सत्ता से सवाल करती फिल्में

अरविंद दास, पत्रकार फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) के अवसान के साथ ही करीब पचास साल की उनकी फिल्मी यात्रा थम गयी. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के अद्वितीय चितेरे ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे के समकालीन थे. ऋत्विक घटक की ‘नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की ‘पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 13, 2019 6:30 AM
अरविंद दास, पत्रकार
फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) के अवसान के साथ ही करीब पचास साल की उनकी फिल्मी यात्रा थम गयी. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के अद्वितीय चितेरे ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे के समकालीन थे.
ऋत्विक घटक की ‘नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की ‘पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म ‘रात भोर’ (1956) लेकर आते हैं. पर जहां सत्यजीत रे को दुनियाभर में पहली फिल्म के साथ ही एक पहचान मिल गयी, वहीं मृणाल सेन को लंबा इंतजार करना पड़ा था.
मृणाल सेन की तरह ही भारतीय सिनेमा में पचास वर्षों से ज्यादा से सक्रिय मलयालम फिल्मों के निर्देशक और दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अदूर गोपालकृष्णन कहते हैं कि ‘मृणाल सेन को सफलता काफी संघर्ष के बाद मिली. वर्ष 1969 में आयी हिंदी फिल्म ‘भुवन सोम’ ने उन्हें भारतीय सिनेमा में स्थापित कर दिया.’
मृणाल सेन के अवसान के बाद एक बार फिर से उनकी फिल्मों और सिनेमाई संसार में उनकी गुरुता की तुलना सत्यजीत रे से की जाने लगी है. गोपालकृष्णन कहते हैं कि ‘घटक और रे दोनों से मृणाल सेन स्टाइल और अप्रोच में अलग थे. वे अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से कभी नहीं डरे. वे अपनी विचारधारा के प्रति आबद्ध रहे.’
खुद मृणाल सेन कहा करते थे: ‘मैं सिनेमा में काम करता हूं, सिर से पांव तक सिनेमा में डूबा हूं. मैं सिनेमा में निबद्ध हूं, पूरी तरह आसक्त.’ नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में कोलकता को केंद्र में रखकर सेन ने ‘इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 1971’ (1972) और ‘पदातिक’ (1973) नाम से फिल्म त्रयी बनायी, जो उस दौर की राजनीति, युवाओं के सपने और आम लोगों की हताशा को हमारे सामने रखती हैं.
हाल में बॉलीवुड में बनी राजनीतिक फिल्मों के साथ इन फिल्मों को देखें, तो उत्कृष्ट कला और प्रोपगैंडा के फर्क को हम आसानी से समझ सकते हैं. सेन कभी मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य नहीं रहे. हां, इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और मार्क्सवादी आंदोलनों के साथ उनका जुड़ाव था.
मृणाल सेन की फिल्में गरीबी, सामाजिक न्याय, सत्ता के दमन और भूख के सवालों को कलात्मक रूप से हमारे सामने रखती हैं. उन्होंने प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफन को आधार बना कर तेलगू में ‘ओका ऊरी कथा’ (1977) बनायी. यह कहानी जितना मर्म को बेधती है, फिल्म हमें उतना ही झकझोरती है.
फिल्म का पात्र वेंकैया कहता है कि ‘यदि हम काम नहीं करें, तो भूखे रहेंगे, वैसे ही जैसे बेहद कम पगार पर काम करनेवाला मजदूर भूखा रहता है. तो फिर काम क्यों करना?’ इसमें उन्होंने बंटे हुए समाज में श्रम के सवाल को केंद्र में रखा है, भूख और मानवीयता के लोप को निर्ममता के साथ दर्शाया है.
मृणाल सेन की फिल्मों पर काम करनेवाले जॉन डब्ल्यू वुड ने लिखा है: ‘ओका ऊरी कथा एक एंटी-होरी फिल्म है. इसमें उस दुनिया का चित्रण है, जहां निर्दोष व्यक्ति दुख सहता है और अनैतिक फलता है और जहां आवाज उठाने, विरोध करने का कोई अर्थ नहीं.’ क्षेत्रीयता की भूमि पर विकसित उनकी फिल्में अखिल भारतीय हैं.
आपातकाल के बाद सेन की फिल्मों का स्वर बदलता है. फिल्म ‘एक दिन प्रतिदिन’ और ‘एक दिन अचानक’ में स्त्रियों की आजादी का सवाल है. वे मध्यवर्ग की चिंताओं, पाखंडों को फिल्मों के केंद्र में रखते हैं.
वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक उद्वेलित हों. पाॅपुलर सिनेमा की तरह उनकी फिल्में हमारा मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि संवेदनाओं को संवृद्ध करती हैं, ‘अंत:करण के आयतन’ का विस्तार करती हैं.

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