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एकता की मूर्ति

मनीष पुष्कले पेंटर यह हमारी खुशनसीबी है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं. यह भी खुशी की बात है कि दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति का गौरव भी अब हमारे पास है. अमेरिका की ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ की तर्ज पर इसका नाम ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ रखा गया है. ‘’ समुद्र के […]

मनीष पुष्कले

पेंटर

यह हमारी खुशनसीबी है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं. यह भी खुशी की बात है कि दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति का गौरव भी अब हमारे पास है. अमेरिका की ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ की तर्ज पर इसका नाम ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ रखा गया है. ‘’

समुद्र के किनारे न्यूयार्क हार्बर पर स्थापित ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ हाथ में मशाल थामे एक सामान्य स्त्री की है, लेकिन गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे स्थापित प्रतिमा हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक महापुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की है.

उस अमेरिकी मूर्ति में किसी स्त्री विशेष का चित्रण नहीं है, वह तो अमेरिकी क्रांति के दौरान फ्रांस और अमेरिका की दोस्ती का प्रतीक है, जो अमेरिका को फ्रांस से भेंट में मिली थी. इसके बरक्स हमारी ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ चारित्रिक स्तर पर उससे भिन्न है, क्योंकि वह व्यक्ति विशेष की है. यह भी गौर करनेवाली बात है कि अमेरिका के ग्रांड कौली बांध के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध भी गुजरात में ही है, जिसके निकट इस मूर्ती को स्थापित किया गया है.

सरदार पटेल की यह प्रतिमा चार धातुओं के मिश्रण से बनी है, जिसके संयोजन में 85 प्रतिशत तांबा है. हमारे लौहपुरुष की इस छवि में लौह-तत्व की मात्रा 15 प्रतिशत भी नहीं है, इसका यह अर्थ भी है कि निर्मिती के स्तर पर दुनिया की इस विशालतम मूर्ति में सरदार पटेल का मूल चरित्र और उनका प्रासंगिक पौरुष्य घटकर सांकेतिक मात्र है

तकनीकी तौर पर यह कहा गया है कि इस मूर्ति को जंग से बचाने के लिए उसमें अन्य धातुओं का मिश्रण किया गया है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इसकी निर्मिती के दौरान यह प्रयत्न क्यों नहीं किया गया कि हम अपनी अगरिया जनजाति की उस तकनीक का इस्तेमाल इसमें कर सकते थे, जो शत-प्रतिशत लोहा बनाने की ऐसी पारंपरिक पद्धति को जानती है, जिसमें कभी-भी जंग नहीं लगती? अगरिया इस तकनीक को जाननेवाली दुनिया की अकेली जनजाति है, जिस पर वर्षों पहले अंग्रेजों ने रोक लगा दी थी और वह रोक आज तक कायम है. इस रोक के कारण आज तक अगरिया जनजाति के लोग बंजारों जैसे दर-बदर भटकते हैं.

इस मूर्ति को वरिष्ठ शिल्पकार राम सुतार ने बनाया है. उन्होंने और भी कई अन्य शिल्प बनाये हैं, लेकिन संसद भवन में स्थापित गांधी का शिल्प विशेष है.

राम सुतार एक वरिष्ठ शिल्पकार होने के बावजूद अगरियों की इस प्रतिभा से अनभिज्ञ रहे होंगे, यह मैं नहीं मानता. एक वरिष्ठ शिल्पकार के होने के नाते यह राम सुतार की जिम्मेदारी बनती थी कि वे अगरियों की इस पारंपरिक प्रतिभा से सरकार को परिचित करवाते.

इस प्रकार से अगर वे इस योजना में इन लोक-शिल्पियों को भी जोड़ लेते, तो उसका संदेश सामाजिक स्तर पर कुछ और ही होता. अगर इस बात पर विचार किया गया होता, तो एकता की यह मूर्ति मात्र राजनीतिक उद्देश्य से ऊपर उठकर समावेश के उस सामाजिक मुद्दे को भी छू सकती थी, जिसमें सरदार पटेल का दर्शन था और जिसे उन्होंने वास्तव में कर दिखाया था. राम सुतार चाहते, तो इस योजना से अगरिया जनजाति के पारंपरिक कौशल को दुनिया के सामने ला सकते थे.

भारतीय कला के किसी भी पैमाने या कसौटी से राम सुतार के किसी भी शिल्प की तुलना राम किंकर बैज के उन शिल्पों से नहीं की जा सकती, जो दिल्ली में रिजर्व बैंक के द्वार पर स्थापित हैं. सौंदर्य बोध की दृष्टि से राम सुतार के शिल्प राम किंकर के समक्ष अभिधा के स्तर पर भी कहीं नहीं टिक पाते. राम किंकर के शिल्प में अभूतपूर्व, कलात्मक व्यंजना है और राम सुतार के शिल्प में राजनीति से ओतप्रोत मात्र तात्कालिक अभिधा.

राजनीति और कला के आपसी संबंध का एक अप्रतिम उदहारण फ्रांस में, पेरिस के उस चौराहे पर विद्यमान है, जिसमें बाल्जाक का शिल्प रोदां ने बनाया है. रोदां ने उस शिल्प में बाल्जाक के चरित्र की छवि उकेरी है, न कि उनकी दैहिक प्रतिकृति बनायी है. रोदां के इस शिल्प को दुनिया के महान शिल्पों में रखा जाता है. हालांकि, भारत में शिल्प कला के ऐसे उत्कर्ष की संभावना और समझ सिर्फ राम किंकर बैज में ही थी.

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