इराक़ संकट: छह ग़लतियां जो महँगी साबित हुईं

जोनाथन मार्कस बीबीसी संवाददाता आधुनिक मध्य पूर्व की मौजूदा सरहदें बड़े पैमाने पर प्रथम विश्व युद्ध की विरासत हैं. इन्हें ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद औपनिवेशिक ताक़तों ने स्थापित किया था. ये सीमाएं दो प्रमुख वजहों से ख़तरे में हैं – एक तो सीरिया में लगातार चल रही लड़ाई और उसका विघटन और इराक़ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 13, 2014 11:38 AM

आधुनिक मध्य पूर्व की मौजूदा सरहदें बड़े पैमाने पर प्रथम विश्व युद्ध की विरासत हैं. इन्हें ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद औपनिवेशिक ताक़तों ने स्थापित किया था.

ये सीमाएं दो प्रमुख वजहों से ख़तरे में हैं – एक तो सीरिया में लगातार चल रही लड़ाई और उसका विघटन और इराक़ पर आईएसआईएस यानी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ और लेवेंट का हमला. जब तक आईएसआईएस के क़ब्ज़े में आए इलाक़ों को सेना वापस नहीं पा लेती, इराक़ पहले के मुक़ाबले अब ज़्यादा ख़तरे में है.

सीरिया और इराक़ में दोहरे संकट की वजह से पूर्वी सीरिया और पश्चिमी इराक़ को लेकर एक ‘राज्य’ की संभावना को बल मिला है जिस पर इस वक़्त आईएसआईएस के जिहादियों का क़ब्ज़ा है.

इसका इस इलाक़े और इसके बाहर काफ़ी गहरा असर पड़ेगा. इराक़ एक के बाद एक बड़े संकट से गुज़र रहा है. तो ग़लतियां कहां हुईं.

शिया-कुर्द की उपेक्षा

कुछ के लिए इराक़ की समस्याएं उसके जन्म के साथ ही शुरू हुईं हैं, जब आधुनिक इराक़ी राष्ट्र की स्थापना हुई. एक औपनिवेशिक ताक़त के रूप में ब्रिटेन ने हैशेमाइट साम्राज्य की स्थापना की जिसने शिया और कुर्द जैसे समुदायों की तक़रीबन उपेक्षा की- जो इराक़ के इतिहास में लगातार देखने को मिलता है.

राजशाही को बाथिस्ट तख्तापलट के ज़रिए उखाड़ फेंका गया, उसी तरह जैसे मिस्र में धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रवादी और आधुनिक ताक़तों ने नासिर के शासन को सत्ता दिलाई थी.

इसी आधार पर सद्दाम हुसैन ने सत्ता संभाली थी, जिनकी सुन्नी प्रभुत्व वाली सत्ता ने शियाओं और कुर्दों के साथ सख़्ती दिखाई थी.

सद्दाम को ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान पश्चिम का सहयोग मिला, जिसने उनकी क्रूर सत्ता को और मज़बूती दी.

‘ऑपरेशन इराक़ी फ़्रीडम’

बाथिस्ट राज्य को 2003 में इराक़ पर अमरीकी-ब्रितानी हमले ने नेस्तनाबूद कर दिया. सद्दाम हुसैन को आख़िर पकड़ा गया और अंतत: नई इराक़ी सरकार ने मौत की सज़ा सुनाई. इराक़ की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया गया और एक नए सुरक्षा बल की नींव पड़ी.

इस युद्ध को कुछ नवअनुदारवादियों ने इलाक़े में लोकतंत्र की बहाली के प्रयास के रूप में देखा, जिसने नए राजनीतिक समीकरणों को पैदा किया, जिसने सभी समुदायों के एकीकरण की कोशिश में आखिरकार एक शिया बहुल राज्य की स्थापना की.

बहुत से लोगों को इस पर ताज्जुब था कि इराक़ एकीकृत राज्य के बतौर कैसे रह पाएगा जब उत्तर में कुर्द बड़े पैमाने पर स्वायत्तशासी होने में सक्षम थे.

अमरीका की विदाई

इराक़ में स्थानीय सेना की मदद के लिए कुछ सैन्यबल रखने की शुरुआती योजनाओं के बावजूद इराक़ और अमरीका किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके. आखिर दिसंबर 2011 में अमरीका ने तक़रीबन अप्रभावी इराक़ी सेना के हाथ सुरक्षा सौंपकर अपने सैनिकों को वापस बुला लिया.

अमरीका ने अल क़ायदा से जुड़े जिहादी चरमपंथ से निपटने के लिए कुछ सुन्नी ग्रुपों को तैयार करने में कामयाबी पाई थी. अमरीकियों के बिना ये व्यवस्था तुरंत टूट गई. सुन्नी तेज़ी से शिया प्रभुत्व वाले सरकारी सुरक्षा बलों का शिकार होने लगे.

वास्तव में इराक़ी सुरक्षा बलों की मनमानी ने आईएसआईएस के लिए जवानों को तैयार करने में मदद की.

नए इराक़ में संप्रदायवाद

सद्दाम हुसैन को उखाड़ फेंकने की अमरीकी कार्रवाई का विरोधाभास यह है कि इराक़ को एक क्षेत्रीय सत्ता के बतौर नष्ट करके उन्होंने ईरान के तेज़ी से उदय के लिए ज़मीन तैयार की. ईरान ने इराक़ में शिया सत्ताधारियों को इलाक़ाई संघर्षों में अपने सहयोगी के बतौर देखना शुरू कर दिया.

शायद ईरान का सहारा पाकर ही प्रधानमंत्री नूरी मलिकी के शिया श्रेष्ठतावाद ने बहुत से सुन्नियों को उनका दुश्मन बना दिया और इसके बाद सुरक्षा से जुड़ी समस्याएं पैदा हो गईं.

आर्थिक और सामाजिक हार

संप्रदायवाद और सुन्नी शिया विभाजन को बहुत से समीक्षक मुर्गी और अंडे की स्थिति की तरह देखते हैं.

तो क्या सांप्रदायिक मतभेद खुद में समस्या हैं या इराक़ी राज्य के सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर हार ने और भी कड़वाहट पैदा की है.

अपने तेल की समृद्धि के बावजूद इराक़ी आमतौर पर ग़रीब हैं और देश में भ्रष्टाचार का स्तर बेहद ऊंचा है.

क्षेत्रीय आधार

मध्य पूर्व में जो कुछ घटित होता है, अचानक नहीं होता. इराक़ियों ने अपनी समस्याओं से जूझते हुए अरब मुल्कों में हुए विद्रोह को आते-जाते देखा है, मिस्र में तक़रीबन पूर्ण राजनीतिक बदलाव को होते हुए पाया है, और पड़ोसी सीरिया में हो रही उठापटक भी महसूस की है. वहां जिहादी गतिविधियों ने निश्चित ही सीमा पार इराक़ पर भी असर डाला है.

खाड़ी देशों की तरफ़ से सुन्नी लड़ाकों की मदद ने भी आईएसआईएस जैसे संगठनों को पैर जमाने में मदद की है जिनका एक बड़ा क्षेत्रीय एजेंडा है.

और जब सीरिया के असद शासन और जिहादियों के बीच सीधे संघर्ष को साबित करना मुश्किल है, इस बात की बहुत ख़बरें हैं कि सीरियाई सरकार की सेना ने ऐसे ग्रुपों पर बहुत कम ध्यान दिया है और इसके बजाय ज़्यादा उदार पश्चिम समर्थित लड़ाकों पर अपनी बंदूक़ें तान रखी हैं. इसने आईएसआईएस को अपना प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने में मदद की है, जहां उसका प्रभाव है.

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