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रंगमंच के समृद्ध इतिहास वाले शहर इलाहाबाद में रंगकर्म की हालत

अमितेश, रंगकर्म समीक्षक सितंबर में इलाहाबाद में प्रस्तुति देखी विभांशु वैभव लिखित नाटक ‘महारथी’ की. यह नाटक कर्ण के नजरिये से महाभारत की कथा कहता है. इसके संवादों में आज के जीवन का विमर्शात्मक द्वंद्व निहित है, जो इसको प्रासंगिक बनाता है. प्रस्तुति का निर्देशन प्रवीण शेखर ने किया था. प्रवीण इलाहाबाद में ‘बैकस्टेज’ नाम […]

अमितेश, रंगकर्म समीक्षक
सितंबर में इलाहाबाद में प्रस्तुति देखी विभांशु वैभव लिखित नाटक ‘महारथी’ की. यह नाटक कर्ण के नजरिये से महाभारत की कथा कहता है. इसके संवादों में आज के जीवन का विमर्शात्मक द्वंद्व निहित है, जो इसको प्रासंगिक बनाता है. प्रस्तुति का निर्देशन प्रवीण शेखर ने किया था.
प्रवीण इलाहाबाद में ‘बैकस्टेज’ नाम से एक रंगमंडल का संचालन करते हैं. उनके निर्देशित नाटकों की प्रस्तुति भारत रंग महोत्सव, जश्ने बचपन जैसे प्रतिष्ठित समारोहों में हुई है. वे बाल रंगमंच और रंग अध्यापन में भी सक्रिय हैं.
प्रवीण इलाहाबाद के कैंपस थियेटर से निकले रंगकर्मी हैं, जिसमें सचिन तिवारी जैसे अध्यापक थे और एक जमाने में तिग्मांशु धूलिया भी. प्रवीण ने रंगकर्म का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया. बीएम शाह, बीवी कारंत और रतन थियम जैसे निर्देशकों की संगति में सीखते रहे. शौकिया और अस्थायी प्रकृति के अभिनेताओं के साथ संसाधन-सुविधा की कमी से जूझते हुए प्रवीण ने विभांशु के इस नाटक को चुस्त अंदाज में पेश किया, गति ऐसी रखी कि कथ्य का प्रभाव अपने पैनेपन के साथ दर्शकों तक पहुंचे.
इलाहाबाद जैसे शहर में जहां रंगकर्म करने के लिए बहुत सारी भौतिक परेशानियां हैं, प्रस्तुति का ऐसा प्रोफेशनल टेक्सचर बनाना सहज नहीं है. प्रस्तुति में कुछ कमियां थीं, लेकिन उन्होंने इसे एक सप्ताह के अंतराल में शहर के तीन हिस्सों में किया.
इलाहाबाद में प्रस्तुतियां नियमित अंतराल पर होती रहती हैं. शहर में छोटे-बड़े कई रंग समूह हैं. अतुल यदुवंशी की स्वर्ग जैसी संस्था है, जो नौटंकी की पारंपरिक शैली में आधुनिक कथाओं को पेश करने का नवाचार कर रही है और अनिल रंजन भौमिक का समूह समानांतर भी है, बावजूद इसके शहर के रंगमंच में वैसी गतिशीलता नजर नहीं आती. सोशल मीडिया के प्रसार के दौर में भी यहां के रंगमंच की जानकारी बाहर की दुनिया को कम तो है ही, शहर की दुनिया को भी कम है.
इलाहाबाद के रंगमंच का इतिहास समृद्ध रहा है. पारंपरिक रंगमंच में यहां रामलीला के मंचन की बहुत पुरानी परंपरा है, तो आधुनिक हिंदी रंगमंच के शुरुआत के समय ही 1870-71 में यहां आधुनिक नाटक मंडली का गठन हो गया. शहर के रंगमंच को माधव शुक्ल ने गति दी जो अभिनेता, नाटककार और संगठनकर्ता भी थे.
अपने नाटकों के जरिये ही उन्होंने आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था. आजादी के तुरंत बाद यहां 1948 में इप्टा का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ और आधुनिक रंग चेतना से युक्त नाटकों का मंचन-लेखन हुआ, नाट्य दल बने. ‘अंधायुग’ लिखनेवाले धर्मवीर भारती इसी शहर में रहे थे, तो हिंदी में एब्सर्ड नाटक लिखनेवाले विपिन कुमार अग्रवाल जैसे नाटककार भी. सत्यव्रत सिन्हा ने ‘अंधेर नगरी’ और ‘मिट्टी की गाड़ी’ के साथ सैमुअल बैकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ को मंचित कर हिंदी प्रदेश के रंगकर्मियों का ध्यान इलाहाबाद की ओर खींचा था.
नब्बे के बाद के दौर में भी इलाहाबाद रंगमंच पर हुए प्रयोगों ने अपनी तरफ ध्यान खींचा, लेकिन अभी हिंदी रंगमंच के मौजूदा नक्शे पर इसकी वैसी मजबूत स्थिति नहीं है. इसका कारण है स्थायी अभिनेताओं का अभाव, रंग स्पेस का अभाव, मनोरंजन के अन्य माध्यमों का तेजी से उभार, रंग समुदाय का अभाव आदि. इलाहाबाद विवि के शिथिल पड़ने का भी प्रभाव शहर के रंगमंच पर पड़ा जो कभी दर्शक, अभिनेता और आलोचक देता था.
यहां उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र भी है, जिसमें बहुत-सी गतिविधियां होती हैं, लेकिन उससे शहर के रंगमंच में कुछ उद्वेलन नहीं आती. इस केंद्र का प्रेक्षागृह, जो यहां के ज्यादातर रंग समूह इस्तेमाल करते हैं, अच्छी प्रस्तुति के अनुकूल नहीं है. केंद्र को एक बहुद्देश्यीय रंग स्पेस बनवाना चाहिए.

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