बोल्शेविक क्रांति में लेनिन की भूमिका और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्रांति की प्रासंगिकता

रूस में 1917 में फरवरी और अक्टूबर में दो क्रांति हुई. पहले में राजशाही को उखाड़ फेंका गया. दूसरी क्रांति पहली क्रांति की रक्षा के लिए हुई. यह पूंजीवाद के खिलाफ और समाजवाद के पक्ष में था. अप्रैल में लेनिन की वापसी ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार की. अप्रैल के अंत तक बोल्शेविक पार्टी ने सोवियत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 21, 2019 5:38 PM

रूस में 1917 में फरवरी और अक्टूबर में दो क्रांति हुई. पहले में राजशाही को उखाड़ फेंका गया. दूसरी क्रांति पहली क्रांति की रक्षा के लिए हुई. यह पूंजीवाद के खिलाफ और समाजवाद के पक्ष में था. अप्रैल में लेनिन की वापसी ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार की. अप्रैल के अंत तक बोल्शेविक पार्टी ने सोवियत सरकार के गठन की रूपरेखा पेश की. यह सरकार मजदूरों और सैनिकों की थी. इस सरकार में बड़े जमींदारों और बुर्जआ की कोई भूमिका नहीं थी.

लेनिन ने दुनिया पर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चल रहे संघर्षों से समन्वय की बात की. प्रथम विश्व युद्ध की हिंसा और उसके प्रभाव को दुनिया देख चुकी थी. ऐसे में सैन्य विद्रोह और बोल्शेविकों द्वारा युद्ध के अंत की मांग, पूंजीवाद के अंत के प्रति बढ़ते समर्थन ने क्रांति का रूप ले लिया. लेनिन का मानना था कि उवनिवेशों के खिलाफ चल रहे संघर्ष के बीच समन्वय स्थापित नहीं हुआ, तो कोई भी क्रांति नहीं टिकेगी.

बोल्शेविकों ने वामपंथी समाजवादी क्रांतिकारियों से मिलकर सोवियत संघ के कई प्रांतों में 1917 तक बहुमत हासिल कर लिया. इससे निर्णयकारी संघर्ष के वक्त वे मजबूत रहे और विंटर पैलेस पर कब्जा कर लिया. स्थिति ऐसी बन गयी कि सत्ताधारी शासन करने में सक्षम नहीं थे और लोग ऐसे शासन को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे.

आसान नहीं थी जीत

रूसी क्रांति में जीत आसान भी नहीं थी. अगस्त, 1917 में जनरल कोरनिलोव ने क्रांतिकारियों के खिलाफ दमनकारी कार्रवाई की योजना बनायी. सेना में फूट पड़ गयी और यह योजना खटाई में पड़ गयी. नाकाम रह गयी. हालांकि, विदेशी ताकतों की दखलंदाजी ने सेना को ताकत दी, लेकिन दूसरे यूरोपीय देशों में जिस तरह से क्रांतिकारियों के पक्ष में माहौल बन रहा था, उसे देखते हुए ये देश लंबे समय तक रूस की सेना का साथ नहीं दे पाये. स्थिति ऐसी बन गयी कि या तो आप क्रांति के साथ थे या इसके विरोध में. उदार समाजवादी विपक्षी खेमे में पहुंच गये.

हालांकि, क्रांति को उस वक्त झटका लगा, जब वामपंथी पार्टी ने ब्रेस्ट-लिटोवस्क समझौते का विरोध करते हुए बोल्शेविकों से अलग होने का मार्च, 1918 में निर्णय लिया. इसके बाद जुलाई से गृह युद्ध की शुरुआत हो गयी. इतिहासकार मोशे लेविन कहते हैं कि वर्ष 1914 से 1921 के बीच रूस में जो हुआ, उसका नुकसान रूस को लंबे समय तक उठाना पड़ा.

किसानों की थी क्रांति

सत्ता के खिलाफ संघर्ष के लिए जो लोग खड़े हुए थे, उनमें गरीब किसान, सैनिक और मजदूर शामिल थे. इस तरह यह गरीब किसानों की क्रांति थी. श्रमिकों में अधिकांश वैसे लोग थे, जो अर्ध-किसान थे. इस पृष्ठभूमि में क्रांति से संबंधित बौद्धिक वर्ग ने भविष्य के समाज की संकल्पना समाजवादी रूप में की. लेनिन की इसमें अहम भूमिका थी.

पाॅल ली ब्लांक ने वर्ष 1989 में ‘लेनिन ऐंड दि रिवोल्यूशनरी पार्टी’ लिखी. उनका मानना है कि लेनिनवाद ने पूंजीवाद को खारिज करने के लिए जागरूकता फैलाने का काम किया. पार्टी को लेकर भी अलग-अलग वक्त पर लेनिन की राय अलग रही. समय के साथ इसमें बदलाव होते रहे.

बोल्शेविक क्रांति का इतिहास लिखने वाले कहते हैं कि लेनिन की समाजवाद की अवधारणा दीर्घावधि की सोच पर आधारित रही, जो वर्तमान की सच्चाइयों के साथ व्यावहारिक तालमेल पर आधारित थी. इसमें किसानों के प्रति संवेदना और तानाशाही शासन तंत्र की खामियों को दूर करना शामिल था. इसमें स्टालिन को पार्टी के शीर्ष पद से हटाना शामिल था. लेनिनवाद-बोल्शेविकवाद और स्टालिनवाद के संघर्ष में तानाशाही स्टालिनवाद कामयाब हुआ.

अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड ने अपनी पुस्तक ‘टेन डेज दैट शूक दि वर्ल्ड’ (10 दिन जिसने दुनिया हिला दी) में लिखा, ‘रूस का समृद्ध वर्ग सिर्फ एक राजनीतिक क्रांति चाहता था, जो जार से सत्ता छीनकर उसे उनके हाथों में सौंप दे. दूसरी ओर, आम जनता की इच्छा थी कि एक वास्तविक औद्योगिक एवं कृषि लोकतंत्र स्थापित हो. और इस प्रकार रूस में राजनीतिक क्रांति के शीर्ष पर एक सामाजिक क्रांति विकसित हो गयी, जिसका नतीजा बोल्शेववाद की विजय तक पहुंच गया.’

सात नवंबर, 1917 को बोल्शेविक पार्टी के नेता लेनिन के नेतृत्व में वामपंथी क्रांतिकारियों ने ड्यूमा की सरकार के खिलाफ रक्तहीन क्रांति के जरिये सत्ता पर दबदबा कायम कर लिया. लेनिन ने एक ऐसी सरकार का गठन किया, जिसमें किसानों और कामगारों को प्रतिनिधि नियुक्त किया गया. इस प्रकार बोल्शेविकों ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनायी, जिसके मुखिया लेनिन बने.

इसी ‘सामाजिक क्रांति’ के बाद 1922 में सोवियत संघ (यूएसएसआर) के रूप में रूस में विश्व की प्रथम समाजवादी सत्ता स्थापित हुई. तब से आरंभ होकर 1991 में सोवियत संघ के बिखराव तक बोल्शेविक क्रांति के राजनीतिक और बौद्धिक प्रभावों के साये ने पूरे विश्व को अपनी आगोश में लेकर उसकी सामाजिक-आर्थिक एवं भू-राजनीतिक घटनाओं और बहसों को जन्म दिया. यहीं आकर यह सवाल खड़ा होता है कि सोवियत संघ के पतन के 26 वर्ष बाद भी क्या बोल्शेविक क्रांति ने आज के हिसाब से कहीं कोई प्रासंगिकता बचा रखी है?

अक्तूबर क्रांति 1917 क्यों?

वर्ष 1917 की रूस की क्रांति बीसवीं सदी की सर्वाधिक विस्फोटक राजनीतिक घटना मानी जाती है. इस हिंसक क्रांति ने रूस में सदियों से चली आ रही राजशाही को खत्म कर दिया. व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक ने सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया और जार के शासन की परंपरा को खत्म कर दिया. राजनीतिक व सामाजिक रूप से हुए बदलावों के नतीजों से सोवियत संघ का गठन हुआ.

पश्चिमी यूरोप के अधिकांश हिस्से में लोग सामाजिक रूप से बेहद पिछड़े थे. रूसी साम्राज्य में दासप्रथा का चलन था, जो एक प्रकार से सामंतवाद का प्रारूप था. इस प्रथा के तहत भूमिहीन किसानों को कृषि मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जाता था़ वर्ष 1861 में रूसी राजशाही ने दासप्रथा को खत्म कर दिया. माना जाता है कि दासों को मुक्त करने की घटना से किसानों को संगठित होने की स्वतंत्रता मिली, जो रूस की क्रांति का बड़ा कारक बना.

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