शास्त्रीय संगीत : ठुमरी की गिरहें और शुभा मुद्गल
भरत तिवारी, कला समीक्षक शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल के गायन का माधुर्य शायद संगीत के प्रति उनके समर्पण में उनके ‘व्यक्तित्व के अपनेपन’ के मिलने की देन है. दिल्ली ठुमरी फेस्टिवल 2018 (14, 15, 16 सितंबर) की पहली शाम (शुक्रवार) को शुभाजी से मैंने ठुमरी के विषय में बातचीत की. उनका कहना है कि ‘ठुमरी […]
भरत तिवारी, कला समीक्षक
शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल के गायन का माधुर्य शायद संगीत के प्रति उनके समर्पण में उनके ‘व्यक्तित्व के अपनेपन’ के मिलने की देन है. दिल्ली ठुमरी फेस्टिवल 2018 (14, 15, 16 सितंबर) की पहली शाम (शुक्रवार) को शुभाजी से मैंने ठुमरी के विषय में बातचीत की. उनका कहना है कि ‘ठुमरी एक बहुत सुंदर, नाजुक और आकर्षक विधा है, सिर्फ खयाल गायकी सीखनेभर से यह मान लेना कि आप ठुमरी भी गा सकते हैं, सही नहीं है.’
शास्त्रीय संगीत के गुरुओं को हमेशा चिंता रहती है कि संगीत की गहराई बनी रहे, क्योंकि यह गहराई ही भारतीय शास्त्रीय संगीत को ऊंचा बनाती है. जिस तरह आज ठुमरी गायन में महारत के दावे आम होते जा रहे हैं, ऐसे में यह देखना कि तालीम कितनी और कैसी है, जरूरी है.
शुभाजी ने बहुत सुंदर बात कही- ‘ठुमरी ओछी नहीं है, ठुमरी इतराती नहीं है, इसमें एक नजाकत जरूर है, शृंगारिकता अवश्य है, लेकिन ठुमरी गरिमामय है.’ शुभाजी के ये शब्द बता रहे हैं कि ठुमरी कैसी-कैसी चुनौतियां झेल रही है. वे कहती हैं- ‘हम बड़े भाग्यशाली हैं कि हमारे पास सिद्धेश्वरी देवी (मृ 1976), बड़ी मोतीबाई (मृ 1977) , रसूलन बाई (मृ 1974), बड़े गुलाम अली खान (मृ 1968), बरकत अली खान (मृ 1963), पं जगदीश प्रसाद (मृ 2011) जैसे महान गायकों की रिकॉर्डिंग मौजूद है. इनमें से किसी ने भी ठुमरी को छिछोरा नहीं बनाया.’
ठुमरी का जन्म शास्त्रीय संगीत और साहित्य के संगम पर होता है और यह संगम इसलिए होता है कि मुझ जैसा साधारण संगीत रसिक, जिसे शास्त्रीय संगीत की जटिलता का ज्ञान नहीं है, वह शब्दों के माध्यम से इससे जुड़ सके. शुभाजी की चिंता यह है कि कई बार लोग इसके साहित्य को, शब्द को, बोल के अर्थ को समझे बगैर गा देते हैं.
ठुमरी में भी हवेली संगीत, गजल और कव्वाली की तरह गिरह (किसी एक गीत के बीच में दूसरे टुकड़े, शेर, दोहे आदि का जोड़ा जाना) लगायी जाती है; यह गिरह बिना तालीम, बिना गहन अभ्यास और गीतों को याद किये बगैर नहीं लगायी जा सकती. ठुमरी, ध्रुपद आदि को ‘बंदिश’ कहते हैं, यानी गायन में क्या-क्या पिरोया जाये, उसकी योजना: बंधी-बंधाई.
दिल्ली वालों को ठुमरी और उसकी अदा से बांधने में साहित्य कला परिषद की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. एक दशक पहले जब यह बंदिश कमजोर हो रही थी, तब परिषद् ने ‘ठुमरी फेस्टिवल’ की गिरह लगाना तय किया. पिछले आठ वर्षों से यह गिरह साल-दर-साल मजबूत होती जा रही है.
परिषद की उप सचिव सिंधु मिश्रा कहती हैं कि 2010 में जब यह फेस्टिवल शुरू हुआ था, तब छह कलाकारों की तलाश भी मुश्किल हो गयी थी. और अब कार्यक्रम के पहले ही दिन कमानी ऑडीटोरियम का हॉल और लॉबी (जहां स्क्रीन की व्यवस्था थी) का श्रोताओं से भरा होना और फिर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री व संस्कृति मंत्री मनीष सिसोदिया का सिंधु मिश्रा की लगन की प्रशंसा करना उप सचिव का कठिन रियाज पर अडिग रहना दिखा रहा था.
शुभाजी दिल्ली सरकार की प्रतिबद्धता से भी खुश नजर आयीं. उन्होंने बताया कि दिल्ली सरकार ने संस्कृति के विकास को ऊर्जा देते हुए फेलोशिप की शुरुआत की है. तो मैं पूछ बैठा- देश की सरकार से आप कुछ कहना चाहेंगी? उन्होंने जवाब दिया- ‘सरकार पहले सुननेवाली तो बने, जब वह भूखे मर रहे किसानों की नहीं सुन रही, तो मेरी क्या सुनेगी.’
शुभाजी जब कमानी के स्टेज पर एंट्री करती हैं, तो सारा हाल गमक उठता है, तालियां जैसे दिल से बज रही हों. उन्होंने चार, एक से बढ़कर एक गायन प्रस्तुत किया- बोल-बनाव की ठुमरी ‘निर्मोही कैसा जादू डारा’; पीलू का दादरा ‘हौले लचक जल भरिये पनिहार’, तिलंग की ठुमरी, जिसमें ब्रज के साथ उर्दू के शब्द ठुमरी के साहित्य की विविधता दर्शा रहे थे.
और अंत में उन्होंने नैना देवीजी से तालीम में सीखा पहला दादरा भैरवी में पेश किया. उनके साथ तबले पर डॉ अनीश प्रधान, हारमोनियम पर सुधीर नायक, तानपुरे पर पूजा वाजिरानी और सारंगी पर दिल्ली के अपने उस्ताद मुराद अली खान ने संगत दी.