कुंभ मेले में भोजन
पुष्पेश पंत इस वर्ष ‘दिव्य और भव्य’ कुंभ मेले के आयोजन का बड़ा शोर शराबा है- संदेश यह दिया जा रहा है कि यह महज पारंपरिक धर्म विशेष के साथ जुड़ा पर्व नहीं, पर इसी बहाने भारत अपनी तकनीकी क्षमता और प्रबंधन की प्रतिभा की नुमाइश भी अनायास कर सकता है. पर्यटन को तो प्रोत्साहन […]
पुष्पेश पंत
इस वर्ष ‘दिव्य और भव्य’ कुंभ मेले के आयोजन का बड़ा शोर शराबा है- संदेश यह दिया जा रहा है कि यह महज पारंपरिक धर्म विशेष के साथ जुड़ा पर्व नहीं, पर इसी बहाने भारत अपनी तकनीकी क्षमता और प्रबंधन की प्रतिभा की नुमाइश भी अनायास कर सकता है.
पर्यटन को तो प्रोत्साहन मिलेगा ही. इसीलिए जब हमारे एक भोजन भट मित्र ने पूछा ‘कुंभ का खास खाना क्या होता है? वहां खाना क्या चाहिए?’ तो हमें अटपटा नहीं लगा. इस बात को भूलिये कि यह अर्धकुंभ ही है और प्रयाग के संगम पर माघ मेला हर साल जुटता है और यह असाधारण विराट भीड़ के जमघट का पर्याय बन चुका है. बहरहाल, यह समझ नहीं आ रहा कि कुंभ के खास खाने की बात कहां से शुरू करें?
कुंभ के स्नान का माहात्म्य सर्वविदित है. करोड़ों की भीड़ जहां जुटेगी, वहां उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी परमावश्यक है. जाहिर है, जो लोग कल्पवास कर पुण्य कमाने की अभिलाषा रखते हैं, वह पखवाड़े भर या मास पर्यंत उपवास नहीं रखते.
दूसरी बात यह है कि भले ही यह जलसा सिर्फ आस्थावान हिंदुओं तक सीमित नहीं रह सकता, संगम पर गंगा-जमुना तट पर खाया-खिलाया जानेवाला भोजन शुद्ध शाकाहारी और कमोबेश सात्विक ही हो सकता है. जो लोग तीर्थ यात्रा के मकसद से कम पर्यटन-मनोरंजन के इरादे से ज्यादा इलाहाबाद (अब प्रयागराज) का रुख करते हैं, वह इस शहर की मशहूर चाट का स्वाद चखे बिना नहीं लौटना चाहेंगे. विडंबना यह है कि कुंभ को दिव्य और भव्य बनाने की महत्वाकांक्षा में सड़कों का जो चौड़ीकरण हुआ, उसकी चपेट में कटरा बाजार की नेतराम जैसी दूकानें भी आ गयीं.
यही आशा की जा सकती है कि मकर संक्रांति के पहले यह पुनर्वासित हो सकेंगे! लोकनाथ में हरी के समोसे- जो महीनों टिकाऊ होते हैं, कम मजेदार नहीं हैं. हां, मकर संक्रांति के दिन माष की खिचड़ी खाने की परंपरा है. इसका निर्वाह करनेवाले भी काफी हैं.
संगम का अर्थ है एकाधिक जलधाराओं का मिलन. इस जगह सिर्फ गंगा-जमुना का ही संगम नहीं होता, बल्कि कुंभ मेले के अवसर पर जो श्रद्धालु देश के विभिन्न भागों से यहां पहुंचते हैं, वह अपने इलाके के जायके भी साथ लाते हैं, जिनमें से कुछ स्थानीय जुबान पर चढ़े बिना नहीं रह सकते.
जोगी जंगमों के दर्जनों अखाड़े तंबू-तानते धूनी रमाते हैं. यह भी भूखे भजन नहीं करते. इसी मेले में कभी एक अर्ध नग्न साधु ने हमें षडरस भोजन की नयी व्याख्या समझायी थी. बाबा जी मिट्टी की हांडी में सब कुछ एक साथ पका रहे थे- जो मिला- पत्ते-डंठल, बीज-फल कच्चे-पके, फूल और तिल.
उनका कहना था कि इन पदार्थों में ही छह के छह स्वाद रहते हैं- मीठा, नमकीन, खट्टा, कड़आ, कसैला और तीखा. बीजों से तेल की चकनाई मिल जाती है, और हरी पत्तियों से नमक. पहले तो यकीन नहीं हुआ, पर जब ‘प्रसाद’ को जीभ पर रखा, तो महसूस हुआ कि वास्तव में एक ही लुकमे में सारे स्वादों का आनंद लेना संभव है. उसके बाद कभी वह जादू हम खुद नहीं जगा पाये, पर सड़क किनारे की इस फकीरी दावत की याद अब भी ताजा है.
कुंभ के खाने-पीने के बारे में एक अन्य बात सतर्कता बरतने की है. खाने की चीजों को साफ-सफाई से न बनाया गया हो, या इन्हें धूल-गर्द-मक्खियों और गंदे हाथों से बचाकर न रखा जाये, तो जानलेवा रोगों के संक्रमण का भारी खतरा भी रहता है. पेय जल भी निरापद ही रहना चाहिए. यह आशा करना नाजायज नहीं कि स्वच्छता अभियान की गति कुंभ में और तेज होगी तथा इस आयोजन के बाद भी हम यह सावधानी छोड़ेंगे नहीं! कुंभ के बहाने ही सही, यदि विविधता का अनायास आदर करना शुरू कर सकें, तो इससे बड़ा पुणवय कार्य क्या होगा?