‘स्त्री’ और हॉरर सिनेमा में नये प्रयोग

मिहिर पंड्या, सिनेमा क्रिटिक हिंदी सिनेमा में नब्बे के दशक तक हॉरर ‘बी ग्रेड’ के खांचे में पड़ा रहा. हमने उसे रामसे ब्रदर्स की ‘वीराना’, ‘पुराना मंदिर’ आैर ‘बंद दरवाजा’ जैसी फिल्मों के लिए छोड़ रखा था. अपवाद में ‘महल’ से लेकर ‘गुमनाम’ तक के उदाहरण हैं, लेकिन इन इमोशनल कहानियों में हॉरर बस छौंक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 7, 2018 4:53 AM
मिहिर पंड्या, सिनेमा क्रिटिक
हिंदी सिनेमा में नब्बे के दशक तक हॉरर ‘बी ग्रेड’ के खांचे में पड़ा रहा. हमने उसे रामसे ब्रदर्स की ‘वीराना’, ‘पुराना मंदिर’ आैर ‘बंद दरवाजा’ जैसी फिल्मों के लिए छोड़ रखा था. अपवाद में ‘महल’ से लेकर ‘गुमनाम’ तक के उदाहरण हैं, लेकिन इन इमोशनल कहानियों में हॉरर बस छौंक भर का था.
पश्चिम की तरह हमारे यहां कोई अल्फ्रेड हिचकॉक हुआ नहीं, या हमने होने नहीं दिया. रामसे ब्रदर्स की ‘बी ग्रेड’ हॉरर फिल्मों पर हाल ही में आयी शाम्या दासगुप्ता की किताब ‘डोंट डिस्टर्ब दी डेड’ बहुत दिलचस्प तरीके से उस दौर की कहानी कहती है. नब्बे में रामगोपाल वर्मा ने ‘रात’ आैर ‘भूत’ फिल्मों के साथ इस खांचे को तोड़ा.
अमर कौशिक की ‘स्त्री’ परंपरा आैर आधुनिक विचार का बहुत खूबसूरत मेल है. यह हॉरर का देशीकरण करती है आैर स्थानीय हास्यरस को मिलाते हुए मौलिक कथ्य रचती है. इससे भी खास है लोककथा के माध्यम से सामाजिक रूढ़ि पर चोट करना. ‘स्त्री’ स्पष्ट रूप से दिसंबर 2012 के बाद के हिंदुस्तान की कहानी है, जो जेंडर के भेद को भूतिया पुरातन लोककथा से लेकर आधुनिक लोकप्रिय माध्यम तक हर जगह देखने, पढ़ने को तैयार है.
हंसी-मजाक में ही सही, यह हमें अपनी परंपरा से हासिल आदिम कथाअों आैर दादी-नानी के किस्से कहानियों का नया ‘स्त्री पाठ’ करने का संकेत भी देती है. जिनका इतिहास नहीं होता, वे रूपकों आैर रचनाअों में बोलते हैं.
‘स्त्री’ की व्यावसायिक सफलता आैर भी खास है. यह ऐसे दौर में हासिल हुई है, जब बाजार में नारा बुलंद है कि सिनेमा हॉल में सिर्फ बाहुबली मार्का भव्य ‘स्पेक्टेकल सिनेमा’ ही चलेगा आैर मौलिक कहानियां अंतत: बड़े परदे से खत्म होकर डिजिटल छोटे पर्दे की आेट में सर छुपायेंगी. यह इस बात की गवाही भी है कि अगर हॉलीवुड की चकाचौंध से सीधा मुकाबला करना है, तो हमारे सिनेमा को अपनी स्थानीयता में गहरे पैठना होगा. आैर भाषा इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
भूतिया फिल्म होते हुए भी ‘स्त्री’ में कोई चमत्कारिक स्पेशल इफेक्ट नहीं है. वह इसकी ताकत होनी भी नहीं थी. फिल्म की सबसे बड़ी स्टारकास्ट दरअसल इसकी चुटीली भाषा है. ‘स्त्री’ की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं इसकी मौलिक कहानी आैर चुटीले मुहावरेदार संवाद.
राज निधिमोरु आैर कृष्णा डीके की जोड़ी, जो इस फिल्म की पटकथा लेखक जोड़ी है, इससे पहले हमें निर्देशक के तौर पर ‘शोर इन दि सिटी’, ‘नाइंटी नाइन’, ‘गो गोवा गॉन’ आैर ‘हैप्पी एंडिग’ जैसी मजेदार फिल्में दे चुकी है.
उससे भी खास है सुमित अरोड़ा के अपने समय आैर स्थानीयता में गहरे रचे-बसे संवाद, जो देखनेवाले उत्तर भारतीय दर्शक को किसी परिचित लोककथा सा जकड़ लेते हैं. तिस पर तड़का है राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अपारशक्ति खुराना, अभिषेक बनर्जी आैर विशेष भूमिका में विजय राज की उम्दा अभिनय प्रतिभा का. इनकी मेहनत का कुंदन बोलता है.
‘स्त्री’ अकेला उदाहरण नहीं है हॉरर के क्षेत्र में नये प्रयोग का. नेटफ्लिक्स सीरीज ‘घुल’ भी एक दिलचस्प प्रयोग है. ‘घुल’ है तो एक विज्ञान फंतासी, लेकिन इसका पाठ किसी वर्तमान कथा की तरह किये जाने में ही इसकी चाबी है. ‘घुल’ की दुनिया में लोकतंत्र एक स्थगित विचार है आैर ‘राष्ट्र’ सर्वोपरि है. किताबों को जलाया जा रहा है आैर सत्ता से सवाल पूछनेवाला हर इंसान यहां ‘राष्ट्रद्रोही’ है. ‘मजबूत राष्ट्र’ आैर अनुशासन की चाहत में इंसान के मौलिक अधिकार निलंबित हैं.
क्या यह अपरिचित भविष्य है? कई बार अपने समय को समझने के लिए उससे काल्पनिक दूरी बनाना जरूरी हो जाता है. पश्चिम ने विज्ञान फंतासियों का इस भूमिका में खूब उपयोग किया है. इस मायने में ‘घुल’ जॉर्ज आॅरवेल के क्लासिक उपन्यास ‘1984’ की याद दिलाती है.

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