21वीं सदी का राजनीतिक जुआ है ट्रंप और किम उन जोंग की बातचीत?

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन या तो कूटनीति के महारथी हैं या फिर एक ऐसे नेता जो अपने देश को बर्बाद करने पर उतारू हैं. अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप या तो राजनीति के खेल में खतरों के खिलाड़ी हैं या एक टेढ़े खेल के महज़ एक प्यादे. निर्भर करता है कि आप किससे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 11, 2018 7:19 AM

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन या तो कूटनीति के महारथी हैं या फिर एक ऐसे नेता जो अपने देश को बर्बाद करने पर उतारू हैं. अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप या तो राजनीति के खेल में खतरों के खिलाड़ी हैं या एक टेढ़े खेल के महज़ एक प्यादे. निर्भर करता है कि आप किससे बात कर रहे हैं.

लेकिन इस कहानी में एक और अभिनेता हैं किम जोंग-उन जिन्होंने अभी तक खुलकर कोई बयान नहीं दिया है. शायद वो ही इस असाधारण राजनीतिक खेल के सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी हैं.

जिस पल उन्होंने दक्षिण कोरिया के विंटर ओलिंपिंक में उत्तर कोरिया की टीम भेजी थी, उसी वक्त ये साफ़ हो गया था कि किम जोंग-उन ने प्रोपेगैंडा के खेल में महारथ हासिल कर ली है.

कुछ लोगों को लगेगा कि किम जोंग-उन का ट्रंप से बातचीत का प्रस्ताव और परमाणु हथियारों के परीक्षण से तौबा करना एक कूटनीतिक सफलता है. जिस तरह से अमरीका और उत्तर कोरिया पिछले एक साल से एक-दूसरे के साथ बर्ताव करते आ रहे थे, ये होना नामुमकिन सा लगता था.

लेकिन ये जोख़िम मून जे-इन और डोनल्ड ट्रंप दोनों का है.

ये एक स्थिति है जहां दोनों में से कोई भी एक इसका श्रेय नहीं ले सकता, जहां दोनों के पास इससे बाहर आने की भी कोई रणनीति नहीं है. यहां सफलता और विफलता की इतनी परिभाषाएं हैं और बहुत कुछ दांव पर लगा है.

किसकी कोशिशों का नतीजा?

मून के समर्थक उन्हें बिचौलिये की तरह देखते हैं जिनकी वजह से किम जोंग-उन परमाणु हथियारों को छोड़ने की कम से कम बात तो कर रहे हैं.

मून ने ही किम के जनवरी के भाषण में मौका खोजा जिसमें उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच बातचीत होने की उम्मीद नज़र आ रही थी. इस मौके को उन्होंने जाने नहीं दिया.

अब लग रहा है कि दोनों देशों के बीच कूटनीति और दौरों के बाद आखिरकार कोई नतीजा आया है.

योनसेई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन डेलूरी ने बातचीत होने की घोषणा से पहले ही बीबीसी से कहा था, "लोग कह रहे हैं कि उत्तर कोरिया की कोशिशें हैं, लेकिन मुझे लगता है कि दक्षिण कोरिया कोशिश कर रहा है. ये वो चीज़ है जो राष्ट्रपति मून जे-इन चाहते हैं."

मून जानते थे कि प्योंगयांग दौरे के वक्त उनके प्रतिनिधियों को किम के मुंह से ‘परमाणु मुक्त’ शब्द निकलवाना ही होगा. उन्हें ये भी पता था कि उनके दो बड़े मंत्रियों के साथ जब किम दिखेंगे तो वो आसानी से अमरीका और जापान के गले नहीं उतरेगा.

लेकिन ये जोख़िम उठाए जाने के क़ाबिल था. अमरीका किसी भी सूरत में इस मीटिंग के बिना उत्तर कोरिया से बातचीत के लिए तैयार ना होता. मून के प्रतिनिधि वो पाने में कामयाब रहे जो उन्हें चाहिए था.

दक्षिण कोरिया के नेता मून ईमानदारी से एक बिचौलिए की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं. एक ही वक्त में ट्रंप और किम को संभाल रहे हैं. अपने शब्दों को ध्यान से चुन रहे हैं.

नए साल के अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि दोनों कोरिया के बीच बातचीत होने का श्रेय ट्रंप को दिया जाना चाहिए. वो जानते थे कि इससे ट्रंप को खुशी होगी. वो ऐसी भाषा का भी इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि एक लोकतांत्रिक देश को बार-बार निश्चिंत कर सकें. बातचीत की घोषणा करते हुए भी उनका बयान ट्रंप की तारीफ़ से भरा हुआ था कि कैसे ट्रंप ने ही सारी स्थिति को संभाला और आखिरकार ये दिन आया.

उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध तो बने रहेंगे जैसा की मून ने पहले कहा था और अब ट्रंप ने भी इसकी पुष्टि कर दी है.

उत्तर कोरिया की चालाकी?

पर सब जानते हैं कि हमेशा से ऐसा नहीं था. सिर्फ 6 महीने पहले ही ट्रंप वादे कर रहे थे कि अगर उत्तर कोरिया अमरीका को डराने की कोशिश करेगा तो अमरीका ऐसी आग बरसाएगा जो दुनिया ने पहले कभी नहीं देखी होगी.

सेजोंग संस्थान के प्रोफेसर हकसून पेक का कहना है कि धमकियों का ऐसा स्तर पहले कभी नहीं देखा था.

वो कहते हैं,"राष्ट्रपति मून परमाणु युद्ध के ख़तरे को लेकर काफ़ी चिंतित थे. किम जोंग-उन भी उसी स्थिति में थे. अमरीकी सांसद लिंडसे ग्राहम जैसे लोगों से सुनने में आ रहा था कि लोगों की जानें जाएंगी. डोनल्ड ट्रंप की अपरंपरागत और अस्थिर राजनीति ने युद्ध को लेकर दोनों कोरियाई नेताओं को चिंता में डाल दिया था."

अमरीका शुरू से ही कहता आया है कि उत्तर कोरिया का परमाणु हथियार छोड़ना ही एकमात्र विकल्प है. अब तक हुई सब ताज्जुब भरी घटनाओं के बावजूद भी कुछ लोगों को लगता है कि किम इन मांगों को मानने के लिए इसलिए तैयार हो जाएंगे ताकि बाद में अगर वे इसमें कामयाब ना भी हो पाएं को फिर ट्रंप के पास क्या विकल्प बचेगा?

तो क्या मून जे-इन और ट्रंप को उत्तर कोरिया ने बातों में फंसाया जिसने पहले भी दुनिया को बेवकूफ़ बनाया है?

फ्लेचर स्कूल ऑफ़ लॉ एंड डिप्लोमेसी के प्रोफेसर ली सुंग-यून कहते हैं,"अमरीका के सामने फिर से कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणुविहीन करने और मिसाइल परीक्षण ना करने की बात कहकर किम जोंग-उन प्रतिबंधों पर ढील चाहते हैं, अमरीका की सैन्य कोशिशों को पहले ही टाल देना चाहते हैं और चाहते हैं कि विश्व उत्तर कोरिया को एक जायज़ परमाणु शक्ति की तरह स्वीकार करे."

ट्रंप की मुश्किलें

ट्रंप की बात की जाए तो ये एक बहुत बड़ा साहसिक और ऐतिहासिक कदम है जो किसी अमरीकी नेता ने विदेश मामलों में उठाया है.

अगर ये जुआ काम कर गया तो ट्रंप खुद को उत्तर कोरिया का मुद्दा हल करने का श्रेय दे पाएंगे. उनकी सरकार के पास दिखाने के लिए बहुत कम ‘उपलब्धियां’ हैं जबकि अपने मतदाताओं को बहुत कुछ बदलने का वादा करके वो सत्ता में आए थे.

ट्रंप को लगता है कि उनकी अधिकतम दबाव वाली रणनीति, चीन को साइडलाइन करने की उनकी कोशिशें और उत्तर कोरिया पर आर्थिक पाबंदी लगाने की योजना काम कर रही है.

जानकार कहते हैं कि ट्रंप ने अनौपचारिक तौर पर व्हाइट हाउस में कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि किम जोंग-उन के प्रस्ताव का श्रेय उन्हें दिया जाएगा. उनके मतदाता तो देंगे ही.

लेकिन किम से मिलने में एक खतरा है कि ट्रंप ऐसा कर उन्हें बराबर का दर्जा दे देंगे. ये उनकी छवि के लिए घातक भी साबित हो सकता है. मुलाकात के लिए बताए गए समय में कुछ ही दिन रह गए हैं और तब तक का वक्त उस नेता के साथ कूटनीतिक मकसद पूरा करने के लिए कम है जिसे कुछ महीने पहले ही ट्रंप ने ‘नाटा रॉकेटमैन’ कहा था.

दक्षिण कोरिया की बुसान यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रॉबर्ट कैली ने ट्वीट किया था -"ट्रंप पढ़ाई नहीं करते हैं. वो अपनी ही स्क्रिप्ट से अलग कहीं पहुंच जाते हैं. मई का मतलब है कि स्टाफ की ज़रूरी तैयारियों के लिए भी वक्त ना के बराबर बचा है."

उत्तर कोरिया ये खेल दशकों से खेल रहा है. ट्रंप अभी इस खेल में नए हैं. उन्हें एक बड़ी जीत दिखाई देगी, लेकिन उनकी सौदेबाज़ी की कला से वो किम जोंग-उन के साथ सौदेबाज़ी नहीं कर पाएंगे.

दक्षिण कोरिया का पेंच

मून के लिए ये मामला इतिहास से जुड़ा है और कुछ निजी भी है.

इससे पहले भी वो 2007 में राष्ट्रपति रोह मू-ह्यून के प्रमुख अधिकारी के तौर पर उत्तर कोरिया के साथ समझौते की कोशिश कर चुके हैं. तब वे किम के पिता किम जोंग-इल से मिले थे. ये आखिरी बार था जब दोनों देशों के नेताओं के बीच शिखर वार्ता हुई थी. उत्तर कोरिया ने तब एक सेटेलाइट लॉंन्च किया था जिसके बाद बातचीत बंद हो गई थी.

तब तक तकरीबन साढे चार अरब डॉलर की मदद संवाद नीति के तहत उत्तर कोरिया को मिल चुकी थी. आलोचकों का कहना है कि इसी पैसे ने उत्तर कोरिया के लिए हथियार जुटाए थे.

कोरिया प्रायद्वीपीय फोरम की फेलो ड्यूइअन किम का कहना है कि एक बार फेल हो चुके मून अपना अधूरा काम पूरा करना चाहते हैं.

"दरअसल, वे अपने पहले के दोनों राष्ट्रपतियों के रास्ते पर ही चल रहे हैं. ये बिल्कुल वो मुद्दा है जिसे वो उठाना चाहेंगे और आगे बढ़ना चाहेंगे."

उत्तर कोरिया से आए एक रिफ्यूजी के बेटे मून को अच्छी तरह पता है कि कोरियाई प्रायद्वीप पर युद्ध का प्रभाव क्या होगा. 1950 में कोरियाई युद्ध की शुरूआत के दौरान उनके माता-पिता हज़ारों शरणार्थियों के साथ यूएन के आपूर्ति जहाज़ में उत्तर कोरिया से भाग कर आए थे.

अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने पत्रकारों से कहा था, "मेरे पिता कम्युनिज़्म से नफ़रत कर उत्तर कोरिया से भाग कर आए थे. मैं भी उत्तर कोरिया के कम्युनिस्ट सिस्टम से नफ़रत करता हूं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं उत्तर के लोगों को एक दमनकारी शासन भुगतने दूं.

आशंकाएं

राष्ट्रपति मून मानते हैं कि आगे बहुत-सी रूकावटें हैं. वो लोगों की उम्मीदें संभाले हुए हैं और कुछ भी गलत हो सकता है.

ड्यूइअन किम मानती हैं कि ‘ये हो सकता है कि समझौते की प्रक्रिया के आखिर में सब लोग फेल हो जाएं और उत्तर कोरिया फ़ैसला करे कि वो परमाणु हथियार रखेगा.

"कुछ नहीं पता है. मुझे नहीं लगता कि इसमें कभी कामयाबी मिल सकती है. तमाम आशंकाओं के बावजूद सभी पार्टियों को खुले दिमाग से बातचीत के लिए जाना चाहिए और समझौते के लिए अच्छी कोशिशें करनी चाहिए.

विंटर ओलिंपिक के बाद मून की अप्रूवल रेटिंग में भी इजाफा हुआ था जब उन्होंने उत्तर की महिला हॉकी टीम को दक्षिण की टीम के साथ मिलकर खेलने दिया था.

इस बात की संभावना है कि वो फेल हो जाएंगे और इसका राजनीतिक तौर पर ख़मियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ेगा, लेकिन ये उनके लिए सिर्फ राजनीतिक लाभ की बात नहीं है. उन्होंने पिछले साल टाइम्स पत्रिका को बताया था जब वे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे -"अपने परिवार से सिर्फ मेरी मां दक्षिण कोरिया भाग कर आई थीं. वो 90 साल की हैं. उनकी छोटी बहन अब भी उत्तर में रहती हैं. मेरी मां की आखिरी ख़्वाहिश है कि वे उससे मिल पाएं."

एक कम्युनिस्ट देश जिसके इरादों को पढ़ना मुश्किल है, उसके साथ ये बातचीत एक बड़ा जुआ खेलने जैसा है.

लेकिन अगर वे इसमें कामयाब हो जाते हैं तो परमाणु युद्ध का खतरा कम हो सकता है और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार भी मिल सकता है.

अगर वे फेल हुए तो फिर से ख़तरनाक राजनीतिक खेल में वापसी.

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