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नयी किताब : बेआवाज दिल्ली

कृष्णा सोबती के ख्यालात हमेशा रोशन रहे हैं. आजादी के बाद वह दिल्ली आ चुकी थीं. युवा दिनों में हाॅकी खेला करती थीं, वह भी तालकटोरा स्टेडियम में. उन्होंने दिल्ली को बदलते देखा है, संवरते देखा है और घुटते भी देखा है. अक्सर वह दिल्ली के इतिहास और बदलते भूगोल से रूबरू होती रही हैं. […]

कृष्णा सोबती के ख्यालात हमेशा रोशन रहे हैं. आजादी के बाद वह दिल्ली आ चुकी थीं. युवा दिनों में हाॅकी खेला करती थीं, वह भी तालकटोरा स्टेडियम में. उन्होंने दिल्ली को बदलते देखा है, संवरते देखा है और घुटते भी देखा है. अक्सर वह दिल्ली के इतिहास और बदलते भूगोल से रूबरू होती रही हैं. नब्बे पार की कृष्णाजी की स्मृति देखकर सामान्य व्यक्ति आश्चर्य में डूब जाये.

राजकमल प्रकाशन से आयी उनकी किताब ‘मार्फत दिल्ली’ में निरंतरता नहीं है यह बात सही है, लेकिन कृष्णाजी की इस किताब को पढ़ते हुए पाठक इतिहास के प्रति सिर्फ सहृदय ही नहीं होता, बल्कि वर्तमान समय की भौगोलिक बेतरतीबियां उसे परेशान भी कर डालती हैं. वह अपनी दिल्ली को कृष्णा जी की नजरों से ढूंढ़ने लगता है और नॉस्टेलजिक होने लग जाता है. एक टुकड़ा कृष्णाजी के कलम से ‘कभी कहा जाता था, दिल्ली जमुना के किनारे बसी पड़ी है. अब तो साहिब उलट हो गया.
राजधानी दिल्ली जमुना के किनारे नहीं, जमुना नदी दिल्ली के किनारे बंधी पड़ी है. कहीं सूखी कहीं गीली, कहीं बांध, कहीं खेत. खेत तो दिल्ली के इमारतों में जज्ब हो गये, वहीं जमीनें अब हमारे पैरों तले हैं, हमारी सांसें यहां की सर्द-गर्म हवाओं में हैं. हमारा आज और कल इसकी मूठ में है.’
सिक्का बदल गया- कृष्णाजी की कहानी. पहली कहानी ‘प्रतीक’ में. और प्रतीक के संपादक अज्ञेय. यह सब संयोग घटित होता है एक यादगार शाम दिल्ली में. तब की दिल्ली, जब ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की पुरानी बिल्डिंग वाले ब्लॉक में ‘राजकमल’ हुआ करता था. कृष्णाजी के भी संभावित उठते कदम हिंदी की किताबों की इकलौती दुकान की ओर हर रोज चले जाते. बकौल कृष्णाजी- ‘साहबों, हम ही कब जानते थे यही चेहरे देर तक नातेदारों की तरह हमारे खुद के अदबी लैंडस्केप से जुड़े रहेंगे. बाकायदा बिरादरी बनकर.’ वह बिरादरी बन ही रही थी उस वक्त. आजादी के दिन कृष्णाजी की दो मनःस्थितियों के बीच हम अपनी लेखिका को ढूंढ़ सकते हैं- पहली मनःस्थिति ‘नया सफर, नया भूगोल, नया इतिहास. गीली आंखों से सब एक-दूसरे की ओर देखते रहे. इस ऐतिहासिक ऐलान के बाद कि हिंदुस्तान हमारा आजाद है.’ और दूसरी- ‘काश यह बंटवारा न होता. वहां का रहनेवाला बेघर लुटा हुआ यहां न होता.’
आजाद भारत की सबसे पहली बड़ी दुर्घटना ‘पितृहत्या’ वाले दिन यानी बापू के न रहने पर पड़ोसी देश के रेडियो से रूंधे गले से अनाउंसमेंट- ‘हमारे महात्मा गांधी…’ महज ये तीन शब्द और कृष्णाजी की यह किताब आपको उनके लिखे सारे साहित्य को पढ़ने को मजबूर करेगा और आपकी सामासिक समाज के प्रति आस्था को मजबूत करेगा. इत्यलम्!
– मनोज मोहन

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