छोटे बजट की फिल्मों का उम्दा नायक
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक उन्होंने हिंदी सिनेमा के सबसे रौबदार हीरो वाला नाम पाया है, ‘राजकुमार’. ‘राजकुमार’ से याद आता है- ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के होते हैं…’ वाला दुस्साहसी अकेला नायक. लेकिन घर में उनके दोस्त उन्हें ‘राजू’ नाम से पुकारना पसंद करते हैं. राजू, हमारे सिनेमा में हुआ सबसे सच्चा चैप्लिन अवतार. […]
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक
उन्होंने हिंदी सिनेमा के सबसे रौबदार हीरो वाला नाम पाया है, ‘राजकुमार’. ‘राजकुमार’ से याद आता है- ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के होते हैं…’ वाला दुस्साहसी अकेला नायक. लेकिन घर में उनके दोस्त उन्हें ‘राजू’ नाम से पुकारना पसंद करते हैं. राजू, हमारे सिनेमा में हुआ सबसे सच्चा चैप्लिन अवतार. राज कपूर का बनाया ‘आम आदमी’ नायक. वे न्यूटन कुमार भी हैं और ओमर सईद शेख भी. वे प्रीतम भी हैं, विद्रोही भी.
अभिनेता राजकुमार राव ने बीते कुछ सालों में अपनी अभिनय प्रतिभा का ऐसा विहंगम प्रदर्शन हिंदी सिनेमा के परदे पर किया है, जिसमें उन्होंने सिनेमाई नायक के ये दोनों एक्स्ट्रीम सफलतापूर्वक छू लिये हैं.
खासकर निर्देशक हंसल मेहता के साथ अपनी विलक्षण जुगलबंदी में ‘शाहिद’ से लेकर ‘सिटी लाइट्स’ तक और ‘बोस: डेड ऑर अलाइव’ से लेकर इस हफ्ते की रिलीज महत्वाकांक्षी ‘ओमेर्टा’ तक, भारतीय सिनेमा के भविष्य पर राजकुमार राव ने अपने हिस्से का दावा ठोक दिया है.
हंसल मेहता की ‘ओमेर्टा’ मुश्किल फिल्म है. देखने और समझने दोनों में. और अगर आप इसेउनकी पुरानी ‘शाहिद’ के साथ रखकर ना देखें, तो शायद यह रीडिंग में अधूरी भी लगे. यह दरअसल, एक कंपैनियन पीस है.
यह विक्टिमहुड और बदले की आग में डूबे इंसानी दिमाग की सबसे अंधेरी गहराइयों के बारे में है. इस बारे में है कि बिना जरूरी सवालों को पूछे सिर्फ ‘विश्वास’ पर टिका समाज कितना क्रूर हो सकता है. और इस बारे में भी है कि जब राज्य की सर्वसत्तावादी संस्था स्वयं धार्मिक बहुसंख्यकवाद की गुलामी करने लगे, तो इससे बुरा कुछ नहीं.
लेकिन, सबसे ऊपर यह राजकुमार राव की खून भरी, खून की प्यासी उन आंखों के बारे में है, जिनकी पत्थरदिल गहराइयों ने इस हृदयहीन हत्यारे को जिंदा कर दिया.
यह पूरी तरह राजकुमार राव की फिल्म है. फिल्म की कमजोरी यह है कि वह कई जगह मनोस्थितियों की बजाय घटनाओं पर फोकस करती है. लेकिन, साल 2002 में पाकिस्तान में वॉल स्ट्रीट जर्नल पत्रकार डेनियल पर्ल के अपहरण और हत्या के जिम्मेदार कुख्यात आतंकवादी अहमद ओमर सईद शेख की मुख्य भूमिका में उनकी अदाकारी कलेजे में किसी बर्फ के ठंडे नश्तर सी उतरती है.
इसी हफ्ते उनकी फिल्म ‘न्यूटन’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है. और ‘शाहिद’ के लिए उनको मिला सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार ज्यादा पुराना नहीं हुआ. उनकी फिल्मों में लोकप्रिय सिनेमा की दुनिया में आ रहे एक तयशुदा बदलाव की कहानी छिपी है.
बदलाव, जहां उम्दा कलाकारों के साथ बनायी छोटे बजट की फिल्मों को दर्शक उनके नवीन कंटेंट के चलते पसंद कर रहे हैं. राजकुमार राव इन्हीं उम्दा पटकथा से बुनी गयीं स्वतंत्र फिल्मों का चेहरा हैं. दर्ज करनेवाली बात यह है कि वे सिर्फ अपने शानदार अभिनय की वजह से यहां हैं. पहले के पारंपरिक हिंदी नायकों की तरह अपने डांस की वजह से, या अपने शरीर सौष्ठव की वजह से, या किसी फिल्मी परिवार की संतान होने की वजह से नहीं.
मैं राजकुमार राव का नाम हिंदी सिनेमा के उम्दा अभिनेताओं की उसी परंपरा में रखूंगा, जिसमें संजीव कुमार से लेकर नसीरुद्दीन शाह तक का नाम लिखा है.
बीते कुछ सालों में इसी परंपरा में पवन मल्होत्रा और दीपक डोबरियाल जैसे नायक भी हुए, लेकिन अफसोस कि व्यावसायिक हिंदी सिनेमा ने उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं लिया. यह हमारा नुकसान था. आज राजकुमार राव को उनकी कुव्वत के मुकाबिल शानदार भूमिकाएं मिल रही हैं, यह देखना सुखद है.