विश्वकप फुटबॉल में चीन और भारत क्यों नहीं!

दुनिया की कुल जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा चीन और भारत में है. किसी अन्य देश की तुलना में चीन ओलिंपिक पदक जीतने में सबसे ऊपर रहता है, तो भारत में सबसे ज्यादा युवा हैं और तेजी से बढ़ती आबादी है. लेकिन दोनों देश फुटबॉल रैंकिंग में बेहद दयनीय हालत में हैं. इसमें चीन का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 11, 2014 5:25 AM

दुनिया की कुल जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा चीन और भारत में है. किसी अन्य देश की तुलना में चीन ओलिंपिक पदक जीतने में सबसे ऊपर रहता है, तो भारत में सबसे ज्यादा युवा हैं और तेजी से बढ़ती आबादी है. लेकिन दोनों देश फुटबॉल रैंकिंग में बेहद दयनीय हालत में हैं. इसमें चीन का प्रदर्शन अच्छा नहीं है, तो भारत में खराब बुनियादी ढांचा और लचर प्रबंधन चिंता का सबब बना हुआ है. अगर बुनियादी एवं ठोस बदलाव नहीं किये गये तो आनेवाले 20 सालों में भी शायद ही दोनों में से कोई देश विश्वकप का फाइनल मैच खेलते हुए दिखे. विश्वकप फुटबॉल, 2014 कल से शुरू हो रहा है. इस मौके पर चीन और भारत में फुटबॉल की स्थिति के बारे में दुनिया की जानी-मानी संस्थाओं की रिपोर्ट पेश कर रहा है नॉलेज.

चीनी फुटबॉल : बदलेगा दौर?

36 साल पहले आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के शुरू होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन की धमक बढ़ी है. अगर खेलों की बात करें, तो ओलिंपिक पदक तालिका में चीन की रैंकिंग का ग्राफ बढ़ता ही गया है. लेकिन फुटबॉल अब भी अपने दिन बहुरने के इंतजार में है. चीन की विश्व रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है. 2008 से उसकी रैंकिंग 70 से 100 के इर्द-गिर्द घूम रही है. अगर कोई विदेशी पर्यटक चीन में टीवी का स्विच ऑन करे, तो उसे यही प्रतीत होगा कि चीन में फुटबॉल बेहद लोकप्रिय खेल है. चीनी नागरिक फुटबॉल के लालायित प्रशंसक माने जाते हैं, लेकिन 1.3 बिलियन चीनी उन 11 खिलाड़ियों को पैदा कर पाने में सक्षम नहीं हैं, जो राष्ट्रीय टीम के रूप में विश्वकप फाइनल में देश का प्रतिनिधित्व करें.

दरअसल, चीन में फुटबॉल खेलनेवालों की संख्या ही कम है. कुल पंजीकृत खिलाड़ियों की संख्या नीदरलैंड्स से लगभग आधी है, जबकि नीदरलैंड्स की जनसंख्या शंघाई और बीजिंग की जनसंख्या से भी कम है. प्रतिस्पर्धी खेलों में चीन का एकछत्र राज है, जिसकी वजह से ओलिंपिक खेलों में पदकों के मामले में चीन ऊपर पर रहता है. ज्यादा पदक जीतने के कारण छोटे खेलों में फुटबॉल की तुलना में ज्यादा निवेश किया जा रहा है. फुटबॉल मैचों के लिए कम संख्या में पदक दिये जाते हैं और इसमें निपुण हो पाना भी मुश्किल है.

आम तौर पर, ज्यादातर टीम खेलों में चीन का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है. टेबल टेनिस, बैडमिंटन, वेट लिफ्टिंग जैसे जिन खेलों में चीनी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी माने जाते हैं, उनमें शायद ही एक या दो खिलाड़ियों से अधिक होते हैं. बॉस्केटबाल और वालीबॉल में चीन ने कुछ हद सफलता हासिल की है, लेकिन व्यक्तिगत मुकाबलों की तुलना में यह संतोषजनक नहीं है. चीन सुन जिहाई और याओ मिंग जैसे विश्वस्तरीय खिलाड़ियों को तैयार कर पाने में सक्षम है, लेकिन बास्केटबाल में चार और खिलाड़ियों की जरूरत होती है, जबकि फुटबॉल में समान क्षमता वाले 10 और खिलाड़ियों की जरूरत होती है, जो चीन अब तक पैदा कर पाने में असफल ही रहा है.

संभावित टर्निग प्वाइंट

सुधार-प्रक्रिया के शुरुआती दौर में चीनी फुटबॉल का प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि देंग जियाओपिंग खुद एक फुटबॉल प्रशंसक थे. चीन को फिर एक फुटबॉल-प्रेमी राजनेता मिला है और 2012 के अंत में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद फुटबॉल में निवेश में नाटकीय बढ़ोतरी हुई है. विश्व फुटबॉल के कुछ बड़े नामों ने चीन में काम किया है, जिनमें मार्सिलो लिप्पी और स्वेन एरिक्सन जैसे लोग शामिल हैं. रियल इस्टेट के कई बड़े कारोबारी खेलों में आर्थिक मदद भी कर रहे हैं. हालांकि अर्थव्यवस्था में नरमी और प्रॉपर्टी बाजार के ठंडे पड़ने से चीन में कुछ समय के लिए फुटबॉल में निवेश में कमी आ सकती है. नयी सरकार द्वारा चलायी जा रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम फुटबॉल के लिए बेहतर माहौल तैयार करने में मददगार हो सकती है. कुछ साल पहले सरकार ने बदलाव की प्रक्रिया शुरू की थी और भ्रष्टाचार के आरोप में कई अधिकारियों और खिलाड़ियों को जेल तक पहुंचा दिया गया था. ऐसे फैसलों की ही वजह से योग्यता और प्रदर्शन के आधार पर खिलाड़ियों और कोचों के चयन की उम्मीदें जगी हैं. 2008 के बीजिंग ओलिंपिक में स्वर्ण पदक तालिका में सबसे ऊपर रहने के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा है कि चीनी समाज में ओलिंपिक पदकों को लेकर आसक्ति कुछ कम हुई है. ज्यादातर लोग युवाओं के लिए खेलों के विकास पर बल दे रहे हैं, क्योंकि रहन-सहन में हो रहे बदलाव की वजह से मोटापा एक बड़ी समस्या बन कर उभर रहा है. इससे फुटबॉल खेलनेवाले बच्चों की संख्या बढ़ सकती है.

आनेवाले वर्षो में चीनी फुटबॉल की स्थिति बेहतर हो सकती है, अगर चीन ज्यादा संख्या में युवा खिलाड़ियों को उच्च स्तरीय प्रशिक्षण देने के लिए दीर्घकालिक व्यवस्था कर सके. लेकिन फुटबॉल में अग्रिम पंक्ति के देशों की कतार पहुंचने और विश्वकप जीतने के योग्य बनने के लिए एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा और यह कुछ पीढ़ियों के बाद ही संभव हो सकता है.

भारत : अभी कोसों दूर

फीफा की 207 देशों की ताजा विश्व रैंकिंग में भारत 147वें पायदान पर है और कभी विश्वकप के लिए क्वालीफाई नहीं कर सका है. सेनेगल, बोत्सवाना, घाना, रवांडा, जांबिया और हैती जैसे बेहद कम जनसंख्या और क्षेत्रवाले देश रैंकिंग में भारत से बहुत ऊपर हैं. लेकिन भारत 11 विश्वस्तरीय खिलाड़ियों को पैदा कर पाने में असमर्थ रहा है, जबकि 1.2 अरब से अधिक की जनसंख्या वाले इस देश में लगभग 30 प्रतिशत नागरिक 10 से 24 वर्ष की आयु वर्ग के हैं.

ज्यादा खुली जगह व युवा जनसंख्या होने के बावजूद भारत में फुटबॉल पेशेवराना तौर पर सफल नहीं हो सका है. इसे हम ग्रोथ इन्वायर्नमेंट स्कोर (जीइएस) के द्वारा देखने की कोशिश करते हैं. जीइएस राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक संकेतकों को रेखांकित करता है, जो किसी अर्थव्यवस्था के आगे बढ़ने की क्षमता को प्रभावित करते हैं. जीइएस की बेहतरी और फीफा विश्व रैंकिंग में मजबूत परस्पर संबंध हैं. फीफा रैंकिंग में ज्यादातर देश जो ऊपर रखे गये हैं, उन्होंने वर्षो से ग्रोथ इन्वायर्नमेंट स्कोर को बेहतर बनाया है, जबकि पिछले एक दशक में भारत में ग्रोथ इन्वायर्नमेंट स्कोर में मामूली बढ़ोतरी हुई है और फीफा विश्व रैंकिंग में यह अब भी काफी नीचे है.

भारतीय फुटबॉल की दुर्दशा

भारत में फुटबॉल की निराशाजनक स्थिति के लिए कई कारण हैं.

-खराब बुनियादी ढांचा- भारत में फुटबॉल स्टेडियम, मूलभूत सुविधाओं और बुनियादी ढांचे की बहुत कमी है.

-क्रिकेट से चुनौती- भारतीय फुटबॉल को अन्य खेलों, विशेषकर क्रिकेट, से जोरदार प्रतिस्पर्धा मिलती है, जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय खेल है और प्रायोजकों व मीडिया को आकर्षित करता है. फुटबॉल उतना लोकप्रिय खेल नहीं है और पूर्वी तथा पश्चिम भारत के कुछ छोटे हिस्सों तथा दक्षिण के केरल में ही पेशेवर रूप से खेला जाता है.

-हरीकरण की कमी : फुटबॉल ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में ही खेला जाता है और सरकारी मदद नहीं मिलने के कारण खिलाड़ियों को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है. जिन देशों में शहरी जनसंख्या का अनुपात अपेक्षाकृत ज्यादा है, वे फुटबॉल रैंकिंग में भी ऊपर हैं.

-लचर प्रबंधन : फुटबॉल संस्थाओं के प्रबंधक इस खेल से जुड़े हुए नहीं हैं और उनकी नियुक्ति राजनीतिक होती है. इससे खेलों के प्रति उदासीनता बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है.

-प्रशिक्षण की कमी : उच्च स्तरीय प्रशिक्षण की व्यवस्था न होना भी भारत में खेलों के विकास में बड़ा अवरोध है.

कुल मिलाकर भारतीय फुटबॉल को विश्व मंच पर उपस्थिति दर्ज कराने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है. इसके लिए सरकार, मीडिया, व्यवसाय और सबसे महत्वपूर्ण आम जनता के समर्थन की जरूरत है. हाल-फिलहाल में कुछ सकारात्मक कदम उठाये गये हैं, जैसे- इंडियन सुपर लीग की स्थापना, जो फुटबॉल संस्थाओं, कॉरपोरेट और सेलेब्रेटी को एक साथ जोड़ता है. इसके अलावा इंगलिश प्रीमियर लीग ने भी भारत में फुटबॉल प्रतिभाओं को खोजने की योजना शुरू की है. धीरे-धीरे शहरी स्कूलों में फुटबॉल की लोकप्रियता बढ़ रही है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय मानकों तक पहुंचाने के लिए भारतीय फुटबॉल को अभी बहुत कुछ करना है. हमारा मानना है कि 20 वर्षों की अवधि भी भारत के विश्वकप में पहुंचने की संभावना के लिए कम ही है.

(गोल्डमैन सैच्स की वेबसाइट से साभार)

क्या भारत एक खेल-प्रेमी देश नहीं है!

भारत में फुटबॉल को क्रिकेट जैसी लोकप्रियता कभी नहीं मिली है. क्रिकेट के जिन महत्वपूर्ण मैचों में भारतीय टीम खेल रही होती है, उन्हें 40 करोड़ तक लोग टेलीविजन पर देखते हैं. 2008 में शुरू हुए इंडियन प्रीमियर लीग के हर मैच को लाखों लोग देखते हैं और इस लीग का वर्तमान ब्रांड वैल्यू तीन बिलियन डॉलर है. दूसरी ओर, सिर्फ 60 लाख लोगों ने 2010 में दक्षिण अफ्रीका में हुए फुटबॉल विश्वकप का फाइनल मैच टीवी पर देखा था. भारत के सबसे बड़े पेशेवर फुटबॉल लीग (आइ-लीग) के दर्शकों की औसत संख्या महज 4,000 है और इसकी अधिकतर टीमें वित्तीय कठिनाइयों से जूझती रहती हैं.

हालांकि भारतीय फुटबॉल पर ग्रहण सिर्फ क्रिकेट की वजह से नहीं लगा है, बल्कि यह पहले से ही पतन के गर्त में है. फुटबॉल की वैश्विक संस्था ‘फीफा’ की रैंकिंग में देश की राष्ट्रीय टीम 147वें स्थान पर पहुंच चुकी है. अफगानिस्तान और उत्तरी कोरिया जैसे देश भी इस सूची में भारत से ऊपर हैं. देश में इस खेल में गिरावट के साथ ही निवेश भी बंद होता गया और संबंधित बुनियादी सुविधाओं की कमी भी बढ़ती गयी. पेशेवर टीमें खराब स्टेडियमों में खेलती हैं. आइ-लीग के प्रमुख सुनंदो धर ने पिछले वर्ष इस स्थिति के मूल को इन शब्दों में बयान किया था- ‘भारत में खेलों के प्रति जुनून की कमी है और सच में यह एक खेल-प्रेमी देश नहीं है.’ धर की इस बात में दम है, क्योंकि क्रिकेट को छोड़ कर भारत को किसी अन्य खेल में महारत हासिल नहीं है.

पिछले ग्रीष्म ओलिंपिक में इसे सिर्फ छह मेडल मिले थे, जिनमें एक भी गोल्ड मेडल नहीं था. लेकिन, सुनंदो धर भी भारत में फुटबॉल के भविष्य को लेकर आशान्वित हैं. अमेरिका की तरह, यहां भी पीढ़ीगत परिवर्तन के संकेत हैं. भारत में 2010 के फुटबॉल विश्वकप के मैचों के दर्शकों की संख्या भले कम रही हो, लेकिन इनमें अधिकतर युवा थे. यहां विदेशी लीग भी काफी लोकप्रिय हैं. खेलों के प्रबंधन से जुड़ी वैश्विक कंपनी ‘आइएमजी’ के अनुसार हर वर्ष 131 मिलियन भारतीय टेलीविजन पर फुटबॉल, विशेषकर यूरोपियन या स्पेनी लीगों के टूर्नामेंट, देखते हैं. अन्य अध्ययनों ने भी यह इंगित किया है कि फुटबॉल के दर्शकों की संख्या बढ़ रही है. मैनचेस्टर यूनाइटेड, लिवरपूल और बार्सिलोना जैसे यूरोपीय क्लबों ने भारत में खिलाड़ियों के लिए प्रशिक्षण संस्थाएं खोल दी है. उन्हें इस बात का अहसास है कि किसी भारतीय खेल सुपरस्टार के खोजे जाने का उनके समर्थकों के लिए क्या मायने होंगे. नये इंडियन सुपर लीग के एक प्रचार-सामग्री में वर्तमान माहौल का संकेत है. इसमें लिखा गया है- ‘क्रिकेट पिताओं का खेल था, फुटबॉल पुत्रों का खेल है.’

क्रिकेट के प्रचारकों को अभी नयी पीढ़ी के मामले का संज्ञान है, इसलिए उन्होंने खेल के लघु रूप ‘आइपीएल’ को स्थापित किया, ताकि नयी पीढ़ी को आकर्षित किया जा सके. अब फुटबॉल में आइपीएल की तर्ज पर ‘सुपर लीग’ लाया गया है, जो सितंबर में शुरू होगा. रिलायंस इंडस्ट्रीज और आइएमजी द्वारा स्थापित इस लीग में भारतीय खिलाड़ियों की आठ टीमें होने की उम्मीद है, जिनमें कुछ बड़े विदेशी खिलाड़ी भी होंगे. इस लीग ने क्रिकेट के सबसे बड़े बल्लेबाज सचिन तेंडुलकर को भी साथ लिया है, जिनकी एक टीम में हिस्सेदारी होगी. इसमें बॉलीवुड के अनेक अभिनेता भी शामिल हैं. निश्चित रूप से, इंडियन सुपर लीग दिखावे से भरा है. लेकिन, शुरू में मेजर लीग सॉकर (अमेरिका) भी तो ऐसा ही था.

Next Article

Exit mobile version