिल्मकार माननेवाले श्रीराम शॉर्ट फिल्मों के बारे में कहते हैं, ‘किसी फिल्म को उसकी लंबाई की बजाय उसकी मेकिंग और कन्टेंट के लिहाज से देखा जाना चाहिए. आज शॉर्ट फिल्म की पूरी दुनिया में अपनी जगह है.’

‘फैट-फ्री’ फिल्में बनाना चाहते हैं : श्रीराम बताते हैं कि ‘द लॉस्ट बहुरूपिया’ का मूल विचार उनके मित्र रूपेश सहाय का था. इस फिल्म को पूरा करने में लगभग तीन साल लगे. बहुरूपिया कला के भविष्य के बारे में पूछे जाने पर वह कहते हैं, ‘जो कला या संस्कृति अपनी रक्षा नहीं कर पा रही है, उसका मतलब है कि उसमें बदलाव की जरूरत है.चाहे वह फॉर्म के स्तर पर हो या कन्टेंट के स्तर पर, किसी तरह के बदलाव की जरूरत है.’

विनोद कुमार शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी और रूसी लेखक ़फ्योदोर दोस्तेव्येस्की के मुरीद श्रीराम से जब हमने उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा, तो उनका जवाब बड़ा ही तटस्थ सा था. वह कहते हैं, ‘मैंने कोर्स की पढ़ाई तो नहीं की है, लेकिन जिंदगी की पढ़ाई पढ़ी है. जिंदगी को जैसा मैंने देखा है उसी को दिखाना है और उसी की लड़ाई चल रही है.’ कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं? जवाब में श्रीराम कहते हैं, ‘मुङो फैट-फ्री फिल्में बनानी है. एक बार मेरे दोस्त फिल्मकार संजय झा मस्तान ने कहा था कि राम, हमें फैट-फ्री फिल्में बनानी हैं. मुङो उनकी बात तुरंत समझ में आ गयी थी.’

(बीबीसी हिंदी से साभार)

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