100 Years of World War1 : सिर्फ जर्मनी ने नहीं, सभी ने चुकाया अपने-अपने हिस्से का हर्जाना

पेरिस : प्रथम विश्व युद्ध 1918 में खत्म हो गया. इसमें जीतने वाले सभी देशों ने एकमत से तय किया कि इसका पूरा हर्जाना जर्मनी भरेगा. उस वक्त चर्चा सिर्फ इस बात की थी कि जर्मनी से हर्जाने के रूप में क्या वसूला जाये. प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने सबको हर्जाना चुकाया जरूर, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 11, 2018 12:41 PM

पेरिस : प्रथम विश्व युद्ध 1918 में खत्म हो गया. इसमें जीतने वाले सभी देशों ने एकमत से तय किया कि इसका पूरा हर्जाना जर्मनी भरेगा. उस वक्त चर्चा सिर्फ इस बात की थी कि जर्मनी से हर्जाने के रूप में क्या वसूला जाये.

प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने सबको हर्जाना चुकाया जरूर, लेकिन वह अकेला नहीं था. एक सदी बाद भी दुनिया वर्साय की शांति संधि का मोल चुका रही है.

हालांकि, उस वक्त भी इस संधि की खूब आलोचना हुई थी और कहा गया था कि यह यूरोप में और एक युद्ध का बीज बो रही है. लेकिन, उस वक्त दुनिया पर राज कर रहे यूरोप के नेताओं को शायद यह बात समझ नहीं आयी.

ब्रिटेन के तत्कालीन वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री जेएम कीन्स ने उसी वक्त संधि को कठोरता में ‘कार्थेजिनियन’ बताकर उसकी आलोचना करते हुए उससे जुड़ने की बजाय इस्तीफा दे दिया था. वहीं, फ्रांसीसी मार्शल फर्डिनांड फोश ने इसके बारे में कहा था, ‘20 साल का युद्धविराम कोई शांति नहीं है.’

‘सभी युद्धों को खत्म करने के लिए हुआ यह युद्ध’ सबसे बड़ी विभीषिका सिद्ध हुआ. वर्साय की संधि के माध्यम से जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद करने और राजनीतिक तथा कूटनीतिक रूप से पूरी दुनिया के सामने उसकी बेइज्जती ने नाजीवाद और उसकी क्रूरताओं को पनपने की जमीन दे दी.

सिर्फ इतना ही नहीं, विभिन्न संधियों के माध्यम से सीमाओं के नये निर्धारण और नये देशों के गठन ने भी पूरे यूरोप और आसपास के क्षेत्रों में विवादों तथा मतभेदों के नये आयाम पैदा कर दिये.

इस दौरान का एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम वर्ष 1917 में रूस की क्रांति भी रही. खाद्यान्न की कमी और सैन्य विफलता ने राज्य को कमजोर बना दिया और लेनिन के बोल्शेविकों को अपनी क्रांति तेज करने तथा सोवियत संघ को तानाशाही कम्युनिस्ट राष्ट्र घोषित करने का मौका दे दिया.

कृषि क्षेत्र के लिए बनायी गयी खराब नीतियों के कारण राष्ट्र उस दौरान 1930 के दशक में पड़े सूखे से निबट नहीं पाया और करीब 30 लाख लोग भुखमरी के शिकार हुए.

इतना ही नहीं, लेनिन के उत्तराधिकारी जोसेफ स्टालिन की गलत नीतियों ने भी करीब 10 लाख लोगों की जान ली.

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