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जलवायु परिवर्तन का खतरा : 2050 में दुनिया को भुखमरी से बचाना है, तो करना होगा यह काम

ग्लोबल वार्मिंग के कई खतरे बताये जा रहे हैं. इसमें एक सबसे बड़ा संकट है, खाद्य संकट. इस मामले में एक अच्छी खबर है. इस संकट से निबटा जा सकता है. इसके लिए थोड़ी-सी एहतियात बरतनी होगी. कुछ कदम उठाने होंगे. इस विषय पर हुए पहले अध्ययन की रिपोर्ट ‘नेचर’ पत्रिका में छपी है. रिपोर्ट […]

ग्लोबल वार्मिंग के कई खतरे बताये जा रहे हैं. इसमें एक सबसे बड़ा संकट है, खाद्य संकट. इस मामले में एक अच्छी खबर है. इस संकट से निबटा जा सकता है. इसके लिए थोड़ी-सी एहतियात बरतनी होगी. कुछ कदम उठाने होंगे. इस विषय पर हुए पहले अध्ययन की रिपोर्ट ‘नेचर’ पत्रिका में छपी है.

रिपोर्ट के मुताबिक, वैज्ञानिकों का मानना है कि फूड सिस्टम क्लाइमेट चेंज या जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारक है. लैंड यूज में बदलाव, खत्म होते शुद्ध जलस्रोत, नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस के अत्यधिक इस्तेमाल से जलीय एवं स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र को काफी नुकसान होता है.

वैज्ञानिकों ने कहा है कि तकनीक के अभाव में वर्ष 2010 और 2050 के बीच आबादी और लोगों की आय में संभावित परिवर्तनफूडसिस्टम पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव को 50 से 90 फीसदी तक बढ़ा देगा. इसका प्रभाव इतना अधिक होगा कि इसे नियंत्रित कर पाना मानव के वश में नहीं रह जायेगा.

हालांकि, वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने कुछ उपाय पर विचार किये हैं, जो पर्यावरण पर खाद्य प्रणाली या फूड सिस्टम के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को कम किया जा सकता है. वैज्ञानिकों का रिसर्च कहता है कि यदि खानपान में तब्दीली करके लोग शाकाहार की ओर बढ़ें, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन में सुधार करें, खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोकें, तो इस समस्या से पार पाया जा सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने ग्रह को बचाने के लिए इनमें से कोई एक उपाय ऐसा नहीं है, जो अपने आप में पर्याप्त हो. यदि सभी उपायों पर एक साथ अमल किया जाये, तभी पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सकता है. अध्ययन कहता है कि वर्ष 2050 में 10 अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए ये उपाय करने ही होंगे.

नेचर जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि योग्य भूमिके इस्तेमाल, ताजा पानी का दोहन और खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषित होने से बचाकर वैश्विक जलवायु परिवर्तन के असर को बहुत हद तक कम किया जा सकता है.

यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जिसमें खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर पड़ने वाले असर के बारे में विस्तार से बताया गया है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ऑक्सफोर्ड मार्टिन प्रोग्राम ऑन द फ्यूचर ऑफ फूड और द नुफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ पॉपुलेशन हेल्थ के डॉ मार्को स्प्रिंगमैन कहते हैं कि जब तक समग्र उपाय नहीं किये जायेंगे, जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया जा सकता है.

डॉ स्प्रिंगमैन का कहना है कि वर्ष 2050 में बढ़ती आबादी का नतीजा यह होगा कि फैट, शुगर और मीट की मांग बढ़ेगी. इस मांग को पूरा करने के लिए अपने ग्रह पर उपलब्ध संसाधन कम पड़ जायेंगे. कुछ चीजों की मांग तो आज की तुलना में दो गुणा से अधिक बढ़ जायेगी.

कई संस्थाओं ने अध्ययन के लिए पैसे दिये

इस महत्वपूर्ण अध्ययन के लिए EAT ने EAT-लांसेट कमीशन फॉर फूड, प्लानेट एंड हेल्थ और वेलकम के ‘आवर प्लानेट, आवर हेल्थ’ ने फंडिंग की. अध्ययन का उद्देश्य दुनिया भर में खाद्य पदार्थों के उत्पादन और सेवन के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र करना था. इस मॉडल केजरिये शोधकर्ताओं नेउन विकल्पों का विश्लेषण किया, जो खाद्य प्रणाली को पर्यावरण सीमाओं में रख सकते हैं.

अध्ययन का निष्कर्ष

वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन के बाद पाया कि जब तक खानपान में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, शाकाहार की ओर लोग नहीं बढ़ेंगे, इस समस्या से निबटना मुश्किल होगा. यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटकर आधा रह जायेगा. पर्यावरण पर पड़ने वाले कुछ अन्य असर भी कम होंगे. मसलन कृषि योग्य भूमि के इस्तेमाल, शुद्ध पेयजल और खाद के इस्तेमाल भी कम हो जायेंगे.

यदि मौजूदा कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता बढ़ायी जाये, खाद के इस्तेमाल को सीमित किया जाये, जल प्रबंधन में सुधार किया जाय के अलावा कुछ और उपाय कर लिये जायें, तो संकट के असर को आधा किया जा सकता है.

16 फीसदी तक कम हो सकता है ग्लोबल वार्मिंग का असर

खाद्य प्रणाली को पर्यावरण की सीमा के दायरे में रखा जाये और खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोक दी जाये, तो पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को 16 फीसदी तक कम किया जा सकता है. स्प्रिंगमैन कहते हैं कि दुनिया के कुछ हिस्सों में समाधान के इन उपायों पर अमल होने लगा है. लेकिन, यह पर्याप्त नहीं है. यदि अपने ग्रह को बचाना है, तो वैश्विक स्तर पर सहयोग और इस पर तेजी से अमल करने की जरूरत महसूस की जा रही है.

जागरूकता लाने के रास्ते भी बताये

डॉ स्प्रिंगमैन कहते हैं कि यदि हमें बेहतर दुनिया चाहिए तो इस पर सख्ती से अमल करना ही होगा. स्कूलों और कार्यस्थलों पर इस संबंध में कार्यक्रम के जरिये लोगों को जागरूक करना होगा. आर्थिक प्रोत्साहन देना होगा. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर खानपान से जुड़ी एक गाइडलाइन बनानी होगी. इसमें लोगों को बताना होगा कि किस तरह ये सारी चीजें हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों को प्रभावित कर रही है. उन्हें नुकसान पहुंचा रही है.

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