भटकाव छोड़ आदर्शवाद की ओर लौटें

-सुमित चक्रवर्ती- आजादी के बाद से ही भारत की राजनीति में वामपंथ की एक अहम जगह रही है. लेकिन अभी हुए आम चुनाव में यह हाशिये पर चला गया. यह स्थिति क्यों आयी, और यह कैसे बदल सकती है, इन बिंदुओं पर विचार करता यह लेख पढ़ें : वामपंथ किधर? भारतीय राजनीति पर चर्चा के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 29, 2014 5:33 AM

-सुमित चक्रवर्ती-

आजादी के बाद से ही भारत की राजनीति में वामपंथ की एक अहम जगह रही है. लेकिन अभी हुए आम चुनाव में यह हाशिये पर चला गया. यह स्थिति क्यों आयी, और यह कैसे बदल सकती है, इन बिंदुओं पर विचार करता यह लेख पढ़ें :

वामपंथ किधर? भारतीय राजनीति पर चर्चा के दौरान यह सवाल बार-बार दोहराया जाता है. और जब एक युग-निर्धारक आम चुनाव में वाम दल अपनी उपस्थिति और प्रभाव के लिहाज से साफ तौर पर सबसे निचले स्तर पर सामने आये हों, तो अब यह और अहम मान लिया गया है. हमने देखा कि वामपंथ अभूतपूर्व ढंग से पूरी तरह हाशिये पर चला गया है. यह आजादी के ठीक बाद वामपंथ की स्थिति के उलट है.

1952 में पहले संसदीय चुनाव के बाद गठित लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) मुख्य विपक्षी दल बनी थी, जबकि बहुत से लोग कृषक मजदूर प्रजा पार्टी (केएमपीपी) के लिए यह अनुमान लगा रहे थे. इतना ही नहीं, भाकपा के एक नेता रवि नारायण रेड्डी जो तेलंगाना के थे, ने देश में सबसे ज्यादा वोट हासिल किये थे (प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी ज्यादा). ऐसा इसलिए, क्योंकि कम्युनिस्टों की तमाम गुलाटियों के बावजूद तेलंगाना के लोग उनके पीछे मजबूती से खड़े थे. क्यों? ऐसा इसलिए कि भाकपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं की जनता के नजर में बहुत इज्जत थी. अपने नि:स्वार्थ त्याग और आम जन के निमित्त समर्पित सेवा की वजह से, खास कर निजाम के कुशासन के खिलाफ संघर्ष के दौरान. यह बात पश्चिम बंगाल के लिए भी सही थी, जिसने किसानों का ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन देखा. केरल में यादगार वायलार-पुन्नप्रा आंदोलन कम्युनिस्टों को जनता के इतने करीब ले आया कि वे 1957 में बैलेट की जंग में केरल की सत्ता पर काबिज हो गये. भाकपा किसी राज्य का चुनाव जीतनेवाली और बिना सशस्त्र संघर्ष के सरकार बनानेवाली दुनिया की पहली कम्युनिस्ट पार्टी बन गयी.

वामपंथ को पहला बड़ा झटका 60 के दशक में लगा, जब 1962 में हुए भारत पर चीनी आक्रमण की पृष्ठभूमि में ‘नेहरूवियन राज्य’ के प्रति नजरिये को लेकर वैचारिक मतभेद की वजह से भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बड़ी टूट हुई. इसके बाद नयी पार्टी भाकपा (मार्क्‍सवादी) भी इसी नियति का शिकार हुई. 1967 में उत्तर बंगाल में नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद उसके कुछ सदस्यों ने पार्टी छोड़ कर वाम चरमपंथी रास्ता पकड़ लिया. इसमें कोई शक नहीं कि अभी भाकपा और भाकपा (मार्क्‍सवादी) संयुक्त कार्रवाइयां कर रहे हैं, पर उनका पुन: एकीकरण दूर की कौड़ी ही है. छितराये हुए नक्सलवादी समूहों को पार्टी में लाना भी उनके नक्शे पर नहीं है. इन सबके बावजूद, उन इलाकों में जहां आजादी के पहले पार्टी की जड़ें गहरी थीं, वहां ऐसे जन संघर्ष दिखे जो लोगों में वामपंथ के लिए गोलबंदी करते रहे. पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोरचा और बाद में वाम मोरचा सरकारों के गठन ने लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को मजबूत करने में मदद की. राज्य में सत्ता में रहते हुए उसकी चिरस्थायी उपलब्धियों में से एक थी काश्तकारी में बंटाईदारों का पंजीकरण जिसे लोकप्रिय ढंग से ऑपरेशन बर्गा के नाम से जाना जाता था. त्रि-स्तरीय पंचायत प्रणाली के लिए नियतकालिक चुनाव होना जमीनी लोकतंत्र को खाद-पानी देने के वामपंथ के संकल्प का बड़ा सबूत था. केरल में भी, वाम लोकतांत्रिक मोरचा (एलडीएफ) ने समय-समय पर सरकार में आकर ऐसे बड़े कदम उठाये जिसने सामाजिक -आर्थिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर बैठे लोगों की स्थिति को ऊपर उठाया. ऐसा उसने ‘पीपुल्स प्लान’ नामक अभिनव प्रयोग से किया. इसकी नकल कर पश्चिम बंगाल में भी लाभ उठाया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसके बजाय, पश्चिम बंगाल और केरल दोनों में सबसे बड़े वाम घटक भाकपा (मार्क्‍सवादी) की वर्चस्ववादी महत्वाकांक्षा ने एक तरह का किलाबंद ‘पार्टीतंत्र’ खड़ा किया, जिसने लोकतांत्रिक ढंग से कामकाज में बड़े पैमाने पर कटौती की.

वामपंथ की साख की बिल्कुल स्पष्ट अपूरणीय क्षति 2006-07 में हुई, जब पश्चिम बंगाल में वाम मोरचा सरकार ने बेहतरीन कृषि भूमि कारपोरेट घरानों को कौड़ियों के मोल दे दी. उन किसानों से बात किये बगैर जो विस्थापन और आजीविका छिन जाने के संकट का सामना कर रहे थे. और यह किया गया विकास के नाम पर, जो उसी नव-उदारवादी नीति की पैदाइश थी जैसी कि बाकी पूरे देश में चलन में है. स्वाभाविक रूप से, इसने तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया, खास कर सिंगूर और नंदीग्राम में. इसके लिए वाम मोरचा की अगुवाई करनेवाली भाकपा (मार्क्‍सवादी) का नेतृत्व बिल्कुल तैयार नहीं था. पार्टी का कारपोरेट-परस्त रवैया राजनीति को पाशविक बनाने के ‘व्यावहारिक’ कदमों (पश्चिम बंगाल के गरबेटा और केशपुर में तथा केरल के ओंचियाम में भिन्न मत प्रकट करने पर आम लोगों और पूर्व पार्टी सदस्यों पर हुए वहशियाना हमलों में यह दिखा) और नाना प्रकार से वर्चस्व कायम करने की कार्रवाइयों के साथ एकजुट होकर सामने आया. अगर यह पश्चिम बंगाल में 34 सालों के शासन के बाद (जो 2011 में चुनाव में वाम मोरचा की हार के साथ खत्म हो गया) पार्टी के जनता से अलगाव की मुख्य वजह थी, तो केरल में हावी गुट और उसके विरोधियों के बीच आपसी टकराव ने राज्य की भाकपा (मार्क्‍सवादी) को कमजोर किया और जनता में उसकी पकड़ को प्रभावित किया. अभी तक पार्टी में ऐसे किसी साफ -सफाई अभियान के लक्षण नहीं दिखते जिससे वामपंथ में जनता का विश्वास बहाल किया जा सके.

एक सवाल वामपंथी नेताओं से अक्सर किया जाता है : वे देश के विभिन्न हिस्सों खास कर दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में आम आदमी पार्टी (आप) को वामपंथ की जगह क्यों लेने दे रहे हैं? ‘आप’ एक वामपंथी संगठन नहीं है. इसके आदर्श और रुझान वाम दलों से बहुत अलग हैं, लेकिन वह जनता से जीवंत संपर्क बनाने, आम आदमी की समस्याओं को समझने और आंदोलन छेड़ने- संक्षेप में कहें तो जो मौका मिला है उसका इस्तेमाल करने में सफल रहे हैं. वामपंथी कभी ऐसा किया करते थे. इस प्रक्रिया में, स्वाभाविक रूप से कारपोरेटों की लुटेरी और शोषक गतिविधियों से सीधा टकराव सामने आया और नतीजतन ‘आप’ ने जोशीला कारपोरेट विरोधी आंदोलन शुरू किया. इसके उलट, वामपंथ ने अपनी गतिविधियों को कमोबेश बयान जारी करने तक सीमित कर लिया.

यह सही है कि कामगार वर्ग की बढ़ती समस्याओं पर वामपंथी मजदूर संगठनों ने अन्य सभी मजदूर संगठनों को गोलबंद किया- लेकिन रणनीति में नीरसता थी, और विशाल असंगठित क्षेत्र के साथ फासला बरकरार रहा.

फिर भी, यह जिक्र किया जाना जरूरी है कि वामपंथ के कुछ हिस्से, खास कर भाकपा के, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट के भूमि अधिग्रहण (जैसे ओड़िशा में पोस्को द्वारा) के खिलाफ स्वतंत्र वाम ताकतों के आंदोलनों में शामिल हो रहे हैं. माओवादियों के विध्वंस से अलग, भाकपा छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में सरकार और कारपोरेट का साझा हमला ङोलते हुए अस्तित्व, आजीविका और आत्म-सम्मान के लिए आदिवासियों के संघर्ष के साथ अग्रिम मोरचे पर है. लेकिन और बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है. और उस प्रक्रिया में, यह जरूरी होगा कि वामपंथ विकास एक वैकल्पिक आयाम तलाशे जो कि आज के परिदृश्य में जरूरी है. अभी कांग्रेस का जो सफाया हुआ है उसकी वजह अंतरराष्ट्रीय ऋणदाता एजेंसियों की अर्थनीतियों पर आंख मूंद कर चलना है. वामपंथ को चाहिए कि वह आत्म-निर्भरता, गुट-निरपेक्षता और समाज के समाजवादी पैटर्न पर नेहरूवादी चेतना को वापस लाये जिसे शासन में रहते हुए कांग्रेस ने भुला दिया जिसकी वजह से देश इस तरह के भंवर में फंसा है.

ऐसा करते हुए, यह कहने की जरूरत नहीं कि उसे आदर्शो, सिद्धांतों और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के मूल्यों (जो कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गहराई तक पैठे हुए थे) को थामे रखने की अपनी शपथ का फिर से नवीनीकरण करना होगा. यह अभी खास तौर पर जरूरी है जब सत्ता के खेमे में आने के लिए लालायित, अपने संगठनों से अलग हुई ताकतें इन पर लगातार हमला कर रही हैं.

जो हो, मूल बात है वामपंथ की विश्वसनीयता उन लोगों में बहाल करना जो ‘आप’ की तरफ जा रहे हैं. ‘आप’ विभिन्न आवेगों को एकजगह लाने का ठिकाना है. खोयी हुई साख को लौटाना वास्तव में पहाड़ चढ़ने जैसा काम है, लेकिन अगर वामपंथ को अपनी पुरानी हैसियत पानी है और राष्ट्रीय राजनीति में खड़ा होना है तो उसे यह विकट काम पूरी संजीदगी से करना होगा.

(लेखक मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक हैं) (साभार : आउटलुक)

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