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मगहर को ”अंतिम समय” के लिए चुना था कबीर ने

वाराणसी से क़रीब दो सौ किलोमीटर दूर संतकबीर नगर ज़िले में छोटा सा क़स्बा है मगहर. वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी तो मगहर को लोग इसलिए जानते थे कि ये एक अपवित्र जगह है और यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या […]

वाराणसी से क़रीब दो सौ किलोमीटर दूर संतकबीर नगर ज़िले में छोटा सा क़स्बा है मगहर.

वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी तो मगहर को लोग इसलिए जानते थे कि ये एक अपवित्र जगह है और यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है.

सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास वाराणसी में पैदा हुए और लगभग पूरा जीवन उन्होंने वाराणसी यानी काशी में ही बिताया लेकिन जीवन के आख़िरी समय वो मगहर चले आए और अब से पांच सौ साल पहले वर्ष 1518 में यहीं उनकी मृत्यु हुई.

कबीर स्वेच्छा से मगहर आए थे और इसी किंवदंती या अंधविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि काशी में मोक्ष मिलता है और मगहर में नरक.

मगहर में अब कबीर की समाधि भी है और उनकी मज़ार भी. जिस परिसर में ये दोनों इमारतें स्थित हैं उसके बाहर पूजा सामग्री की दुकान चलाने वाले राजेंद्र कुमार कहते हैं, "मगहर को चाहे जिस वजह से जाना जाता रहा हो लेकिन कबीर साहब ने उसे पवित्र बना दिया. आज दुनिया भर में इसे लोग जानते हैं और यहां आते हैं."

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नाम के पीछे की कहानी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर से क़रीब तीस किमी. दूर पश्चिम में स्थित है मगहर.

मगहर नाम को लेकर भी कई किंवदंतियां मौजूद हैं. मसलन, यह भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुंबिनी, कुशीनगर जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों के दर्शन के लिए जाया करते थे.

इस इलाक़े के आस-पास अक़्सर उन भिक्षुओं के साथ लूट-पाट की घटनाएं होती थीं और इसीलिए इस रास्ते का ही नाम ‘मार्गहर’ यानी मगहर पड़ गया.

लेकिन कबीर की मज़ार के मुतवल्ली ख़ादिम अंसारी के मुताबिक, "मार्गहर नाम इसलिए नहीं पड़ा कि यहां लोग लूट लिए जाते थे, बल्कि इसलिए पड़ा कि यहां से गुज़रने वाला व्यक्ति हरि यानी भगवान के पास ही जाता है."

ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी ऐतिहासिक स्रोतों से तो सीधे तौर पुष्टि नहीं होती लेकिन तमाम ऐतिहासिक तथ्य इन किंवदंतियों का समर्थन करते ज़रूर मिल जाते हैं.

गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग की प्रोफ़ेसर विपुला दुबे कहती हैं, "किंवदंतियों के ऐतिहासिक साक्ष्य भले ही न हों लेकिन इनकी ऐतिहासिकता को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है.

दरअसल, ऐसी जनश्रुतियों के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिए गहरे शोध की ज़रूरत है."

मेहनत मज़दूरी करने वालों का इलाका

प्रोफ़ेसर दुबे कहती हैं कि ये रास्ता बौद्धों के तमाम पवित्र स्थलों के लिए ज़रूर जाता था लेकिन यहां ‘लोग लूट लिए जाते थे’, इसके कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते और न ही किसी साहित्य में ऐसा कोई उल्लेख है.

मगहर को पवित्र स्थान न मानने के पीछे की वजह प्रोफ़ेसर विपुला दुबे ये बताती हैं, "पूर्वी ईरान से आए माघी ब्राह्मण जिस इलाक़े में बसे उस इलाक़े के बारे में ही ऐसी ऋणात्मक धारणाएं गढ़ दी गईं. अवध क्षेत्र से लेकर मगध तक का इलाक़ा इन माघी ब्राह्मणों का था और वैदिक ब्राह्मण इन्हें महत्व नहीं देते थे, तो इनके निवास स्थान को भी नीचा करके दिखाया गया. वाराणसी वैदिक ब्राह्मणों का एक बड़ा केंद्र था, इसलिए उसकी महत्ता बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई."

मौजूदा समय में देखा जाए तो मगहर का पूरा इलाक़ा मेहनत मज़दूरी करने वालों से भरा हुआ है. प्रशासनिक रूप में ये एक नगर पंचायत है और ख़लीलाबाद संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आती है. लेकिन यहां का मुख्य आकर्षण और पर्यटन केंद्र कबीर चौरा या कबीर धाम ही है.

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कबीर धाम

कबीर अपने अंतिम समय में जहां रहे वह क्षेत्र भी उनकी सोच और विचारधारा को अक्षरश: बयां करता है. आमी नदी के किनारे जहां शवदाह किया जाता है, वहीं उसके दाएं किनारे पर क़ब्रिस्तान हुआ करता था जो आज भी क़ायम है.

कबीर दास की समाधि से क़रीब सौ मीटर दूर उसी परिसर में कबीर की मज़ार भी है. मज़ार के मुतवल्ली ख़ादिम अंसारी बताते हैं, "मज़ार जहां पर है, ये इलाक़ा आज भी क़ब्रिस्तान ही है. समाधि और मज़ार के बीच दो क़ब्रें हमारे पूर्वजों की हैं. ये इलाक़ा अब पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है लेकिन इसके बाहर कब्रिस्तान ही है जबकि दूसरी ओर श्मशान घाट."

हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर याद किए जाने वाले संत कवि कबीर धार्मिक सामंजस्य और भाई-चारे की जो विरासत छोड़कर गए हैं, उसे इस परिसर में जीवंत रूप में देखा जा सकता है.

परिसर के भीतर ही जहां एक और क़ब्र है, वहीं दूसरी ओर एक मस्जिद और उससे कुछ दूरी पर मंदिर है. यही नहीं, क़रीब एक किमी. की दूरी पर एक गुरुद्वारा भी है जो कि यहां से साफ़ दिखाई पड़ता है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सब आसानी से हो गया. कबीर दास की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर पर अधिकार को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष की कथाएं भी प्रचलित हैं. जानकारों के मुताबिक, उसी का नतीजा है कि हिन्दुओं ने उनकी समाधि बनाई और मुसलमानों ने क़ब्र.

लेकिन अब उनके अनुयायी इन दोनों ही जगहों पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए आते हैं.

कबीरपंथियों की आस्था का मुख्य केंद्र

मगहर देश भर में फैले कबीरपंथियों की आस्था का मुख्य केंद्र है. यहां के मुख्य महंत विचार दास की मानें तो देश भर में कबीर के क़रीब चार करोड़ अनुयायी हैं और साल भर लाखों की संख्या में लोग यहां आते हैं.

विचार दास बताते हैं, "कुछ लोग पर्यटक के तौर पर भी आते हैं लेकिन ज़्यादातर यहां धार्मिक आस्था के चलते ही आते हैं. मोदी जी बतौर प्रधानमंत्री पहले व्यक्ति हैं जो यहां आ रहे हैं जबकि इंदिरा गांधी पूर्व प्रधानमंत्री के तौर पर यहां आ चुकी हैं."

मगहर के मूल निवासियों का अपने क्षेत्र के बारे में फैली किंवदंतियों के बारे में अलग ही सोचना है. मगहर क़स्बे में तमाम स्कूलों, कॉलेजों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों के अलावा तमाम दुकानों और प्रतिष्ठानों के नाम भी कबीर के नाम पर मिलते हैं.

स्थानीय नागरिक राम नरेश बताते हैं, "किंवदंतियां कुछ भी प्रचलित रही हों, यहां के लोग तो यहां जन्म लेने और यहां मरने, दोनों में ही गर्व का अनुभव करते हैं."

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