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#AtalBihariVajpayee: संसदीय गरिमा के आदर्श व्यक्तित्व

विविधताओं के देश भारत को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी नेतृत्व क्षमता से एक-सूत्र में बांधे रखा. उन्होंने संसद में संवाद को बनाये रखने का जो स्तर स्थापित किया था, आज उसकी कमी साफ देखी जा सकती है. सुधींद्र कुलकर्णी , लेखक देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ऊंचाई देने के बाद राजनीति से […]

विविधताओं के देश भारत को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी नेतृत्व क्षमता से एक-सूत्र में बांधे रखा. उन्होंने संसद में संवाद को बनाये रखने का जो स्तर स्थापित किया था, आज उसकी कमी साफ देखी जा सकती है.

सुधींद्र कुलकर्णी , लेखक
देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ऊंचाई देने के बाद राजनीति से दूर हुए अटल बिहारी वाजपेयी को चौदह वर्ष से अधिक समय बीत चुका था, लेकिन उनके विशिष्ट योगदान के कारण उन्हें हमेशा शिद्दत से याद किया जाता रहेगा. उनका निधन एक अपूरणीय क्षति है. लगभग एक दशक से अटल जी खराब स्वास्थ्य के कारण सार्वजनिक जीवन से भी दूर रहे, फिर भी देश की जनता उन्हें बड़ी ही आत्मीयता और अपनेपन से याद करती रही और आगे भी याद करती रहेगी.

इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व में अनेक असाधारण गुण थे. सर्वाधिक उल्लेखनीय विशिष्टता तो यही थी कि वे भारतीय राजनीति में ‘अजातशत्रु’ थे यानी ऐसा व्यक्ति, जिसका कोई शत्रु नहीं होता. ऐसी राजनीति में बरसों रहते हुए किसी का कोई शत्रु न होना एक बड़ी बात है. सभी सामाजिक वर्गों में उनकी स्वीकार्यता और हर राजनीतिक दल के साथ उनका बहुत अच्छा संबंध रहा. ऐसा इसलिए था, क्योंकि अटल जी के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीय हित सर्वोपरि थे. दल और दलगत राजनीति उनके लिए राष्ट्र के बाद की चीजें थीं. यही कारण है कि उनके 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बहुत पहले से ही लोगों काे ऐसा लगता था कि देश का प्रधानमंत्री अटल जी को ही बनना चाहिए. अंगरेजी में उनके लिए कहा जाता था- ‘द बेस्ट प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया नेवर हैड.’ अर्थात सत्तर-अस्सी के दशकों में ही लोगों में यह धारणा थी कि अटल बिहारी वाजपेयी भारत के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री होने योग्य हैं, जो अभी तक प्रधानमंत्री नहीं बने हैं. परंतु, जब वह प्रधानमंत्री बने और जिस नेतृत्व क्षमता से उन्होंने देश को दिशा दी, उससे वह धारणा सही ही सिद्ध हुई.

यदि हम उनके कार्यकाल पर नजर डालें, तो उनके नेतृत्व से जुड़ी दो अहम चीजें हमारे सामने आती हैं- एक, भारत का विकास और दूसरा, सभी पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सुधारना. खास तौर से पाकिस्तान के साथ जिस ईमानदार गंभीरता से संबंधों को बेहतर करने का उन्होंने प्रयास किया, वह हमारे देश के राजनीतिक इतिहास में एक मिसाल है. जब फरवरी, 1999 में उन्होंने ‘दिल्ली-लाहौर बस’ का परिचालन आरंभ किया, उस बस के एक यात्री और उस अवसर के एक प्रत्यक्षदर्शी के नाते मैं यह कह सकता हूं कि तब पाकिस्तान की जनता में यह उम्मीद गहरे तक बैठ गयी थी कि अटल जी की नीतियों से भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती और अमन की बहाली हो सकती है. लाहौर के गवर्नर हाउस में स्वागत समारोह के दौरान दिया गया अटल जी का भाषण हर दृष्टि से एक ऐतिहासिक भाषण है. उस भाषण में उन्होंने एक कविता भी सुनायी थी, जिसका शीर्षक था- ‘जंग न होने देंगे.’ उस कविता को सुनकर वहां मौजूद पाकिस्तान के लोगों की आंखें नम हो आयी थीं. अटल जी ने यह साबित किया था कि एक नेता अपनी नीयत और नीति से ही पड़ोसी देशाें की आम जनता का दिल जीत सकता है, भाषणबाजी से नहीं.

यह जगजाहिर है कि अटल जी एक बेहतरीन वक्ता थे, ऐसे वक्ता जिनके वक्तृत्व में विचारों की शक्ति थी, वाणी की शक्ति थी और ईमानदारी की शक्ति थी. अटल जी के भाषण में कवि-मन और राष्ट्र नेता का दर्शन का संगम था. आज वैसी गहराई किसी और नेता में नहीं दिखायी देती. एक-दूसरे की बात सुनने, एक-दूसरे का सम्मान करने और संवाद के स्तर को ऊंचा बनाये रखने की संसदीय गरिमा को अटल जी ने कायम रखा था. सार्वजनिक जीवन में अटल जी साहित्य के रास्ते आये थे, राजनीति बाद में घटित हुई. वह बचपन में ही अपने पिता के साथ कवि सम्मेलनों में जाते थे और दिग्गज कवियों के साथ काव्य-पाठ करते थे. संवेदना दूरदृष्टि के कवि अटल जी का प्रतिबिंब हम राजनेता अटल जी में देख सकते हैं.

सबको समान दृष्टि से देखना उनकी राजनीति का मुख्य पहलू था. हमारे राजनीतिक शब्दकोश में एक शब्द है- गठबंधन धर्म- सबको साथ लेकर चलने की नीति का पालन करना. अटल जी इस नीति पर बखूबी चलते रहे. जब वह प्रधानमंत्री थे, तब न केवल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सबसे छोटे घटक दल को भी वह बराबर का सम्मान देते थे, बल्कि कांग्रेस जैसे विपक्ष के लोगों को भी वह वैसा ही सम्मान देते थे. हमारे लोकतंत्र और संसद की गरिमा को ऊंचा बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है.

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