दुनिया की 95 फीसदी आबादी का पेट भरती है 22 फीसदी मिट्टी
मिथिलेश झा
प्रकृति में मौजूद हर चीज पर शोध हुए हैं. जल, जंगल और जमीन की चर्चा पूरी दुनिया में छायी है, लेकिन जीवन के लिए जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है, उसके बारे में कोई चर्चा नहीं होती. जी हां. हम बात कर रहे हैं मिट्टी की. मिट्टी के बगैर इन्सान के जीवन की कल्पना भी मुश्किल है. मिट्टी आज बर्बाद हो रही है. धरती बंजर हो रही है, लेकिन किसी को इसकी चिंता नहीं है. सरकारें और वैश्विक संस्थान लोगों का जीवनस्तर सुधारने की बात करते हैं, लेकिन मिट्टी में हो रहे क्षरण (डीग्रेडेशन) को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम अब तक नहीं उठाया गया. भारत में तो झारखंड ऐसा प्रदेश है, जहां सबसे ज्यादा जमीन बंजर हो रही है. यहां मृदा संरक्षण विभाग (सॉयल कंजर्वेशन डिपार्टमेंट) तो है, लेकिन उसे अपना मूल कर्म ही नहीं मालूम. इसलिए समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.
दुनिया भर के मृदा विज्ञानियों (Soil Scientists) ने अब चेताना शुरू कर दिया है. उनका कहना है कि मिट्टी के महत्व को समझना होगा. उसे संरक्षित करना होगा. उसका उपचार करना होगा. जिस तरह पेड़-पौधों में जान होती है, उसी तरह मिट्टी भी है. दुनिया भर में मिट्टी की आज जो स्थिति है, वह भयावह है. अब भी नहीं चेते, तो दुनिया के सामने भुखमरी की नौबत आ जायेगी. जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी तत्व मिट्टी के महत्व को थाईलैंड के सम्राट भूमिबोल अदुल्यादेज ने वर्षों पहल समझा. संयुक्त राष्ट्र से भी पहले उन्होंने ही कहा था कि यदि दुनिया का पेट भरना है, तो मिट्टी की कद्र करनी होगी. मिट्टी को बीमार होने से बचाना होगा. इसका उपचार करना होगा. ऐसा नहीं किया, तो भविष्य में किसान बर्बाद हो जायेंगे.
सम्राट ने तभी कहा था कि दुनिया को समझना होगा कि इन्सान के लिए वाय़ु और जल जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है मिट्टी का होना. मिट्टी का सेहतमंद होना बहुत जरूरी है. स्वस्थ मिट्टी खेतों की उपज बढ़ाता है. यहां बताना प्रासंगिक होगा कि जंगल और मैदान धरती पर मौजूद एक चौथाई (25 फीसदी) जीव-जंतुओं का पालन-पोषण करते हैं. ईंधन, औषधियों, रेशों और पशु आहार का यह सबसे बड़ा स्रोत हैं. मिट्टी एक प्राकृतिक जलशोधक ( वाटर फिल्टर) है. भारी मात्रा में कार्बन को सोखकर और उसे संचित करके जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने की क्षमता सिर्फ मिट्टी में ही है. इसलिए यदि बेहतर भविष्य चाहिए, तो मिट्टी का संरक्षण और उसका पोषण बेहद जरूरी है.
33 फीसदी उपजाऊ भूमि हो गयी बंजर
मिट्टी एक ऐसा संसाधन है, जो सीमित है. पूरी धरती के सिर्फ 22 फीसदी भू-भाग पर दुनिया के 95 फीसदी लोगों का पेट भरने लायक खाद्यान्न उपजता है. इसमें से एक तिहाई (करीब 33 फीसदी) अब बंजर हो चुकी है. इसकी मुख्य वजहें कटाव (Erosion), प्रदूषण (Contamination) और वनों का कटाव (Desertification) हैं. धरती को इतना नुकसान सिर्फ 50 वर्ष में हुआ है. इसी आधार पर सम्राट भूमिबोल अदुल्यादेज ने संयुक्त राष्ट्र को दिये एक संदेश में कहा था कि खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए पारिस्थितिकी तंत्र (मिट्टी) से जुड़े मुद्दों का हल करना बेहद जरूरी है.
हजार साल में बनती है एक सेंटीमीटर मिट्टी, मिनटों में हो जाती है बर्बाद
ऐसी ही बातें पेरिस में आयोजित एग्रो पेरिस टेक में सॉयल साइंटिस्ट क्लेयर चेनू ने कहा था. उन्होंने कहा था कि दुनिया भर में मिट्टी की जो स्थिति है, वह भयावह है. वहीं, संयुक्त राष्ट्र में फूड एंड एग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेशन के डायरेक्टर जेनरल जोस ग्रेजियानो डीसिल्वा ने कहा था कि एक सेंटीमीटर मिट्टी बनने में एक हजार साल लग जाते हैं. वही एक सेंटीमीटर मिट्टी कुछ ही मिनटों में बर्बाद हो जाती है.
1983 में सम्राट ने किसानों को चेताया
थाईलैंड के सम्राट भूमिबोल अदुल्यदेज ने 1983 में ही इस भीषण समस्या को भांप लिया, जब उन्होंने पेचाबुरी प्रांत का दौरा किया. यहां वह हुआईसाई समुदाय के लोगों से मिले. उन्होंने देखा कि जहां कभी घने जंगल होते थे, वहां अनन्नास के कुछ पौधों को छोड़कर दूर-दूर तक परती जमीन थी. उन्होंने उसी वक्त भविष्यवाणी की थी कि ज्यादा पैसे कमाने की चाहत में किसान मोनो क्रॉपिंग पर जोर दे रहे हैं. एक फसल उगा रहे हैं, जिसकी वजह से वनस्पतियां नष्ट हो रही हैं. इससे पारिस्थितिकी तंत्र का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है.
सम्राट भूमिबोल ने तभी कहा था कि मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है. रासायनिक खाद कुछ दिनों के लिए तो उपज बढ़ा सकते हैं, लेकिन भविष्य में किसानों को इसका दुष्परिणाम भुगतना होगा. आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है. दुनिया भर के किसान आज रासायनिक खाद के इस्तेमाल का दुष्परिणाम भुगत रहे हैं. कृषि वैज्ञानिक अब किसानों को सलाह दे रहे हैं कि वे जैविक खेती की ओर रुख करें. सम्राट भूमिबोल ने अपने देश में यह काम 35 साल पहले शुरू कर दिया था. दुनिया को इस बारे में चेता भी दिया था.
राजा भूमिबोल ने मिट्टी की सुरक्षा के लिए उठाये ये कदम
राजा भूमिबोल ने मिट्टी की सुरक्षा और उसकी उत्पादकता को री-स्टोर करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण काम किये. नतीजा यह हुआ कि 1983 में जिस पेचाबुरी प्रांत में वनस्पतियां खत्म हो गयी थीं, इलाके वीरान हो गये थे, आज वहां घने जंगल हैं. परिवार के साथ लोग रह रहे हैं. खेत हैं. बगीचे हैं. इतना ही नहीं, यहां कृषि कार्य होते हैं. पर्यावरण से जुड़ी कई सामुदायिक योजनाएं संचालित हो रही हैं. इसके लिए राजा भूमिबोल ने जो कदम उठाये, वो इस प्रकार हैं :
-किसानों के लिए तालाबों का निर्माण कराया गया. उसमें संचित पानी से किसानों ने खेतों की सिंचाई शुरू की. साथ ही तालाबों में मछली पालन भी शुरू कराया गया.
-नकदी फसल (कैश क्रॉप) की बजाय किसानों को बहुफसली खेती के लिए प्रेरित किया गया. उनसे कहा गया कि वे रासायनिक खादों की बजाय प्राकृतिक एवं जैविक खाद का इस्तेमाल करें. पेस्ट मैनेजमेंट पर ध्यान दें.
-भूमिबोल का मानना था कि खेती में विविधता होगी, तो फर्जी बाजार तैयार नहीं होंगे. इससे किसानों का कोई शोषण नहीं कर पायेगा. साथ ही मिट्टी की उत्पादकता भी बरकरार रहेगी.
प्रकृति के प्रत्यावर्तन के लिए प्रकृति का इस्तेमाल करें
मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए राजा भूमिबोल ने उत्तरी थाईलैंड में वेटिवर ग्रास लगवाये, ताकि इस क्षेत्र का पानी बर्बाद न हो. उन्होंने पूर्वोत्तर क्षेत्र में वेटवर ग्रास की जड़ें गहरी होती हैं, जो नाइट्रोजन को सोखकर सूखी मिट्टी को नम बनाते हैं. मिट्टी के पोषक तत्वों में वृद्धि करते हैं, जिससे गरीब किसानों के खेत में उत्पादकता बढ़ती है. वहीं, दक्षिण में उन्होंने नया प्रयोग किया. इस इलाके में उन्होंने पीट स्वैंप के जरिये हजारों एकड़ बंजर जमीन को उत्पादक जमीन में तब्दील किया. सम्राट भूमिबोल का कहना था कि प्रकृति को मूल रूप में लौटाने के लिए प्रकृति का इस्तेमाल करें (Use nature to restore nature).
वर्ष 1998 में महाराजा भूमिबोल ने अपने कार्यों को पुस्तक के रूप में समाहित किया. इसे नाम दिया – सफिसिएंसी इकॉनोमी (Sufficiency Economy). सफिसिएंसी इकॉनोमी सिद्धांतों का एक सेट है, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि किसानों के जोखिम को कैसे न्यूनतम किया जा सकता है और उन्हें बाहरी एवं भीतरी झटकों से कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है.
यूएनडीपी को समझ आयी सम्राट भूमिबोल की बात
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme) को महाराजा भूमिबोल की पुस्तक का महत्व वर्ष 2007 में समझ आया. और तब UNDP ने लिखा – वर्तमान आर्थिक अनिश्चितता, ग्लोबल वार्मिंग और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के दौर में सफिसिएंशी इकॉनोमी की प्रासंगिकता वैश्विक है. इसके केंद्र में मानवता है, यह धन-संपदा नहीं, बेहतरी की बात करता है. स्थिरता इसकी सोच का केंद्र बिंदु है.