आधी जिंदगी की कविता

हिंदी लेखन का वृत्त सिर्फ परिचित और चर्चित लेखकों के चेहरे से नहीं बनता. वह उन लोगों से भी पूर्णता हासिल करता है, जो अपने सीमित दायरे में लिखते-पढ़ते रहे या जिन्हें इस संसार से असमय विदा होना पड़ा. शैलप्रिया उन्हीं में एक थीं. नामुराद कैंसर की शिकार हो उम्र के 48वें वसंत में अनंत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 26, 2018 8:21 AM
हिंदी लेखन का वृत्त सिर्फ परिचित और चर्चित लेखकों के चेहरे से नहीं बनता. वह उन लोगों से भी पूर्णता हासिल करता है, जो अपने सीमित दायरे में लिखते-पढ़ते रहे या जिन्हें इस संसार से असमय विदा होना पड़ा. शैलप्रिया उन्हीं में एक थीं. नामुराद कैंसर की शिकार हो उम्र के 48वें वसंत में अनंत में विलीन हो चलीं.
अपनी तमाम घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए निरंतर साहित्य-सृजन करना एक स्त्री के लिए दुरूहतर काम है, वह काम शैलप्रिया लगातार करती रहीं. जीवन काल में अविभाजित बिहार के बौद्धिक जगत में गंभीर कवयित्री के रूप में वे मानी जाती रही हैं. वाणी प्रकाशन से विद्याभूषण के संपादन में ‘अर्द्धवृत्त: शैलप्रिया सृजन समग्र’ को प्रकाशित किया गया है.
उनके जाने के तेईस वर्षों के बाद उनकी सारी कविताओं को ढूंढ़-ढूंढ़कर इकट्ठा करने का श्रमसाध्य कार्य विद्याभूषण ने किया है. विद्याभूषण जी से शैलप्रिया जी का प्रेम विवाह हुआ था. उन दोनों के बीच का उदात्त प्रेम ही था, जो उनकी कविताओं में भी दिखता है. डायरी के जो थोड़े से अंश यहां उपलब्ध हैं, उसमें छिटपुट असंतोष दिखायी पड़ता है.
नागेश्वर लाल उनकी कविताओं को रेखांकित करतेे हुए कहते हैं- ‘शैलप्रिया उन धारणाओं से अपने को बचा लेती हैं, जिनके कारण उग्रता या आक्रामकता आ जाती है. स्थितियां कविताओं में इतनी बेधक हैं कि यह असंभव है कि उनके संबंध में आक्रोश न हो.
उद्वेग को वश में रखते हुए इस तरह लिखा गया है कि कविता में पर्याप्त संयम दिखता है.’ उनमें अतिरेक क्षणभर के लिए भी नहीं है- सीढ़ियां गिनती हुई/ चढ़ती-उतरती हुई/ मैं/ खोजती हूं अपनी पहचान/ दुविधाओं से भरे हुए प्रश्न/ रात के अंधेरे में/ प्रेतों की तरह खड़े हूए प्रश्न./ खाली सन्नाटे में/ संतरी से अड़े हुए प्रश्न/ मन के वीराने में/ मुर्दों-से गड़े हुए प्रश्न…
शैलप्रिया कविता में अपने ‘मैं’ को स्त्री-विमर्श के दायरे में कैद नहीं होने देती हैं, लेकिन स्त्री के दुख को निरंतर कविता में दर्ज करती रही हैं- जब कोई औरत/ संवेदना के टूटे-छूटे तार जोड़ती/ अपने बदरंग सी जिंदगी की/किताब पलट देती है,/ मैं पन्नों पर अंकित/ अक्षरों में शामिल/ एक अक्षर बन जाती हूं-/ आग का अक्षर… एक और ‘तेज धूप में’ की पंक्तियां- तेज धूप में/ जब नहा जाता है दिन,/ स्वेदकणों से सींचती है धनिया/ धान का बिरवा/और करमू को दिखता है/ कोठी-भर चावल./ तब चांदनी का होना, न होना/कोई मायने नहीं रखता…
मनोज मोहन

Next Article

Exit mobile version