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हिंदी में रूमी की गजलें

रूमी की गजलों में कई अंतःकथाएं, मिथक और ऐतिहासिक संकेत भी मौजूद हैं, जिन्हें जाने बिना उन शे’रों को समझना मुमकिन नहीं है, लेकिन डॉ बलराम ने इसका निराकरण कर दिया है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी की सौ गजलों का मूल फारसी से हिंदी अनुवाद ‘निःशब्द नूपुर’ का प्रकाशन ईरान सरकार के आर्थिक सहयोग से महात्मा […]

रूमी की गजलों में कई अंतःकथाएं, मिथक और ऐतिहासिक संकेत भी मौजूद हैं, जिन्हें जाने बिना उन शे’रों को समझना मुमकिन नहीं है, लेकिन डॉ बलराम ने इसका निराकरण कर दिया है.
मौलाना जलालुद्दीन रूमी की सौ गजलों का मूल फारसी से हिंदी अनुवाद ‘निःशब्द नूपुर’ का प्रकाशन ईरान सरकार के आर्थिक सहयोग से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा और राजकमल प्रकाशन, दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में किया गया है. मूल फारसी से पहली बार हिंंदी भाषा में यह अनुवाद डॉ बलराम शुक्ल ने किया है.
हालांकि, अनुवाद में बलराम ने जमकर तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे अनूदित गजल में लय का अभाव दिखता है, जबकि रूमी की गजलें दफ की थाप और नै (बांसुरी) की लय पर गाने के लिए या गाते-नाचते हुए निकली हैं. इन गजलों में जो ऊर्जा, जो प्रवाह, जो लयात्मकता मिलती है, वह अन्य किसी भी फारसी कवि के यहां दुर्लभ है. यह तभी संभव था, जब हिंदुस्तानी भाषा के निकट अनुवाद की भाषा रखी जाती.
तेरहवीं शताब्दी में जन्मे रूमी (13 सितंबर, 1207- 17 दिसंबर 1273) फारसी के सुन्नी मुस्लिम कवि, न्यायविद, इस्लामिक स्कॉलर, दार्शनिक और सूफी रहस्यवादी कवि के रूप में विख्यात रहे हैं. फारसी साहित्य में रहस्यवादी सूफी संत कवि के रूप में उनका स्थान सर्वोच्च माना जाता है.
वे अमेरिका में सबसे ज्यादा बिकनेवाले और सबसे ज्यादा लोकप्रिय ‘मिस्टिक पोएट’ माने जाते हैं. सूफियों के दर्शन को तसव्वुफ कहा जाता है. वे ऐसे साधक होते थे, जो विरक्त, संसार त्यागी और परमात्मा के प्रेम में बेसुध पाये जाते थे.
उनके लिए न इस लोक के प्रलोभनों का कोई अर्थ था और न लोगों की ही उन्हें परवाह थी. रूमी भी शुरुआती दौर में सूफी नहीं थे. वे बड़े रईस आदमी थे. अपने शहर की सबसे बड़ी मस्जिद के मौलाना थे. भूमिका में बलराम लिखते हैं- ‘रूमी जब तक प्रेम से भर नहीं गये थे, तब तक उन्होंने एक भी कविता नहीं लिखी थी.’
रूमी के गजलों में कई अंतःकथाएं, मिथक और ऐतिहासिक संकेत भी मौजूद हैं, जिन्हें जाने बिना उन शे’रों को समझना मुमकिन नहीं है, लेकिन बलराम ने इसका निराकरण कर दिया है. रूमी की मसनवी फारसी का महानतम ग्रंथ है.
इस किताब में पाठकों का ध्यान रखते हुए सबसे पहले फारसी गजलों का देवनागरी में लिप्यंतरण किया गया है, फिर उसका हिंदी अनुवाद भी दिया गया है. अंत में मूल गजलें फारसी लिपि में भी रखी गयी हैं. फारसी मूल से सीधे अनुवाद के साथ ही यह पुस्तक हिंंदी पाठकों के लिए रूमी-रीडर के तौर पर भी उपलब्ध है. यह पुस्तक किसी नये अनुवादक के लिए स्रोत सामग्री के रूप में भी काम आ सकती है.
मनोज मोहन

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