झारखंड बंद: भूमि अधिग्रहण क़ानून पर सरकार का विरोध
झारखंड सरकार के साल 2017 में पेश भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को आदिवासी संगठनों ने प्रो-कॉरपोरेट बताया है. उनका मानना है कि सरकार कथित विकास के नाम पर आदिवासियों की ज़मीन छीनना चाहती है. आदिवासी सेंगल अभियान और दूसरे संगठनों ने इसके विरोध में 18 जून को झारखंड बंद की कॉल दी है. समूचा विपक्ष […]
झारखंड सरकार के साल 2017 में पेश भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को आदिवासी संगठनों ने प्रो-कॉरपोरेट बताया है.
उनका मानना है कि सरकार कथित विकास के नाम पर आदिवासियों की ज़मीन छीनना चाहती है. आदिवासी सेंगल अभियान और दूसरे संगठनों ने इसके विरोध में 18 जून को झारखंड बंद की कॉल दी है. समूचा विपक्ष भी इसके विरोध में है.
आदिवासी सेंगल अभियान के अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने बताया कि उन्होंने विपक्ष से इस गंभीर मुद्दे पर वोट की राजनीति नहीं करने की अपील की है क्योंकि यह सवाल आदिवासी अस्मिता और उनके हितों की रक्षा का है. उनका कहना है कि ‘हम बचेंगे, तभी राजनीति भी होगी.’
सालखन मुर्मू ने बीबीसी से कहा, ‘भाजपा सरकार शुरू से ही आदिवासियों की ज़मीन छीनना चाहती है. उनका कमिटमेंट कॉरपोरेट के प्रति है, न कि आदिवासियों के प्रति. इस कारण विपक्ष के विरोध को अनसुना कर सरकार ने अगस्त-2017 में भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को विधानसभा में पारित करा लिया.’
‘जब कृषि मंत्रालय ने अपनी आपत्तियों के साथ विधेयक को वापस कराया तो रघुवर दास की सरकार ने उसे केंद्र को पुनर्विचार के लिए भेज दिया. अब ख़बर आई है कि राष्ट्रपति जी ने विधेयक को मंज़ूरी दे दी है. इसलिए हम लोग 18 जून को झारखंड बंद रखेंगे.’
विपक्ष हुआ हमलावर
इधर, विपक्ष के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर सोमवार को एक साथ बैठेंगी. इसमें आगे के आंदोलनों पर चर्चा होगी.
उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेस कर सरकार को 24 घंटे के भीतर अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा था. इसकी मियाद अब ख़त्म हो चुकी है.
‘जान देंगे, ज़मीन नहीं‘
हेमंत सोरेन ने कहा, ‘जल, जंगल, ज़मीन इस राज्य की आत्मा रही है. अगर सरकार कोई भी ऐसा निर्णय लेती है जिससे जल, जंगल, ज़मीन की हमारी व्यवस्था पर असर पड़े, तो भले ही जान चली जाए, हमलोग पीछे नहीं हटेंगे. भाजपा सरकार हम आदिवासियों की ज़मीनें उद्योगपतियों को देना चाहती है. हम उसके इस मंसूबे को सफल नहीं होने देंगे.’
वहीं, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के प्रमुख और राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा है कि अगर उनकी सरकार बनी तो वे अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में ही इस विधेयक को स्क्रैप कर देंगे. मरांडी का कहना है कि सरकार लोगों को छलावे में रखकर जबरन इन संशोधनों को लागू कराना चाह रही है.
क्यों हुआ विरोध?
दरअसल, यह विवाद दो दिन पहले अचानक सतह पर आ गया. तब विपक्ष ने मीडिया में आई उन ख़बरों पर सरकार को घेरा जिनमें भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधनों के राज्य सरकार के प्रस्ताव को राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिलने का दावा किया गया था.
हालांकि, न तो राजभवन ने इसकी पुष्टि की और न झारखंड सरकार ने. इसके बावजूद विपक्ष और आदिवासी संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया.
सच क्या है
आखिर क्या है इसकी सच्चाई. क्या सच में राष्ट्रपति ने दे दी है इस विधेयक को मंज़ूरी.
इस सवाल पर झारखंड के भू-राजस्व मंत्री अमर कुमार बाउरी ने बीबीसी को बताया कि सरकार को अभी ऐसी कोई आधिकारिक सूचना नहीं मिली है. लिहाजा, यह कहना मुश्किल है कि राष्ट्रपति जी ने इसे मंज़ूरी दी है या नहीं.
‘विपक्ष के आरोप ग़लत‘
भू-राजस्व मंत्री अमर कुमार बाउरी ने बीबीसी से कहा, ‘भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक में सारी बातें कैटेगराइज़ की गई हैं. हमारी सरकार ने स्पष्ट किया है कि स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के निर्माण, आंगनवाड़ी केंद्र, रेल परियोजनाएं, पंचायत भवन, बिजली परियोजनाएं, सड़क, पाइपलाइऩ जैसी ज़रूरी सुविधाओं की बहाली के लिए ही ज़मीनों के अधिग्रहण में सोशल इंपैक्ट सर्वे की बाध्यता हटाने का प्रस्ताव है, ताकि परियोजनाओं पर तेज़ी से काम संभव हो.
उन्होंने यह भी कहा, ‘सिर्फ़ सरकारी काम के लिए छोटे लेवल पर ज़मीनों का अधिग्रहण होना है. ऐसा नहीं है कि सरकार बड़े भू-भाग का अधिग्रहण कर उसे कॉरपोरेट कंपनियों को देने जा रही है. विपक्ष को पहले इन संशोधनों को पढ़कर क़ानूनी सलाह ले लेनी चाहिए. ऐसे संवेदनशील मसले पर जनता को गुमराह करना उचित नहीं है.’
सोशल इंपैक्ट सर्वे
दरअसल ब्रिटिश शासन काल के दौरान साल 1834 में बने भूमि अधिग्रहण क़ानून को आज़ादी के बाद भी मान्यता मिली रही. यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान साल 2013 में इसमें संशोधन कर ज़मीनों के अधिग्रहण के वक्त उसका सोशल इंपैक्ट सर्वे कराने का प्रस्ताव रखा गया.
तब सरकार ने कहा कि ऐसे मामलों में जनता की राय जानना ज़रूरी है. झारखंड सरकार ने ताज़ा संशोधन में कुछ परियोजनाओं के लिए इस सोशल इंपैक्ट सर्वे की बाध्यता को ख़त्म करने की सिफ़ारिश की है. चर्चित सोशल एक्टिविस्ट दयामनी बारला इसे काला क़ानून कहती हैं.
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