झारखंड सरकार के लिए भी आत्ममंथन का वक्त
।। अनुज कुमार सिन्हा ।। पूरे देश में मोदी की ऐसी हवा चली कि कई राज्यों में भाजपा के अलावा किसी दल का खाता नहीं खुला. ऐसे भी अनेक राज्य रहे, जहां सत्ताधारी दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा. ऐसे ही राज्यों में है बिहार और असम. बिहार में जदयू के सिर्फ दो […]
।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
पूरे देश में मोदी की ऐसी हवा चली कि कई राज्यों में भाजपा के अलावा किसी दल का खाता नहीं खुला. ऐसे भी अनेक राज्य रहे, जहां सत्ताधारी दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा. ऐसे ही राज्यों में है बिहार और असम. बिहार में जदयू के सिर्फ दो और असम में कांग्रेस के तीन प्रत्याशी जीत पाये. इसका असर दिखा. शनिवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हार की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई (कांग्रेस) पहले ही पद छोड़ने की पेशकश कर चुके हैं. ऐसा कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है कि लोक सभा चुनाव में हार के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना ही है. सवाल नैतिकता का है. सवाल सिद्धांतों और मूल्यों का है, जो आज की राजनीति से गायब होता जा रहा है.
तकनीकी तौर पर नीतीश कुमार की सरकार को विधानसभा में बहुमत था, फिर भी उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि जिसे सरकार बनाना है, बनाये. नीतीश के इस्तीफे से यह सवाल खड़ा हो गया है कि जिन राज्यों में यूपीए की सरकार है और बुरा प्रदर्शन हुआ है, क्या वहां के मुख्यमंत्री को पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार है. ऐसे ही राज्यों में है झारखंड. यहां यूपीए की सरकार है. कुल 14 सीटों में से सिर्फ दो सीटें यूपीए को मिली. कांग्रेस, राजद को एक भी सीट नहीं. दो सीटें झामुमो को मिली.
12 जगहों पर भाजपा प्रत्याशी जीते. इस रिजल्ट का मैसेज तो यही है कि यह जनादेश हेमंत सरकार (जिसमें झामुमो, कांग्रेस, राजद हैं) के भी खिलाफ है. हो सकता है कि झामुमो यह दावा करे कि उसने दो सीटों पर जीत हासिल की है और भाजपा के विजय अभियान पर थोड़ा अंकुश लगाया है, पर इस बात को कैसे इनकार किया जा सकता है कि कांग्रेस के नौ प्रत्याशी में से एक भी जीत नहीं सका. यह दायित्व यूपीए पर था. जनता की यूपीए (चाहे केंद्र से हो या राज्य से या दोनों से) से इतनी नाराजगी दिखी कि मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र में उन्हीं के दल के प्रत्याशी को पिछड़ना पड़ा. सिर्फ मुख्यमंत्री ही क्यों, इस दल में शामिल कांग्रेस या राजद के एक भी मंत्री अपने क्षेत्र में यूपीए को बढ़त नहीं दिला सका. कुछ इज्जत बचायी, तो हाजी हुसैन अंसारी और साइमन मरांडी (मतदान के दिन वे मंत्री थे) ने.
हेमंत सरकार बहुमत में है या नहीं, यही रोज बहस का विषय रहा है. झामुमो के दो विधायक हेमलाल मुरमू और विद्युत महतो झामुमो छोड़ चुके हैं. साइमन निष्कासन के मोड़ पर हैं. चंद्रशेखर दुबे (कांग्रेस) इस्तीफा दे चुके हैं. चमरा लिंडा और बंधु तिर्की तृणमूल कांग्रेस में चले गये हैं. समर्थन दे रहे हैं या नहीं, यह ममता बनर्जी ही जानती हैं. निर्दलीयों की बैसाखी पर यह सरकार टिकी है. सारा समीकरण बिगड़ चुका है. ऐसी परिस्थिति के बीच अगर यूपीए का घटिया प्रदर्शन होता है (14 में दो जीतना), तो हेमंत सरकार को सत्ता में रहने से बेहतर होता कि वे नया जनादेश की ओर बढ़ते. यही सवाल की मांग है. सही है कि झामुमो ने दो सीटों पर जीत हासिल की है, जबकि जेवीएम और आजसू का खाता भी नहीं खुला है, इसलिए जेवीएम-आजसू की तुलना में उनका मनोबल कुछ बेहतर है.
लेकिन सत्य यह भी है कि कांग्रेस की हार के लिए जितना दोष कांग्रेस का है, सहयोगी होने के नाते उतना ही दोष झामुमो का है. बेहतर है कि हेमंत सरकार कोई बड़ा फैसला लें, विधानसभा का सत्र बुलाकर या तो फिर से बहुमत साबित करें या फिर इस्तीफा देकर उदाहरण पेश करें, ताकि भविष्य में उनके दल को लाभ मिले.